आपातकालीन संघर्ष के विषय में काफी साहित्य प्रकाशित हो चुका है; किंतु इस संघर्ष का समग्र, प्रमाणबद्ध तथा अधिकृत इतिहास अब तक जनता के सामने नहीं आ सका । इसके कुछ कारण भी हैं ।
अब तक प्रकाशित साहित्य का दो श्रेणियों में वर्गीकरण किया जा सकता है । एक आत्मनिवेदनपरक और दूसरा वस्तुनिष्ठ । आत्मनिवेदनपरक साहित्य की मर्यादाएँ समझ में आ सकती हैं । आत्मनिवेदन के द्वारा समग्र इतिहास संकलित होने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि इस अभियान में सिपाही या संचालक के नाते काम किए हुए सभी व्यक्तियों का आत्मनिवेदन प्रकाशित हो । यह अब तक हुआ नहीं और आगे भी होने की संभावना नहीं ।
आपातस्थिति हटने के पश्चात् संघर्ष के विषय में वस्तुनिष्ठ साहित्य भी प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हुआ है, किंतु इसके लेखकों के सम्मुख एक दुविधा थी । इस कालखंड में क्या-क्या हुआ, इसकी तीव्र जिज्ञासा जनमानस में थी और इस जिज्ञासा की पूर्ति करनेवाले लेख या पुस्तकें शीघ्रातिशीघ्र मार्केट में आना वाणिज्यीय दृष्टि से आवश्यक था; किंतु इतनी शीघ्रता से प्रस्तुत विषय से संबंधित सभी तथ्य, आंकड़े तथा जानकारी प्राप्त करना किसी के भी लिए संभव नहीं था; क्योंकि इस कालखंड की महत्वपूर्ण कार्यवाहियों की तैयारी भूमिगत लोगों ने ही की थी । संपूर्ण जानकारी प्राप्त करके लेखन किया गया होता तो जन-जिज्ञासा तथा वाणिज्यीय दृष्टि से प्रकाशन-कार्य में अक्षम्य विलंब हो जाता, अत: जिस लेखक के पास लेखनकाल में जितनी जानकारी उपलब्ध थी, उसी का उपयोग उसमें किया.. .यह उचित ही रहा, किंतु इस प्रक्रिया के कारण वस्तुनिष्ठ साहित्य के माध्यम से भी अब तक संघर्ष का समग्र इतिहास संकलित नहीं हो सका ।
इस तरह के विषय का इतिहास कैसे लिखा जाए यह भी एक समस्या है । भूमिगत जीवन तथा कार्य का कितना हिस्सा प्रकाशित किया जाय और कितना अप्रकाशित ही रखा जाय, यह तारतम्य का विषय है । एक बार स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी से पूछा गया कि ‘ फ्रांस के किनारे समुद्र में कूदने का पराक्रम करते समय उन्होंने किस तरकीब का सहारा लिया था?’ सावरकरजी ने कहा, ‘ इस प्रश्न का उत्तर देने से लाभ क्या होगा? क्या आप में से कोई इस जानकारी से प्रेरणा लेकर कुछ प्रत्यक्ष कार्य करने वाला है? और दूसरी बात, इसका क्या भरोसा है कि दूसरे किसी क्रांतिकारी को उसी तरकीब का उपयोग करने की ही आवश्यकता पड़ेगी?’ यह भी सोचने का एक पहलू हो सकता है । यद्यपि यह सही है कि परिस्थितियों में अंतर है और निकट भविष्य में आपातस्थिति की पुनरावृति नहीं होगी, ऐसा प्रतीत होता है ।
इस तरह इतिहास कैसे लिखा जाय, इसका प्रमाणित नमूना (model) भी उपलब्ध नहीं है । भारत के क्रांतिकारियों की पहली पीढ़ी को प्रेरणा प्राप्त हुई थी अपने ऐतिहासिक महापुरुषों से तथा विदेशियों में से प्रमुख रूप से जोसेफ मैजिनी का जीवन-वृत्त उपलब्ध है । लेनिन, स्टालिन आदि भूमिगत कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं का भी जीवन-वृत्त प्रकाशित हुआ है । भारतीय क्रांतिकारियों के जीवन पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । इस तरह के साहित्य से यह स्पष्ट होता है कि भूमिगत कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए कार्य तथा उनकी उपलब्धियों को प्रसिद्ध करना तो सरल है, किंतु स्वदेश में भूमिगत जीवन कैसे बिताया गया, उसमें किस- किस की सहायता किस तरह हुई, भूमिगत अवस्था में पारस्परिक line of communication किस तरह रखी गई आदि बातों का अधिकृत विवरण देना प्राय: खतरे से खाली नहीं माना जाता । यह संतुलन कायम रखते हुए इतिहास लिखना बड़ा कठिन कार्य है । हमारे लिए यह हर्ष का विषय है कि प्रस्तुत कृति में इस तरह का संतुलन भी रखा गया है और देने योग्य अधिकतम जानकारी देने का प्रयास भी किया गया है । अब तक प्रकाशित साहित्य में समयाभाव के कारण कितनी अपूर्णताएँ आ गईं, यह समझना कठिन नहीं है । उदाहरण के लिए- भारतीय लोकदल के सैकड़ों लोगों द्वारा उत्तर प्रदेश में श्रीमती गायत्री देवी के नेतृत्व में किया गया सत्याग्रह, पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘ जय गुरुदेव ‘ संप्रदाय के लोगों द्वारा किया गया सत्याग्रह, सर्वोदयवादी कार्यकर्ताओं द्वारा प्रारंभिक स्थिति की द्विधा-मनःस्थिति का मुकाबला करते हुए निश्चय के साथ किया हुआ कार्य, विरोधी दलों के सदस्यों द्वारा संसद् का उपयोग करते हुए किया हुआ जन-जागरण, महाराष्ट्र के कंधार क्षेत्र के ‘ शेतकरी कामगरी ‘ पक्ष द्वारा किया हुआ अभियान, श्रमिक क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ तथा सी.पी.एम. की CITU द्वारा संघर्ष को दिया हुआ योगदान, श्री तारकुंडे के नेतृत्व में मानवीय अधिकार तथा नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए निर्मित संस्था द्वारा हुआ कार्य, महिलाओं के क्षेत्र में ‘ राष्ट्र सेविका समिति ‘ द्वारा प्रदत्त सहयोग, विद्यार्थी क्षेत्र में विद्यार्थी परिषद् द्वारा दिया गया नेतृत्व तथा दिशा-निर्देशन, ‘ आचार्य सम्मेलन ‘ का विवरण तथा उस उपक्रम का तात्कालिक परिस्थितियों पर हुआ परिणाम, वकीलों, शिक्षा-शास्त्रियों, भूतपूर्व न्यायाधीशों तथा ,साहित्य-सेवियों आदि के प्रयत्न, कॉमनवेल्थ कॉन्फरेंस के समय प्रतिनिधियों को ‘भारत की परिस्थितियों से अवगत कराने हेतु किए गए प्रयास, डी.एम.के. सरकार का अप्रत्यक्ष सहयोग, संघर्षकाल में जम्मू-कश्मीर की मनोवृत्ति, जेलों में बंदियों का हौसला बढ़ाने की दृष्टि से किए गए उपक्रम, पीड़ित परिवारों की सहायता करने की पद्धतियाँ, निर्वाचन की घोषणा से पूर्व जनता पार्टी की स्थापना के लिए किए गए प्रयास आदि कितने ही पहलू महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अब तक अस्पष्ट हैं -यहाँ तक कि ‘ लोक संघर्ष समिति ‘ के कार्य का सुसूत्र इतिहास भी अब तक प्रकाशित नहीं हुआ । संघर्षपर्व में किसी भी अखिल भारतीय राजनीतिक दल की तुलना में जिस प्रादेशिक दल का योगदान अधिक शानदार रहा, उस अकाली दल को भी नव साहित्य में उचित स्थान प्राप्त नहीं हो सका । यह संपूर्ण संघर्ष जिस संगठन के आधार पर हो सका, उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के योगदान का विवरण भी उपलब्ध नहीं है । संघ की प्रसिद्धिपराड्गमुखता तथा लेखकों के पास उसके कार्य की जानकारी का अभाव-ये दोनों कारण इस अपूर्णता के हो सकते हैं। इन सभी बातों का विचार किया जाय तो यह कहना पड़ेगा कि संघर्ष का समग्र, प्रमाणबद्ध तथा अधिकृत इतिहास अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है ।
इस’ संघर्ष में गुजरात का स्थान वैशिष्ट्यपूर्ण है । एक तो यह बात पर्याप्त मात्रा में प्रस्तुत नहीं हुई कि गुजरात की ‘ नवनिर्माण समिति ‘ ने आपातस्थिति के पुर्व ही इस संघर्ष का वास्तविक सूत्रपात कर दिया था । जब आपातस्थिति घोषित हुई उस समय तीन राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें थीं, किंतु इनमें से गुजरात राज्य सरकार ने ही तानाशाही का खुलकर विरोध किया और संघर्षकारियों का साथ दिया। इस प्रदेश में उस समय साहित्य-निर्मिति आदि ऐसे कार्य हुए जो अन्य प्रदेशों में करना संभव नहीं था । ‘ साधना ‘ तथा ‘ भूमिपुत्र ‘ ने देश के वृत्तपत्रीय इतिहास में एक नए गौरवशाली अध्याय का निर्माण किया । इस संघर्ष के अहिंसात्मक तंत्र में गुजरात प्रारंभ से ही प्रशिक्षित था, क्योंकि महात्माजी व सरदार पटेल की
यह भूमि रही है । अखिल भारतीय स्तर पर लोक संघर्ष समिति द्वारा जितने भी उपक्रम आयोजित किए गए उन सबका कार्यान्वयन गुजरात ने ठीक ढंग से किया । इस दृष्टि से संघर्ष की अखिल भारतीय पृष्ठभूमि पर इस प्रदेश के संघर्षकारियों की समग्र कार्यवाहियों का इतिहास सुसूत्र तथा प्रसंगबद्ध ढंग से लिखना एक कठिन कार्य था, किंतु यह कार्य इस कृति के लेखक ने संतोषजनक ढंग से किया है । इस तरह का लेखन किस ढंग से किया जाय, इसका नमूना ही लेखक ने प्रस्तुत किया है । इस दृष्टि से संघर्ष के इतिहास-लेखकों के लिए यह पुस्तक मार्गदर्शक सिद्ध होगी ।
यह सत्य है कि केवल वाणिज्यीय दृष्टि से इसका मूल्य उतना नहीं हो सकता जितना प्रारंभिक काल में प्रकाशित हुई पुस्तकों का है, किंतु यह उद्देश्य भी इस प्रकाशन के पीछे नहीं है.. .उद्देश्य है, केवल ‘ समग्र सत्य ‘ का दर्शन । उसकी पूर्ति इस पुस्तक द्वारा ठीक ढंग से हो रही है ।
भारतवासियों का यह द्वितीय स्वातंत्र्य युद्ध कई दृष्टियों से अभूतपूर्व रहा है । उसका इतिहास भावी पीढ़ियों के लिए उपयुक्त एवं अनुकरणीय है । इस तरह के देशव्यापी संघर्ष का इतिहास यथाशीघ्र प्रकाशित हो, यह देश की आवश्यकता है ।
– दत्तोपंत ठेंगड़ी
साभार संदर्भ |
१४ जनवरी १९७८ को प्रकाशित श्री नरेन्द्र मोदी जी (वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री) की विख्यात पुस्तक “आपातकाल में गुजरात” की भूमिका श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने लिखी है। श्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में कहे तो- यह मेरी प्रथम पुस्तक है। और देशव्यापी भूमिगत संघर्ष के सफल संगठक, मार्गदर्शक नेता एवं चिंतक श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने अपनी व्यक्तिगत अस्वस्थता एवं व्यस्तता के बावजूद पूरी पुस्तक मुझसे शब्दशः सुनने के लिए अपना पूरा समय दिया तथा प्रस्तावना लिखकर इस पुस्तक को गौरवान्वित किया। मैं उनका निजी तौर पर ऋणी हूँ। साभार – प्रभात प्रकाशन, दिल्ली। |