गत पचास-पचहत्तर वर्षों में अपने देश में जो श्रेष्ठ विभूतियाँ हुई हैं, जिनका व्यावहारिक व राजनैतिक क्षेत्र में जनमानस पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है, उनमें महात्मा गाँधी अग्रणी थे, इस सत्य को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता । यह कहना वस्तुस्थिति-दर्शक ही होगा, इसमें कोई भी भिन्न मत नहीं होगा । उनका व्यक्तिमत्व बहुविध था । उनके जीवन के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक आदि विभिन्न पहलू उनके असाधारणत्या को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं । साधारण जनमानस पर उनके समान अन्य किसी की पकड़ नहीं थी ।
स्वभावत: उनके विविध विचारों से अनेक विचारवंत सहमत नहीं और आज भी नहीं हैं । जिन्होंने अपनी श्रेष्ठता अपनी बुद्धि और गुणों से प्रस्थापित की थी, ऐसे अनेक नेता उनके संबंध में अपने मन में उत्कट आदर रखते हुए, उनके विचारों से असहमत होकर भी असंदिग्ध भाव से अपने विचार प्रकट करते थे और करते हैं । महामना पं. मदनमोहन मालवीय व पंडित जवाहरलाल नेहरू के नाम इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं । इन दोनों श्रेष्ठ पुरुषों से मेरा संपर्क आया था । मुझे स्मरण है कि एक बार बातचीत में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि महात्मा जी के सब विचार उन्हें ग्राह्य नहीं हैं, किंतु साथ ही महात्मा जी के संबंध में अपना उत्कट प्रेम और भक्ति भी प्रकट की थी । इन श्रेष्ठ व्यक्तियों की भक्ति में दिखावट बिल्कुल नहीं थी । किंतु यह भक्ति अंधश्रद्धा के रूप में विकृत भी नहीं थी, इसकी भी मुझे अनुभूति हुई ।
सरदार पटेल की मनोव्यथा
महात्मा जी के संबंध में अपने मन में परम भक्ति रखने वाले और एक महापुरुष थे- सरदार वल्लभभाई पटेल । अपना कर्तृत्त्व, अपना जीवन उन्होंने महात्मा जी को समर्पित किया था । उनसे हुई भेंट में यह समर्पण भाव प्रकर्ष रूप में दिखाई दिया । सरदार का अपना स्वतंत्र व्यक्तिमत्व था । कांग्रेस को महात्मा जी से प्रेरणा और मार्गदर्शन मिल रहा था, फिर भी एक अनुशासनबद्ध, संगठित तथा कार्यक्षम संस्था के नाते कांग्रेस का गठन और उस प्रेरणा को प्रत्यक्ष रूप में लाने वाली यंत्रणा निर्माण करना उनका प्रमुख कार्य था । उनके संगठन-कौशल के बिना महात्मा जी क्या और कितना कर सकते थे । एक तरह कांग्रेस संस्था को मजबूत नींव पर खड़ी करने के सरदार पटेल के कर्तृत्व का आधार ही, महात्मा जी के अनन्यसाधारण महत्त्व का कारण था, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी । फिर भी उन्होंने दूरदृष्टि रखकर अपना अलग व्यक्तित्त्व नहीं रखा । इस पर भी महात्मा जी के सभी विचारों से वे एकमत हों, ऐसा नहीं था । अंग्रेजों का राज जाने और कांग्रेस के हाथों राजसत्ता आने पर ऐसे मतभेद के प्रश्न उत्पन्न हुए थे ।
शासन चलाते समय व्यावहारिक दृष्टि रखकर काम करना पड़ता है । परिस्थिति से मेल न खाने वाले तात्त्विक विचार हस्तक्षेप करने लगें तो सर्वनाश होने की संभावना रहती है । उस समय महात्मा जी अपनी प्रार्थना सभाओं में जो विचार व्यक्त करते और जिन पर चलने के लिए शासन से आग्रह करते थे, वे अव्यावहारिक लगने के कारण नापसंद होते हुए भी महात्मा जी विषयक श्रद्धा और भक्ति के कारण सरदार उन विचारों के सामने नत होते थे । पाकिस्तान को ५५ करोड़ रुपए देने का आग्रह और उसके लिए गांधी जी द्वारा शुरू किया हुआ अनशन उल्लेखनीय है । उस समय सरदार पटेल के साथ हुई भेंट में मैंने उनकी मनोव्यथा का अनुभव किया था ।
महात्मा जी पर असीम भक्ति करने वालों के मन में भी मतभेद थे । आखिर वे उनसे ऊबने लगे थे । इस बात को ध्यान में लें, तो कोई आश्चर्य नहीं कि अन्य पक्षों के विचारी पुरुषों और जिनका किसी भी पक्ष से संबंध नहीं था, ऐसे बुद्धिमान पुरुषों के मन के मतभेद तीव्रतापूर्वक प्रकट हुए हों । अपने देश की राजनीति में महात्मा जी का उदय होने के बाद से यह अनुभव होने लगा था ।
बिना शर्त अंग्रेजों को सहायता
यूरोप के प्रथम महायुद्ध (सन् १९१४ से १९१८) में अंग्रेजों को बिना किसी शर्त के सर्व प्रकार सहायता देने का उनका आग्रह और इस दृष्टि से उनके द्वारा सेना में भर्ती के लिए किया गया प्रचार किसी को भी पसंद नहीं था । लोकमान्य तिलक जी जैसे अतिश्रेष्ठ बुद्धिमान राष्ट्रभक्त चाहते थे कि युद्ध-समाप्ति के बाद तुरंत भारत को स्वतंत्र करने की असंदिग्ध घोषणा अंग्रेजों को करनी चाहिए । इसी शर्त पर हमें उनसे सहकार्य करना चाहिए, अन्यथा बिल्कुल नहीं । उन लोगों का यह विचार किसी भी कसौटी पर खरा उतरने वाला था ।
शत्रु की मुसीबत से लाभ उठाया जाए, यह राजनीति का दंडक है । किंतु महात्मा जी की भूमिका उदार और सर्वथा अव्यावहारिक थी । उनका विश्वास था कि अंग्रेजों की मुसीबत से लाभ न लेते हुए उन्हें सहकार्य देने पर वे उसके बदले में स्वेच्छा से स्वाधीनता दे देंगे । बाद की घटनाओं । यह सिद्ध कर दिया कि उनका विश्वास मिथ्या था । ‘पय: पानं भुजंगा । । केवलं विषवर्धनम्’ यही सत्य है । युद्ध के बाद की अपमानास्पद घटनाओं ।। से क्षुब्ध होकर, उनके द्वारा लिया हुआ अंग्रेजों से असहयोग का निर्णय ? वैसा ही विवादास्पद रहा । सुधार के नाम से जो अधिकार अंग्रेज दे रहे थे उन्हें लेकर बाकी के लिए संघर्ष करना, प्रतियोगी सहकारिता के तत्त्व से अंग्रेजों से ‘जैसे को तैसा’ नीति-व्यवहार का विचार उनको पसंद नहीं था । किंतु असहकार का आंदोलन बीच में रोककर, प्राप्त होने वाले अपयश से अपना बचाव करने की नीति उन्हें अपनानी पड़ी और चितरंजन दास आदि धुरीणों के नेतृत्व में वैधानिक कार्यक्रम अंगीकृत किया गया ।
बहिष्कार का भस्मासुर
असहकारिता का स्वरूप और जनसाधारण को आह्वान करने की पद्धति पर भी तीव्र मतभेद थे । ‘एक वर्ष में स्वराज्य’ की घोषणा आकषर्क थी, किंतु अनेकों का मत था कि वह वस्तुस्थिति से परे थी । आखिर कहीं सत्य निकला । विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय तथा महाविद्यालय के बहिष्कार की योजना पर बड़े-बडे व्यक्तियों ने यह कहकर प्रखर टीका की थी कि यह बहिष्कार आगे चलकर विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता, उद्दंडता, चारित्र्यहीनता आदि दोषों को जन्म देगा और सर्व नागरिक-जीवन नष्ट होगा । बहिष्कारादि कार्यक्रमों से यदि स्वातंत्र्य मिला भी, तो राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए आवश्यक्, ज्ञानोपासना, अनुशासन, चारित्र्यादि गुणों की यदि एक बार विस्मृति ही गई, तो फिर उनकी प्रस्थापना करना बहुत ही कठिन है । शिक्षक तथा अधिकारियों में अवहेलना करने की प्रवृत्ति निर्माण करना सरल है, किंतु बाद में उस अनिष्ट वृत्ति को सँभालना प्राय: अशक्य होगा, ऐसी चेतावनी अनेक विचारी पुरुषों ने दी थी ।
उस समय के आवेश में इस चेतावनी की ओर दुर्लक्ष किया गया । इतना ही नहीं, तो उन विचारकों की खिल्ली उड़ाई गई । आज चारित्र्य की समस्या, विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता आदि के संबंध में अपने नेतागण शाब्दिक चिंता अवश्य करते हैं, किंतु विद्यार्थियों को राजनीतिक आदोलन में उद्धत व्यवहार करने में प्रोत्साहन देनेवाले उस समय के कार्य तथा प्रत्येक छोटे-बड़े प्रसंग में अनुशासनहीनता का अभ्यास कराने वाले राजकीय आंदोलनों से यह भस्मासुर खड़ा हुआ है, इसे प्रांजलता से कोई मान्य नहीं करता । जिनकी खिल्ली उड़ाई गई, जिन्हें दुरुत्तर दिए गए, उनकी ही दूरदृष्टि वास्तविक थी, यह मान्य करने की सत्यप्रियता भी दुर्लभ है ।
अंग्रेजों का जाल
महात्मा जी का और एक आग्रह उल्लेखनीय है । उसके परिणाम बहुत दूरगामी हुए, जिन्हें आज भी भोगना पड़ रहा है । स्वाधीनता-आंदोलन का दमन करने के लिए अंग्रेजों ने मुसलमानों को वश में करके उन्हें अलग भूमि की माँग करने के लिए उकसाया । उस समय यह आभास उत्पन्न किया कि हिंदू और मुसलमान किसी स्वाधीनता-विषयक फार्मूले की माँग एक मत से करते हैं, तो उसे हम स्वीकार कर लेंगे । इस जाल में अपने बड़े-बडे नेता फँस गए और हिंदू-मुस्लिम एकता निर्माण करने का प्रयत्न करने लगे ।
कट्टर हिंदू होने के कारण, सर्वधर्म समान मानने की स्वाभाविक उदारता महात्मा जी में थी । इस उदारता में गत सहस्रों वर्षों का इतिहास दुर्लक्षित कर उन्होंने चाहे जो मूल्य देकर मुसलमान समाज को अपनी ओर खींचने की कोशिश की । उस समाज द्वारा किए गए दंगे, अत्याचार, मलबार में मचाए हुए उत्पात आदि भीषण कांडों की ओर दुर्लक्ष कर उनका महत्त्व बढ़ाने की नीति उन्होंने अपनाई थी । इसका इतिहास बताने की आवश्यकता नहीं है ।
इस नीति से महामना पंडित मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, भाई परमानंद, श्री विजयराघवाचार्य आदि बड़े देशभक्तों ने अपनी असहमति प्रकट की थी । महाराष्ट्र और अन्य प्रांतों में, लोकमान्य तिलक के निष्ठावान अनुयायियों ने कांग्रेस में रहते हुए हिंदू महासभा का संगठन बलवान बनाने की कोशिश की ।
अल्पसंख्यकों के विषय में अपनाई गई नीति के परिणाम सर्वविदित हैं । मातृभूमि के लांछनास्पद विभाजन होने तक के एक से बढ़कर एक राष्ट्र का अपमान तथा हानि करने वाले प्रसंगों की बाढ़ आई । फिर भी उस नीति का त्याग करने की उनकी प्रवृत्ति नहीं हुई । उलटे अधिक जिद से वही नीति सही और योग्य समझकर व्यवहार करने की प्रतियोगिता विभिन्न राजकीय नेताओं में शुरू हुई, जो आज भी चल रही है । हिंदू नाम से चिढ़ और अल्पसंख्यकों की उद्दंडता को न्यायोचित मानकर उनका अधिकाधिक तुष्टीकरण ही मानो लक्ष्य हो गया हो, ऐसा दिखता है । इससे राष्ट्र के सच्चे स्वरूप का विस्मरण हुआ और सब प्रकार की अलगाव की वृत्ति बढ़ी और विभिन्न शत्रु-देशों को चंचु-प्रवेश के बाद मूसल-प्रवेश का अवसर मिलता है, यह स्पष्ट रूप से देखने पर भी उस सर्वनाशी नीति से चिपके रहने का दुर्धर दुराग्रह वृद्धिंगत होता हुआ दिखाई देता है ।
महात्मा जी के उपर्युक्त विचारों से मतभिन्नता रहना, शुद्ध विचार करने वालों की दृष्टि से स्वाभाविक और योग्य मानना चाहिए ।
अगणित श्रेष्ठ गुण
महात्मा जी के व्यक्तित्त्व के अनेक पहलू थे । उनकी हिंदू धर्म पर श्रद्धा थी । हिंदू जीवन के मानबिंदु रूप गोवंश का संरक्षण तथा उसकी हत्या सर्वथा बंद हो, इसलिए अपना शासन प्रभावी कानून बनाए, इसके लिए उन्होंने प्रयास किया । अपने अस्पृश्य कहे गए उपेक्षित बांधवों को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक आदि सब दृष्टि से उन्नति करने का उन्होंने प्रयत्न किया । अशिक्षित, सरल और आर्थिक कठिनाइयों में जीवन बिताने वाले वनवासी-दलित बांधवों को परधर्मियों द्वारा धर्मभ्रष्ट किए जाने के कार्य का तीव्र निषेध किया । समाज को गुंडागर्दी, अत्याचार, बलप्रयोग आदि अवलंबन सिखाने वाले, असंस्कृतता बढ़ानेवाले समाजवाद, साम्यवाद आदि नामों से केवल भौतिकता का प्रचार करनेवाले, कार्यकलापों के संबंध में स्पष्ट विरोध प्रकट किया ।
उनके इन गुणों के कारण जनमानस में उनके संबंध में अपार प्रीति व श्रद्धा बनी रहेगी व रहनी चाहिए ।
मन दु:खी होता है
अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उनके नाम की घोषणा करने वाले, उनके भक्त कहे जाने वालों द्वारा उनके विचारों व अगणित श्रेष्ठ गुणों की उपेक्षा, इतना ही नहीं तो उनकी खिल्ली उड़ाई जाते देखकर मन दुःखी होता है ।
अनेक विवादास्पद अव्यवहार्य सिद्ध हुए विचारों का उनके द्वारा आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करने के बाद भी उनकी स्मृति लोग अपने अंतःकरण में सदैव आदरपूर्वक संजोकर रख रहे हैं । उसका कारण है – उनका अटूट आत्मविश्वास, धर्म के श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों पर निष्ठा, तद्नुरूप स्वत: के जीवन को बनाने की सच्चाई, अपना दोष अपनी भूल प्रकट रूप से मान्य करने की सत्यप्रियता आदि । इन असामान्य गुणों के कारण उनकी स्मृति रखना आवश्यक है ।
इस वर्ष २ अकबर १९६९ को उनका जन्मशताब्दी उत्सव बड़े उत्साह और समारोह से मनाने का सब देशबांधवों का संकल्प है । वे बड़े पैमाने पर होंगे भी । लेकिन उत्सव-समाराहों से ही इति कर्तव्यता मानना योग्य नहीं । उनके जीवन का दक्षतापूर्वक अभ्यास कर, उनमें प्रकट हुए श्रेष्ठ स्थायी गुणों को समझकर, उन्हें समाज में सबने आत्मसात करना आवश्यक है । राष्ट्रार्थ सर्वस्व समर्पित कर, शुद्ध सात्त्विक गुणों से युक्त होकर, प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र का उत्कृष्ट कार्यकर्ता बनना चाहिए और अखिल मानवजाति को अपने सर्वसंग्राहक उदार व्यवहार से भूषणभूत होना चाहिए । इसलिए उनके गुणों को समझकर अनुकरण करने का निश्चय करना चाहिए । भगवत्कृपा से सब देशबंधुओं में यह सदिच्छा निर्माण हो और अपना राष्ट्र सर्वसद्गुण-संपन्न बनकर स्वतःसिद्ध जगद्गुरु पद प्राप्त करे और इससे महात्मा जी की कीर्ति अक्षय रहे ।
साभार संदर्भ |
महात्मा गाँधी जन्म-शताब्दी के निमित्त यह लेख नागपुर से प्रकाशित ‘युगवाणी’ नाम की मराठी मासिक पत्रिका में अक्टूबर १९६९ में प्रकाशित हुआ था साभार – श्री गुरुजी समग्र खंड – १ |