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प्रातः स्मरणीय महात्मा गांधी – परम पूज्य श्री गुरुजी

आज एक महत्त्वपूर्ण व पवित्र अवसर पर हम एकत्र हुए हैं । सौ वर्ष पूर्व इसी दिन सौराष्ट्र में एक बालक का जन्म हुआ था । उस दिन अनेक बालकों का जन्म हुआ होगा, पर हम उनकी जन्म-शताब्दी नहीं मनाते । महात्मा गाँधी जी का जन्म सामान्य व्यक्ति के समान हुआ, पर वे अपने कर्तव्य और अंतःकरण के प्रेम से परमश्रेष्ठ पुरुष की कोटि तक पहुँचे । उनका जीवन अपने सम्मुख रखकर, अपने जीवन को हम उसी प्रकार ढालें । उनके जीवन का जितना अधिकाधिक अनुकरण हम कर सकते हैं, उतना करें ।
अपने यहाँ ‘प्रातःस्मरण’ कहने की प्रथा पुरानी है । अपनी पवित्र बातों व राष्ट्र के महान व्यक्तियों का स्मरण ‘प्रातःस्मरण’ में हम करते हैं । ‘प्रातःस्मरण’ में नए व्यक्तियों का समावेश करने का कार्य कई शताब्दियों से बंद पड़ गया था । संघ ने इसे पुन: प्रारंभ किया है और आज तक के महान व्यक्तियों का समावेश कर ‘भारत भक्ति स्तोत्र’ तैयार किया है । हमारे इस ‘प्रातःस्मरण’ में वंदनीय पुरुष के नाते महात्मा गाँधी का उल्लेख स्पष्ट रूप में है ।


पारतंत्र्य-काल में अंग्रेजों के विरुद्ध अपना संघर्ष चल रहा था । क्रांतिकारियों ने सशस्त्र प्रयत्न किया । नरम दल वाले भी यह सोचते हुए कि अंग्रेज न्यायी हैं, अत: हम जो माँगेंगे वह देंगे ही, प्रयास करते रहे । कांग्रेस भी अपने ढंग से प्रयत्न करती रही । पर मुट्‌ठी भर लोगों के प्रयासों से अंग्रेजी राज हटना संभव नहीं था । उसके लिए यह आवश्यक था कि गाँव-गाँव में जनजागृति कर, ‘अंग्रेजों का राज अब सहन नहीं करेंगे’- इस विचार से प्रभावित, एकसूत्र में बँधा, संगठित समाज निर्माण करना आवश्यक था । लोकमान्य तिलक ने यह कार्य किया । नरमदल वालों ने उन्हें ‘तेली-तमोलियों के नेता’ की उपाधि देकर उपहास करने का प्रयास किया । वास्तव में देखा जाए तो इसमें लोकमान्य तिलक का गौरव ही था ।
लोकमान्य तिलक के पश्चात् महात्मा गाँधी ने अपने हाथों में स्वतंत्रता आदोलन के सूत्र संभाले और इस दिशा में बहुत प्रयास किए । शिक्षित-अशिक्षित स्त्री-पुरुषों में यह प्रेरणा निर्माण की कि अंग्रेजों का राज्य हटाना चाहिए, देश को स्वतंत्र करना चाहिए और स्व के तंत्र से चलने के लिए जो कुछ मूल्य देना होगा, वह हम देंगे । ‘बाबू गेनू’ पढ़ा-लिखा नहीं था, परंतु उसका बलिदान महात्मा गाँधी जी की इस प्रेरणा का ज्वलंत उदाहरण है । महात्मा गाँधी ने मिट्‌टी से सोना बनाया । साधारण लोगों में असाधारणत्व निर्माण किया । इस सारे वातावरण से ही अंग्रेजों को हटना पड़ा ।

सत्याग्रह का प्रथम प्रयोग

भारत में रहकर स्वतंत्रता-आंदोलन का सूत्र अपने हाथ में लेने के पूर्व वे दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते थे । उन दिनों वहाँ भी अंग्रेजों का साम्राज्य था । वहाँ के नीग्रो अंग्रेजों के दमन के शिकार थे । अंग्रेज तो नीग्रो को मानव मानने तक के लिए राजी नहीं था । यूरोपीय लोगों की बस्तियों में नीग्रो को मकान बनाने की अनुमति नहीं दी जाती थी । अपने पर काले आदमी की छाया का स्पर्श तक न हो, ऐसा उनका व्यवहार था । महात्मा जी ने इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का संकल्प किया और सत्याग्रह-तंत्र का प्रथम प्रयोग अफ्रीका में किया । महात्मा जी के इन प्रयासों से नीग्रो लोगों में स्वतंत्रता की लालसा जाग उठी ।
विशेष बात यह कि अफ्रीका में निवास कर रहे भारतीयों ने ही प्रारंभ में महात्मा गाँधी के इस कार्य का विरोध किया, परंतु बाद में उन्होंने सहयोग दिया । लेकिन जब गाँधी जी भारत लौट आए तब पुन: भारतीयों ने नीग्रो को सहयोग देना बंद कर दिया ।
अफ्रीका के कुछ भारतीय मुझसे मिले थे । मैंने उन लोगों से कहा- ‘आप लोग वहीं व्यापार करते हो, नीग्रो के धन पर धनी होते हो । इसलिए नीग्रो की सहायता करना क्या आपका कर्तव्य नहीं है? देश को स्वतंत्र और समृद्ध करने के उनके प्रयत्नों में सहायता करना क्या आप लोगों का काम नहीं है? भारत में अंग्रेज न रहें इसलिए अंग्रेजों के विरुद्ध हम लोग लड़ रहे हैं और आप लोग हैं कि अफ्रीका में अंग्रेजों की ज्यादतियों के विरुद्ध आवाज तक नहीं उठाते? यह बड़ी विचित्र बात है । मेरा कहना उन्हें मान्य नहीं हुआ ।
उन लोगों ने नीग्रो से सहयोग न कर अंग्रेजों के साथ अधिक संपर्क बढ़ाया । अब हालत यह है कि अफ्रीका से भारतीयों को बाहर निकाला जा रहा है । महात्मा गाँधी जी की सीख हम लोग भूल गए, इसलिए यह हो रहा है । मुझे लगता है कि अब भी देर नहीं हुई है । वहाँ रहने वाले अपने भारतीय नीग्रो के कंधे से कंधा लगाकर खड़े रहते हैं तो वे लोग अफ्रीका में सुख से रह सकेंगे ।

मैं कट्टर हिंदू हूँ

महात्मा गाँधी द्वारा अफ्रीका में जो सीख दी गई उसे जैसे हम लोग भूले, वैसे ही अपने देश में दी गई उनकी सीख को भी हम लोग भूल गए हैं । उन्होंने कहा था- ‘देश की यच्चयावत् जनता भारत माता की संतान है और उसकी स्वतंत्रता के लिए हमें लड़ना चाहिए । उनके मन में यह भावना हिंदू-धर्म से निर्माण हुई । अपने समाज में अनेक भेद होने पर भी यह हमारी सीख है ‘एक सद्‌विप्रा: बहुधा वदन्ति’ । गाँधी जी के जीवन में यह पूर्णत: घुल चुकी थी । वे कहा करते थे- ‘मैं कट्टर हिंदू हूँ इसलिए केवल मानवों पर ही नहीं, संपूर्ण जीवमात्र पर प्रेम करता हूँ ।’ उनके जीवन व राजनीति में ‘न हिंस्यात् सर्वभूतानि’ इस तत्त्व के अनुसार सत्य व अहिंसा को जो प्रधानता मिली वह कट्टर हिंदुत्व के कारण ही मिली ।
गाँधी जी को श्रीरामकृष्ण परमहंस के बारे में अत्यधिक आदर था । उनके जीवन-चरित्र की प्रस्तावना लिखते हुए उन्होंने लिखा है- ‘यह चरित्र सत्य का साकार प्रतीक है ।’ श्रीरामकृष्ण परमहंस जी ने कट्टर हिंदू रहकर सारी जीव-सृष्टि पर प्रेम किया था । मुझे लगता है कि जिस व्यक्ति में हिंदुत्व के बारे में शुद्ध भाव है, जिसे उसमें जरा भी अशुद्धता नहीं चल सकती, वही इस प्रकार का प्रेम कर सकता है, अन्य किसी के लिए यह संभव नहीं ।

मुसलमानों का सुझाव

मुझे एक सूफी-पंथी मुसलमान का पत्र प्राप्त हुआ । उसने लिखा था कि दुनिया में इस समय ईश्वर को न मानने वालों का प्रभाव बढ़ रहा है, इसलिए हम ईश्वर मानने वालों को संगठित होना चाहिए । इस सूफी व्यक्ति ने जैसा सुझाया, वैसा दुनिया के सब धर्मवादियों का संगठन कैसे किया जाए? अपने हिंदू धर्म का ही उदाहरण लें- उसमें कोई राम कहता है, तो कोई कृष्ण । उसमें अनेक पंथ-भेद हैं । भारत का जैन धर्म ही ले । उसे ईश्वर की कल्पना ही मान्य नहीं है । बौद्ध केवल बुद्ध को ही मानते हैं । इसके अलावा ईसाई, मुसलमान, बहाई आदि जैसे अनेक पंथ हैं । ऐसी स्थिति में ईश्वरवादियों को एकत्र कैसे किया जाए?
मैंने उस सूफी व्यक्ति से भेंट की और उससे पूछा- ‘यह कैसे संभव हो? ‘
उसने कहा- ‘उसके पास इसका उपाय है । वह यह कि सभी को मुसलमान बन जाना चाहिए । फिर सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा ।’ प्रश्न यह है कि इसे अन्य पंथ के लोग कैसे मानेंगे? ऐसा ही आग्रह वह अपने पंथ के लिए क्यों नहीं रखेंगे?

मानवता का जागतिक तत्वज्ञान

इस सूफी व्यक्ति को यह पता नहीं है कि इस दुनिया में एक सर्वसमावेशक तत्त्वज्ञान है, उसे हिंदू कहो या न कहो- वह जागतिक तत्त्वज्ञान है, मानवतावाद का तत्त्वज्ञान है । कोई राम कहेगा, कोई कृष्ण, कोई अल्लाह । भगवान अंतत: एक ही है, यह कहने वाला केवल हिंदू-धर्म ही है । अनेक पंथ-भेद के लोग होने पर भी या भविष्य में और पंथ निर्माण होने पर भी, ये सभी मार्ग एक ही परमेश्वर की ओर ले जानेवाले हैं, यह उदारता की भावना हिंदुत्व के बिना संभव नहीं । महात्मा जी ने अपने समाज में दिखाई देने वाले दोषों को दूर करने के लिए भरसक प्रयास किया । उसके लिए उन्होंने लोगों का विरोध भी सहन किया । वे दोष दूर हों, समाज एकरस हो, इसके लिए हमें प्रयत्न करना चाहिए । श्रीरामकृष्ण परमहंस के विषय में एक शिष्य ने कहा है- ‘आचांडालात् अप्रतिहत: यस्य प्रेमप्रवाह: ।’
वे एक बार किसी कुएँ पर पानी पीने के लिए गए । वहाँ जो आदमी पानी निकाल रहा था, उसने कहा- ‘महाराज, आप ब्राह्मण दिखाई दे रहे हैं । मैं हरिजन हूँ आपको पानी कैसे पिलाऊँ?’
श्रीरामकृष्ण देव ने कहा- ‘इससे क्या हुआ? राम-नाम से तो पत्थर भी तर गए । तू तो मनुष्य है । राम का नाम ले और पानी पिला ।’
उसने राम का नाम लिया और परमहंस जी को पानी पिलाया ।
श्रीरामकृष्ण के ये जो विचार हैं, उनका प्रत्यक्ष आचरण ही गांधी जी का जीवन था । पर गाँधी जी के जीवन से क्या हमने कुछ ग्रहण किया है? दुर्भाग्य से आज ऐसा दिखाई देता है कि आपसी लड़ाई-झगड़े रोज की बात हो गई है । इसका देश पर क्या परिणाम होगा, इसका विचार न करते हुए स्वार्थवश ये झगड़े चलते हैं । उन्हें बंद करने के लिए, उनकी जड़ तक, पहुँचने का प्रयास होता हुआ दिखाई भी नहीं देता । यदि हम चाहते हैं कि, झगड़े वास्तव में बंद हों, तो उनकी जड़ तक पहुँचना होगा । उसके लिए सभी के अंतःकरण में एकात्मता की अनुभूति जागृत करनी होगी । अखिल जीव-सृष्टि पर प्रेम करने वाले हिंदू-धर्म की प्रेरणा से ही यह अनुभूति निर्माण होगी ।

गांधी जी की भविष्यवाणी

जिस हिंदू-धर्म के बारे में हम इतना बोलते हैं, उस धर्म के भवितव्य पर उन्होंने ‘फ्यूचर ऑफ हिंदुइज्म’ शीर्षक के अंतर्गत अपने विचार व्यक्त किए हैं । उन्होंने लिखा है- ‘हिंदू-धर्म याने न रुकने वाला, आग्रह के साथ बढ़ने वाला, सत्य की खोज का मार्ग है । आज यह धर्म थका हुआ-सा, आगे जाने की प्रेरणा देने में सहायक प्रतीत होता अनुभव में नहीं आता । इसका कारण है कि हम थक गए हैं, पर धर्म नहीं थका । जिस क्षण हमारी यह थकावट दूर होगी, उस क्षण हिंदू-धर्म का भारी विस्फोट होगा । जो भूतकाल में कभी नहीं हुआ, इतने बड़े परिमाण में हिंदू-धर्म अपने प्रभाव और प्रकाश से दुनिया में चमक उठेगा ।’ महात्मा जी की यह भविष्यवाणी पूरी करने की जिम्मेदारी हमारी है ।

गांधी जी से सीखें

महात्मा जी का स्मरण करते समय उनकी सीख के अनुसार शील व चारित्र्य तथा स्वत्व का पोषण करना चाहिए । आज हम उनकी ओर दुर्लक्ष कर रहे हैं । महात्मा जी के जीवन से सीखने योग्य अनेक बातें हैं, वे हम सीखे ही नहीं । उनके जीवन से सत्य का आग्रह लेना चाहिए । गलत मार्ग से धन कमाने की वृत्ति छोड़नी चाहिए । गलत मार्ग से धन प्राप्त करते समय समाज के अपने ही लोगों का शोषण कर रहे हैं, इसका विचार तक हमें नहीं छूता । उनके जीवन से सभी के बारे में आत्मीयता का गुण ग्रहण करना चाहिए । सिद्धांत की अनेक बातें हम बोलते हैं, परंतु सड़क के किनारे कोई भूखा व्यक्ति दिखाई देने पर उसे रोटी खिलाने की भावना मन में क्यों नहीं आती? हमें प्रत्येक व्यक्ति को दुःख मुक्त करने का प्रयास चाहिए । स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है- ‘जिस प्रकार मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, अतिथिदेवो भव, कहा जाता है, उसी भाँति दरिद्र लोगों का दारिद्रय हटाने के लिए ‘दरिद्रदेवो भव’ और अज्ञानी लोगों का अज्ञान दूर करने के लिए ‘अज्ञानीदेवो भव’ कहना चाहिए । ज्ञान के भंडार सब के लिए खुले किए जाएँ । स्वामी जी का यह आदेश और महात्मा जी का प्रत्यक्ष आचरण- दोनों एक ही है ।
देश में असंख्य लोग भूखे रहते हैं । अपने बारे में विचार कम कर, समाज की भावना से एकरूप होकर उनके लिए हमें आगे आना होगा । यह भावना यदि हममें न रही, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि गाँधी जी को हम आदर्श मानते हैं? गाँधी जी की प्रतिमा को हार पहनाने मात्र से यह हो सकेगा क्या? क्या उनके समान हमारा व्यवहार नहीं रहना चाहिए? यदि हम उनके जैसा आचरण करेंगे, तभी यह कहा जा सकेगा कि हमने उनके प्रति वास्तव में आदर व्यक्त किया है ।
महात्मा गाँधी ने अपने देश के स्वातंत्र्य के लिए प्रयत्न करते हुए भी दुनिया पर प्रेम किया । वे कहा करते थे- ‘दूसरों के देश पर राज्य करना अन्याय है, पाप है ।’ अंग्रेजों का राज गया, परंतु हम आज भी अपने देश की प्रकृति के अनुसार, प्रेरणा के अनुसार, परंपरा के श्रेष्ठ गुणों के अनुसार राज्य-निर्माण करने का प्रयत्न नहीं कर रहे । अपने यहाँ कुछ रूस-भक्त तो कुछ चीनभक्त हैं । जो भारत-भक्त नहीं हैं, उनका प्रयास चलता है कि अपना देश दूसरों के अधीन चला जाए, विदेशी विचारों का दास बन जाए । उनके विचार क्यों फैलते हैं? इसका अर्थ यही है कि हमें स्वत: का विस्मरण हो चुका है । दूसरों के भरोसे रहना अत्यंत लज्जास्पद बात है । देश को राजकीय स्वातंत्र्य चाहिए, आर्थिक स्वातंत्र्य चाहिए । उसी भाँति इस तरह का धार्मिक स्वातंत्र्य चाहिए कि कोई किसी का अपमान न कर सके, भिन्न-भिन्न पंथ के, धर्म के लोग साथ-साथ रह सकें । विदेशी विचारों की दासता से अपनी मुक्ति होनी चाहिए । गाँधी जी की यही सीख थी । मैं गाँधी जी से अनेक बार मिल चुका हूँ । उनसे बहुत चर्चा भी की है । उन्होंने जो विचार व्यक्त किए, उन्ही के अध्ययन से मैं यह कह रहा हूँ । इसीलिए अंतःकरण की अनुभूति से मुझे महात्मा जी के प्रति नितांत आदर है ।

गांधी जी से अंतिम भेंट

महात्मा जी से मेरी अंतिम भेंट सन् १९४७ में हुई थी । उस समय देश को स्वाधीनता मिलने से शासन-सूत्र सँभालने के कारण नेतागण खुशी में थे । उसी समय दिल्ली में दंगा हो गया । यह सच है कि दंगा होने पर सारे समाज का माथा भड़कता है । परंपरा से जो अहिंसावादी रहे हैं, वे भी दंगे के समय क्रूर, दुष्ट, निर्दय हो गए थे ।
मैं उस समय उसी क्षेत्र में प्रवास पर था । दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के कारण अपने मुसलमान बंधु पाकिस्तान की ओर जा रहे थे । अन्न-पानी नहीं था, गटर का पानी पीना पड़ रहा था, लोग हैजे से मर रहे थे । मेरे सामने एक व्यक्ति अकस्मात मर गया । मेरे मुँह से स्वभावत: निकला- ‘अरेरे ।’ मेरा सहप्रवासी बोला- ‘अच्छा हुआ एक कम हो गया ।’
मैंने उससे कहा- ‘एक व्यक्ति मर गया और तू कहता है, अच्छा हुआ? अपने धर्म की सीख, सभ्यता, तत्त्वज्ञान और मानवता का कुछ ज्ञान है कि नहीं? ‘
मैं उस समय शांति प्रस्थापित करने का काम कर रहा था । गृहमंत्री सरदार पटेल भी प्रयत्न कर रहे थे और उस कार्य में उन्हें सफलता भी मिली । ऐसे वायुमंडल में मेरी महात्मा गाँधी जी से भेंट हुई थी ।
महात्मा जी ने मुझसे कहा- ‘देखो, यह क्या हो रहा है? ‘
मैंने कहा- ‘यह अपना दुर्भाग्य है । अंग्रेज कहा करते थे कि हमारे जाने पर तुम लोग एक दूसरे का गला काटोगे । आज प्रत्यक्ष में वही हो रहा है । दुनिया में हमारी अप्रतिष्ठा हो रही है । इसे रोकना चाहिए ।’
गाँधी जी ने उस दिन अपनी प्रार्थना सभा में मेरे नाम का उल्लेख गौरवपूर्ण शब्दों में कर, मेरे विचार लोगों को बताए और देश की हो रही अप्रतिष्ठा रोकने की प्रार्थना की । उस महात्मा के मुख से मेरा गौरवपूर्ण उल्लेख हुआ, यह मेरा महद्‌भाग्य था । इन सारे संबंधों से ही मैं कहता हूँ कि हमें उनका अनुकरण करना चाहिए ।

संयम का पालन

हम लोग धर्म के बड़े-बड़े सिद्धांत बोलते हैं, परंतु उन पर चलते हैं क्या? हिंदू-धर्म ने कहा है कि आत्मसंयम करो । स्त्री-पुरुष-संबंध के विषय में भी यही कहा गया है । श्रीरामकृष्ण कहा करते थे कि दो-तीन संतान होने के बाद पति-पत्नी को बहन-भाई का सा आचरण करना चाहिए । महात्मा जी ने भी संयम का उपदेश दिया था । वे कहा करते थे- ‘संयम का पालन करो, पौरुष को आत्मसात् करना सीखो । पौरुष का आविष्कार पराक्रम प्रकट करने में हो । आत्मा का पराक्रम दिखाओ ।’
महात्मा जी का संयम-पालन करने का उपदेश उचित था । यदि दायित्व टालकर उपभोग करने की विकृति बड़ी तो इस देश पर संकट आएँगे । उपभोग चाहिए तो संकट भोगने को तैयार रहना चाहिए । संभव है संकट भोगने की आपत्ति आने पर संयम की महत्ता विदित हो ।

हिंदू धर्म का जागरंण होगा

महात्मा जी द्वारा बताई गई सारी बातें आचरण में लानी हों तो उस प्रकार की शिक्षा देने वाले महान हिंदू-धर्म को पुन: जागृत करना होगा । धर्म के बगैर मानव-समाज याने परस्पर का विनाश करने वाला श्वापदों का समाज होगा । इससे बचने के लिए ही अपने स्वार्थ को नियंत्रित कर, समाज के साथ पूर्णत: एकरूप होकर, झूठा अभिमान त्यागकर, अखिल मानव-समाज पर प्रेम करने के लिए, हिंदू-धर्म के कट्टर अभिमान से इस भारतभूमि का पुन: निर्माण करना होगा । हिंदू-धर्म जागृत कर समाज के प्रत्येक व्यक्ति में उसका श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करना चाहिए । दुनिया पर प्रेम करने वाले सर्वसमन्वयवादी देश और एक आदर्श समाज के रूप में हम खड़े होंगे यह निश्चय हमें आज करना होगा, तभी महात्मा जी के समान प्रातःस्मरणीय व्यक्ति का पुण्यस्मरण अच्छे अर्थ में किया जा सकेगा । भारत-भक्ति स्तोत्र कहते समय प्रातःस्मरणीय, वंदनीय व्यक्ति के रूप में उनके प्रति मैं अपनी भावनाओं को व्यक्त किया करता हूँ । आज आप सबके सामने मैंने अपनी भावनाएं व्यक्त की हैं ।

3 Comments

  • देवी शर्मा

    जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। किसी भी बात को कोई भी व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार अलग-अलग तरह से परिभाषित कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति स्वयं आकर भी अपनी बात को प्रमाणित करना चाहे तो भी कुतर्क करने वाला उसके ऊपर भी प्रश्न खड़ा कर देगा। परन्तु एक बात पर तो सब को सहमत होना पड़ेगा कि उस समय आजादी के लिए जो जनजागरण गांधी जी ने किया उसका हमारी आजादी के संघर्ष में बहुत बड़ा योगदान है।

  • mukul ranjan

    आपका बहुत बहुत आभार, पूजनीय बापू के बारे मे समाज मे फैले भरम का निराकरन हो सकेगा खासकर हमारे राष,टवादि मित्ो का

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