“सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण।”
राष्ट्रीय पर्यावरण पर्व
प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के विषय में “खेजड़ली सत्याग्रह” की विश्व के इतिहास में कोई बराबरी नहीं है। आने वाले हजारों वर्षों तक, “खेजड़ली सत्याग्रह” प्रकृति एवं पर्यावरण के संरक्षण में लगे मानव मात्र के लिये प्रेरणा प्रदान करता रहेगा।
सन् 1730 में, तत्कालीन मारवाड़ राज्य पर जोधपुर महाराजा अभयसिंह (1702-1749) का शासन था। महाराजा अभयसिंह, का 22 वर्ष की उम्र में सन् 1724 में राज्याभिषेक हुआ और सन् 1730 (अक्टुबर 1730)[1] में, गुजरात के विद्रोही सूबेदार सरबुलन्दखान पर विख्यात विजय प्राप्त करने तथा अकूत सोना जीत कर लाने का उल्लेखनीय अवसर प्राप्त हुआ।
यह ईश्वी सन् 1730 की घटना है उस समय, सभी प्रकार के निर्माण कार्यो में चूने का उपयोग किया जाता था। मेहरानगढ़ दुर्ग में, भी मरम्मत और निर्माण की सतत् चलने वाली गतिविधियों के लिए चूने का उपयोग होता था। और चूने के भट्टो के लिए जलाऊ लकड़ी की आवश्यकता रहती थी। चूने के भट्टों के लिए आवश्यक ’’जलाऊ लकडी’’ को एकत्रित करने के लिए मारवाड़ रियासत के एक हाकिम (नायब तहसीलदार स्तर का अधिकारी) गिरधारीदास अपने मातहतों तथा लकड़हारों के साथ प्रवास पर था।
बिश्नोई बहुल गांवों और ढाणियों में, खेजड़ी के संरक्षित सघन वन देख-देख कर उसकी नीयत खराब हो रही थी। उसने विचार किया कि बड़ी मात्रा में वृक्ष काट लिए जाए तो 2-4 साल आराम से निकलेंगें। यद्यपी, मारवाड़ (जोधपुर) के तत्कालीन महाराजा अभयसिंह के पिता महाराजा अजीत सिंह के समय से बिश्नोई बहुल गांवों में, हरे वृक्ष नहीं काटने तथा शिकार नहीं करने की राजाज्ञा थी। इसके बावजूद हाकिम के मन में लालच आ गया। ऐसा कहा जाता है कि हाकिम गिरधारीदास ने ठिकाणा “खारड़ा” में अपने दल-बल सहित रात्रि विश्राम किया। और प्रातः “खेजड़ली” गांव के लिए प्रस्थान किया।
वर्तमान जोधपुर शहर से लगभग 25 कि.मी. दूर स्थित खेजड़ली गांव की यह घटना है। यह क्षैत्र बिश्नोई बहुल क्षैत्र है गुरू जाम्भेश्वर भगवान द्वारा स्थापित विश्नाई सम्प्रदाय पश्चिम भारत के अनेक क्षैत्रों में विद्यमान हैं जहाँ कहीं सहज ही सघन वन क्षेत्र दिखाई दें, और जहाँ वन्य प्राणी निर्भय विचरण करते दिखाई दे, तो समझ ले, यह बिश्नोई बहुल क्षेत्र है।
गुरू जाम्भेश्वर भगवान (1451-1536) ने बिश्नोई धर्म पालन के 29 नियम (बीस+नौ) का उपदेश किया। यह सर्व प्रसिद्ध हैं। लोक भाषा में आप जाम्भोजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। जाम्भोजी महाराज का जन्म पंवार गोत्र के क्षत्रिय कुल में हुआ। लोग उन्हे भगवान विष्णु का अवतार मानते है। जाम्भोजी महाराज ने जीवन पर्यन्त “विष्णु-भक्ति” का उपदेश किया। आपके 120 शब्द प्रमाणिक रूप से उपलब्ध है, जिन्हें पांचवा वेद कहा जाता है।
वास्तव में गुरू जाम्भोजी महाराज द्वारा प्रवर्तित धर्म तथा उनके धर्मोपदेशों के प्रति असीम श्रद्धा ही, खेजड़ली सत्याग्रह में हुए आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा है। भगवान जाम्भोजी महाराज, एक बहुश्रुत शब्द में कहते है।
“जीव दया पालणी, रूंख लीलो न घावें”
अर्थात “जीव मात्र के लिए दया का भाव रखें, और हरा वृक्ष नहीं काटे”
एक और शब्द की बानगी देखिए, भगवान कहते है-
“बरजत मारे जीव, तहां मर जाइए।”
अर्थात “जीव हत्या रोकने के लिये अनुनय-विनय करने, समझाने-बुझाने के बाद भी, सफलता नहीं मिले, तो स्वयं आत्म बलिदान कर दें।”
“जीव हत्या रोकने के लिए आवश्यकता पड़े तो आत्म बलिदान कर दो।” ये महाशब्द, ये धर्म आदेश ही वीरांगना अमृतादेवी की अगुवाई में, “खेजड़ली सत्याग्रह” में हुए 363 आत्म बलिदानों की अमर प्रेरणा है।
भारतीय तिथि क्रम के अनुसार यह भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि थी। वीरांगना अमृतादेवी, अपनी तीनों बेटियों – आषु, रतनी, और भागू के साथ, प्रतिदिन के कार्यो में व्यस्त थी। अचानक, आस-पास से पेड़ों पर कुल्हाड़ियों के मारने की आवाज सुनाई दी। बिश्नोई गांवों के लिए यह आश्चर्य की बात थी। अमृतादेवी, अपना काम छोड़ कर, घर से बाहर आयी, देखा कि एक राजसी वेशभूषा में घुड़सवार है, जो 20-30 कुल्हाड़ी वाले युवकों को पेड़ काटने का आदेश दे रहा है, गांव के कुछ बड़े-बुजुर्ग, घुड़सवार को समझाने-मनाने का प्रयास कर रहे है।
अमृतादेवी, अचम्भितसी, माजरा समझने का प्रयास करती हुई, घटना स्थल के पास आ गई। घुड़सवार गिरधारीदास, कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। उल्टे “राजा” की आज्ञा है कह कर सब को बेबस कर दिया। अमृतादेवी के लिए यह स्थिति असहनीय थी, परिवार के सदस्यों की तरह पाल-पोस कर बड़े किये, खेजड़ी के हरे-भरे वृक्षों पर चल रही कुल्हाड़ी मानो, उसके शरीर पर घाव कर रही थी।
अपनी आत्मा पर चल रही कुल्हाड़ी से घायल अमृतादेवी अब वीरांगना बन चुकी थी। हाकिम गिरधारीदास को ललकारती हुई बोली- “मेरे जीवित रहते, एक भी खेजड़ी नहीं कटेगी” और आगे बढ़ कर सामने कट रहे खेजड़ी के पेड़ के तने से लिपट गई और कहा- “सिर साटे रूंख रहे तो भी सस्तो जांण” पेड़ काटने वाले अलग हट गये। हाकिम गिरधारीदास ने चिल्ला कर आदेश दिया कि “राजा की आज्ञा का उल्लंघन स्वीकार नहीं है।” अगली कुल्हाड़ी के वार ने अमृतादेवी की बलि ले ली।
अमृतादेवी के आत्म बलिदान ने, बेबस और लाचार समाज में बलिदानी साहस पैदा कर दिया। आस-पास के गांवों में, आमृतादेवी के आत्म बलिदान के समाचार जंगल में आग की तरह फैल गये। सैंकड़ों लोग, घटना स्थल पर एकत्र हो गये। बिश्नोईयों के 84 गांवों को, हलकारा भेजा गया। पेड़ काटने का विरोध अब जन-आंदोलन बनता जा रहा था और आत्म बलिदान करने वालों का तांता लग गया था।
अपनी माँ, वीरांगना अमृतादेवी का अनुसरण करते हुए तीनों पुत्रियां आषु, रतनी, और भागू उसी खेजड़ी वृक्ष के लिपट गई और आत्म बलिदान दे दिया।
समाज के बुजुर्गों ने, तय किया कि प्रत्येक पेड़ के काटने से पहले एक बलिदान दे कर विरोध जारी रखेंगे। दूसरी बात तय की कि परिवार में, बड़ों की बारी पहले आयेगी। आखिरकार गिरधारीदास हार गया। 363 लोगों के बलिदान से हाकिम के होश फाख्ता हो गये। पेड़ काटने का काम रोककर, अपने दल सहित रात्रि में जोधपुर के लिए प्रस्थान कर गया। सवेरे महाराजा को सारी घटना बता कर अपनी गलती स्वीकार की।
महाराजा अभयसिंह, स्वयं खेजड़जी आये। बिश्नोई समाज ने सामूहिक रूप से राज्य त्यागने की अनुमति मांगी। महाराजा ने अधिकारी को दण्डित करने तथा नरसंहार के लिए संवेदना प्रकट की और बिश्नोई समाज की धर्म श्रद्धा के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए ताम्र-पत्र प्रदान किया। ताम्र-पत्र में आदेश दिया गया है कि –
- बिश्नोई समाज के गांवों में, कोई भी हरा वृ़क्ष नहीं काटेगा तथा शिकार नहीं करेगा।
- राजाज्ञा का उल्लघंन करने वालों को राज दण्ड दिया जाएगा ।
- बिश्नोई समाज के गांवों में राजपरिवार का सदस्य भी शिकार नहीं करेगा।
इस खेजड़ली सत्याग्रह के तत्व ज्ञान स्वरूप वीरांगना अमृतादेवी के यह शब्द लोकोक्ति के रूप में प्रसिद्ध हो गये –
“सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण।”
– पर्यावरण मंच, जोधपुर
2 Comments
ये सत्याग्रह धरती माॅ के लिए समर्पण और त्याग की एक मिसाल है…🙏
पर्यावरण की रक्षा हमारा कर्तव्य है
आपने सही कहा, धन्यवाद।