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“मेरा प्रचारक” खोना मत – बाल भिडे़ || Dattopant Thengadi

“Send Krishna Moharir Immediately”

        -Bapuji Thengadi

नागपुर संघ कार्यालय में परम पूजनीय श्री गुरुजी के नाम से तार आया। प्रेषक थे माननीय श्री दत्तोपन्त जी के पिताजी, आर्वी के ख्यातिनाम एडवोकेट बापूजी ठेंगड़ी ।

चालीस वर्ष पूर्व की घटना है। मा० दत्तोपन्त जी बी० ए०, एल० एल० बी० कर चुके थे। एडवोकेट बापूजी संघ को जानते थे, लेकिन उनकी इच्छा थी कि “बेटा वकालत करे।” एक अच्छी बहू घर लाये और गृहस्थी संभालते हुए थोड़ा संघ कार्य करे। एक पिता की स्वाभाविक अपेक्षा थी।

लेकिन एक दिन मा० दत्तोपन्त जी ने अपनी माता के द्वारा, अपना रा० स्व० सं० के प्रचारक बनने का निर्णय पिताजी तक पहुँचाया । मा० दत्तोपन्त जी इस समय आर्वी में ही थे, लेकिन खुद पिता के सामने नहीं
आये। पिताजी ने साक्षात् जामदग्नि रूप धारण किया व सीधे माननीय कृष्णराव मोहरिर जी को बुलाने का तार दे दिया । माननीय कृष्णराव माननीय ठेंगड़ी जी के सहाध्यावी एवं रा.स्व. संघ के प्रचारक थे।

तार पाते ही प० पू० श्री गुरुजी ने कृष्णराव जी को आर्वी जाने के लिए कहा।

श्री कृष्णराव जी ने कहा, “आपके कहने पर मैं चला तो जाता हूँ परन्तु उनसे में क्या बात करूं ” श्री कृष्णराव जी ने अपनी समस्या बताई ।

श्री गुरुजी ने कहा, “इसमें अनपेक्षित कुछ भी नहीं है। दत्तोपन्तजी प्रचारक निकल रहे हैं, अतः बापूजी नाराज हो गए होंगे। उन्होंने बुलाया है, तो मिल अवश्य आना।”

श्री गुरुजी की आज्ञानुसार श्री कृष्ण- राव जी जाने लगे । गुरुजी ने उन्हें वापस बुलाया और कहा, “कृष्णराव ! आप आर्वी
जा रहे हैं, उनकी बातों में आकर, उनकी हां में हां मिलाओगे, मेरा प्रचारक गंवा दोगे। सावधान रहना। दत्तोपन्त जी के प्रचारक निकलने में बाधक हो, ऐसी कोई भी स्वीकारोक्ति न करना। मेरा प्रचारक खोना नहीं।”

प० पू० श्रीगुरुजी से आशीर्वाद लेकर मा० कृष्णराव आर्वी आ पहुंचे।

आगे का वृत्तांत मा०, कृष्णराव जी के मुख से सुनने में ही अधिक आनन्द आयेगा मा० कृष्णराव जी ने कहा……….

“पत्तरकिने, सालपेकर, इन्दापवार, ढोक, वेलेकर, तिजारे, कोठेकर, वहाड़पांडे, इंदूरकर, ठेंगड़ी, मोहरीर, फड़णवीस ऐसे अनेक परिवार नजदीक-दूर के रिश्ते से एक- दूसरे से जुड़े हुए थे । एक ही अक्षय वट के ऊपर बने अनेक घोंसले ! अतः सभी में घरेलू व्यवहार था । सभी परिवार घार्मिक थे, सामाजिक कार्यों की रुचि सभी में थी, राष्ट्र- भक्ति की भावना से सभी ओत-प्रोत थे। विशेषतः हमारे इस अक्षय-वट से अनेक दत्त- भक्त पुरुष उत्पन्न हुए, व उनकी पत्नियां सती-अनुसूया जैसी वात्सल्य-मूर्ती थी ।

मा० दत्तोपन्त जी के माता-पिता भी इसी श्रेणी के थे, पिताजी ऊग्र, अत्यन्त व्यवस्थित, तेज, वहीं माताजी अत्यन्त सात्विक, सोज्ज्वल, प्रेम-मयी, बच्चों से अत्यधिक स्नेह करने वाली । बापूजी का संघ से सम्बन्ध था। अण्णाजी बक्षी जैसे अनेक स्वयंसेवक उनके मित्र थे, लेकिन बापूजी ज्यादा व्यवहारी थे, अतः दत्तोपन्त जी वकालत करें, गृहस्थी चलाए ऐसी उनकी इच्छा
थी। उनकी इच्छा से श्री गुरुजी परिचित न थे। श्री बापूजी की जैसी दत्तोपन्त जी के बारे में अपेक्षा थी, वैसे ही श्री गुरुजी भी दत्तोपन्त जी से कुछ उम्मीद लगाकर बैठे थे । “श्री दत्तोपन्त बी०ए०, एल० एल०बी० होगए, प्रचारक बनने योग्य हुए। उनकी अंग्रेजी भाषा पर भी अच्छी पकड़ हैअतः उन्हें केरल, बंगाल जैसे स्थानों पर भेजा जा सकता है।” पिता अपने आपत्य से जैसी अपेक्षा रखता है, वैसी ही गुरुजी के मन में दत्तोपन्त जी के लिए थी।

दत्तोपन्त जी भी ऐसे ही थे । संघ के सभी स्वयंसेवकों के मन में दत्तोपन्त जी के प्रति नितांत आदर व स्नेह था। श्री दत्तोपन्त जी का जीवन स्वच्छ, निर्मल निर्झर जैसा है । आप तत्व चिंतक, विद्वान तो हैं ही, लेकिन कोरा पाण्डित्य नहीं व्यवहार भी वैसा ही है। प० पू० श्री डॉक्टरजी के सान्निध्य में पांच वर्ष व पश्चात् श्री गुरुजी के पास अनेक वर्षों तक रहने का सोभाग्य आपको प्राप्त हुआ। आप अत्यन्त मेधावी छात्र थे, मेरे से आयु में आप छोटे हैं, परन्तु एल० एल० बी० का अध्ययन साथ ही किया है। कॉलेज में भी आप सभी के अपने थे, लेकिन घर-गृहस्थी में आपकी रूचि नहीं थी। समाज-सेवा, राष्ट्र- सेवा यही आपकी प्रकृति थी। आप रा०स्व० संघ के निष्ठावान कार्यकर्ता थे । इन परिस्थितियों में आपको प्रचारक बनना जितना आवश्यक था, उतना ही कठिन था, आपके पिताजो की अनुमति लेना।

मैं आर्वी जाने के बाद सर्वप्रथम वहां के संघचालक डॉ० देशपांडे के घर गया । उन्हें सारी स्थिति से अवगत करवाया। डॉ० देशपांडे जी ने कहा “अरे! बापूजी बड़े गुस्से में है। तुम जाओगे तो तुम्हारी पिटाई भी हो सकती है।” मेने डरते हुए घर में प्रवेश किया। अन्दर जाते ही पहले बापूजी को साष्टांग दण्डवत् किया । अपेक्षा थी, प्रारम्भ में कुछ ओपचारिक बातें होगी, परन्तु बापूजी ने पहले ही कह दिया, “मैं उसको प्रचारक नहीं भेजूंगा ।” बस….. विषय समाप्त ! मैंने कुछ बोलने की कोशिश की, तो बापूजी बरस पड़े, “वह अपने बाप को बाप नहीं कहता। कभी मेरे से पैसे भी नहीं मागता। उसका नेता तो नागपुर में बैठा है। मैंने उसको पढ़ाया, उसकी दृष्टि से कारोबार इतना उन्नत किया, इतनी किताबें एकत्रित की, यह सब किसके लिए ? अब परिवार की जिम्मेदारी उसी की है, उसकी छोटी बहिन विवाह योग्य हो गई है, पर उसे तो किसी बात की चिन्ता ही नहीं है। वह खुद को क्या समझता है ? और ऊपर से तूं आया है, मुझे सिखाने” बापूजी बोल रहे थे, सभी का उद्धार हो रहा था। दत्तोपन्त जी की माताजी का भी उद्धार हो रहा था, क्योंकि आप समय-समय पर बच्चे की ढाल बन जाती थी।

बड़ा कठिन प्रसंग था, पर मैने हिम्मत न हारी, उनकी हां में हां नहीं मिलायी, प० पू० श्रीगुरुजी का आदेश जो था। थोड़ा-सा साहस समेट कर मैंने कहना प्रारम्भ किया, “दत्तोपन्त आपकी तो सुनते नहीं हैं, वे प्रचारक तो निकलेंगे ही, फिर आपके इस रुद्रावतार का क्या लाभ ! उन्हें घर-गृहस्थी-धन में कोई आकर्षण नहीं। वे अब बड़े हो गए हैं, विद्वान हैं, क्या अच्छा और क्या बुरा यह समझ सकते हैं और अपने जीवन का ध्येय उन्होंने निश्चित कर रखा है। आप कितना
ही विरोध करें वे प्रचारक तो निकलेंगे ही, फिर आप उन्हें आशीर्वाद देकर क्यों नहीं विदा करते।” मेरे कहने का कुछ असर होने लगा। अब बापूजी का क्रोध कुछ शान्त होने लगा। घण्टा भर काफी प्रश्नोत्तर, चर्चा हुई। अब बापूजी कुछ ठण्डे हुए। तब मेने कहा, “बापूजी! आप मेरे पिता समान है। मेरा यह कहना उद्दन्डता होगी, फिर भी पूछता हूँ, आप दत्त-भक्त हैं। भगवान दत्त की प्रार्थना करते हैं। आपने ईश्वर से उसके समान बुद्धिमान पुत्र ही मांगा होगा न । भगवान दत्त ने आपकी प्रार्थना सुनी होगी। आपका यह बुद्धिमान पुत्र भगवान दत्त का प्रसाद है, अतः आपने उसका नाम भी दत्त रखा और अब इस दत्तात्रेय को चार दीवारों में क्या आप बन्द रखना चाहते हैं ? सतत् संचार करने वाले दत्त क्या कभी ऐसे बन्द रह सकते हैं? स्वयं की परवाह न करते हुए लोक सेवा ही उनका कार्य है। कुत्ते, बिल्लियां, गाय, बछड़े, दीन, अनाथ, दुर्बल, अपंग इन सबका वे सहारा बनेंगे । क्या आपको नहीं लगता कि आपके घर में साक्षात् दत्त भगवान ही अवतरित हुए हैं।”

बापूजी गद्-गद् हो उठे । कुछ समय शान्ति रही। मैं जाने के लिए उठा। बापूजी ने पूछा ‘कहां जा रहे हो ?’ मैने कहा ‘आपके क्रोध से तो बच गया। अब भोजन के लिए डॉ० देशपांडे जी के घर जा रहाहूं ।’ बापूजी ने कहा, ‘तू ग्यारह बजे यहां देशपांडे जी को साथ लेकर आयेगा।’ व अपनी पत्नी से कहा ‘आज गांव के सभी लोगों का यही भोजन होगा।’ दत्तोपन्त जी की माताजी को अतीव प्रसन्नता हुई। दोपहर को विशेष भोज का प्रबन्ध था। आर्वी की यात्रा सफल करके
मेने नागपुर आकर प० पू० श्री गुरुजी को वृत्तांत निवेदन किया।

पन्द्रह दिन बाद बापूजी व बाई (उनकी पत्नी) नागपुर पहुँचे। श्री गुरुजी से मिले। बापूजी ने श्री गुरुजी के गले में माला पहनायी। श्रीफल (नारियल) व आहेर (उप- हार) दिया व कहा, “मुझे भगवान का साक्षात्कार हुआ। अब मेरा बच्चा आपके स्वाधीन है, वह अब आपका कार्य करेगा। पर एक इच्छा है कि वह घर पर भी आना जाना रखे, जिससे हमें भी सतोष मिले।”

श्री गुरुजी हर्ष-विभोर हो गए। बाई व बापूजी की आंखो में भी आनन्दाश्रु थे।

दिनांक 22 मार्च 1942 के दिन श्री दत्तोपन्त जी ठेंगड़ी संघ-प्रचारक बन केरल के लिए रवाना हो गए।

सन् 1948 में संघ प्रतिबन्ध हटाने हेतू जो सत्याग्रह हुए, उनमें आर्वी से एक सत्याग्रही थे, एडवोकेट बापूजी ठेंगड़ी, जिन्हें छः मास का कारावास हुआ था ।

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