प्रत्येक रचनात्मक कार्य का लक्ष्य है राष्ट्रीय पुनर्निर्माण। जब तक राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का चित्र या कल्पना स्पष्ट नहीं, तब तक रचनात्मक कार्य की दिशा भी तय नहीं हो सकती । राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कई मॉडल हमारे सामने हैं। एक मॉडल है संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का। उसकी जनसंख्या हिन्दुस्थान की जनसंख्या की एक तिहाई से कम है और उसकी जमीन हिन्दुस्थान की जमीन से तीन गुना ज्यादा है। वहां प्रत्येक व्यक्ति को निजी लाभ की प्रेरणा से समृद्ध होने का अवसर था और इस प्रकार सभी नागरिकों की व्यक्तिगत समृद्धि को मिलाकर राष्ट्र की समृद्धि बन गयी। वहां व्यक्ति की प्रेरणा ने कार्य किया, सरकारी प्रेरणा या नियन्त्रण का स्थान नहीं रहा ।
इससे बिल्कुल विपरीत अनुभव रूस का है। जिस समय लेनिन ने शासन सम्भाला उस समय जनता में जागरण नहीं था, किन्तु कम्युनिस्ट क्रान्ति के कैडर तैयार थे। कई बातें उनको जल्दी में करनी थीं। जनता में स्वयंप्रेरणा जगाना सम्भव नहीं था । इसलिए उन्होंने नौकरशाही का सहारा लिया। नौकरशाही के मार्गदर्शन एवं नियन्त्रण के लिए सत्ता के मुख्य स्थानों पर पार्टी कमिसर को रखा। सरकारी दबाव से कार्य कराना पड़ा। स्टालिन के काल में यह प्रक्रिया और भी आगे बढ़ी। इस प्रकार विकास का रूसी मॉडल जन-प्रेरणा पर नहीं, सरकारी दबाव पर आधारित हो गया।
एक तीसरा मॉडल हिटलर ने खड़ा करने का प्रयास किया। वहां पहल हमेशा सरकार के पास रही। किन्तु सरकारी योजना को क्रियान्वित करने के लिए उसने सत्तारूढ़ दल द्वारा जन जागरण पैदा करने की भी कोशिश की। जन जागरण को पैदा करने के लिए उसने जिस जातीय-उन्माद एवं घृणा-भाव को जगाया, उसका हम यहाँ विचार नहीं कर रहे। इस वक्त हमारे लिये इतना ही काफी है कि हिटलर के मॉडल में सरकारी पहल और जन प्रेरणा दोनों का योग जमाने की कोशिश की गई थी।
चीन का मॉडल इन सबसे भिन्न प्रकार का है। चीन में कम्युनिस्ट क्रान्ति के पश्चात् माओ ने लेनिन व स्टालिन की गलतियों से सबक लेकर अपनी क्रान्ति को न तो कम्युनिस्ट क्रान्ति कहा और न सोशलिस्ट क्रान्ति, अपितु लोकतान्त्रिक जनक्रान्ति (पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिवॉल्यूशन) कहा। उन्होंने पुनर्निर्माण के अपने कार्यक्रम के लिए जन-उत्साह को
जगाने का प्रयास किया। जन-उत्साह के बल पर ही गन्दगी के खिलाफ, मच्छरों के खिलाफ, खेत में चिड़ियों के खिलाफ अभियान चलाया। इस प्रकार उन्होंने भी जन-उत्साह व सरकारी पहल का सुन्दर समन्वय खड़ा करने का प्रयास किया ।
गाँधीजी ने सत्याग्रह और रचनात्मक कार्य, ये दो बातें हमारे सामने रखीं। उनका कहना था कि स्वतंत्र भारत की सरकार होने के बाद भी रचनात्मक कार्य और सत्याग्रह दोनों चलेंगे। मुझे स्मरण है कि जिन दिनों में कालेज में पढ़ता था उन दिनों हमारे मॉरिस कालेज के कुछ छात्र गांधी जी से मिलने गये और उनसे पूछा कि स्वराज्य प्राप्ति के बाद राष्ट्र के काम काज में किसकी कितनी पहल रहना चाहिये। तब गांधीजी ने स्पष्ट रूप में कहा था कि सरकारी पहल और नियन्त्रण न्यूनतम रहना चाहिए, जनता की पहल और नियन्त्रण ही अधिकतम होना चाहिये ।
राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के बारे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कल्पना इन सबसे भिन्न है। संघ ने राष्ट्र के परम वैभव का ध्येय अपने सामने रखा है और यह भी तय किया है कि संघ केवल एक ही काम करेगा कि व्यक्ति-व्यक्ति के हृदय पर संस्कार अंकित करते हुए संस्कारित स्वयंसेवकों का एक राष्ट्रव्यापी अनुशासनबद्ध संगठन खड़ा करे। नित्य का शाखा कार्य छोड़कर कोई भी अन्य काम संघ नहीं करेगा। प्रश्न यह उठता है कि संघ के जन्मकाल से अंगीकृत परम वैभव के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यदि राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य की रचना व विचारों का विकास आवश्यक है तो संघ यदि केवल स्वयंसेवकों का निर्माण व संगठन ही करेगा, तो कार्यों की रचना व विचारों का विकास कैसे होगा ? इसका उत्तर यह है कि यदि संघ प्रत्येक क्षेत्र में रचना का “ब्लू प्रिंट” देने का प्रयत्न करेगा तो संघ के हाथ में केवल ब्लू-प्रिंट के कागजों के गट्ठर रह जायेंगे, प्रत्यक्ष धरती पर जो संघ की शक्ति है वह समाप्त हो जायेगी। लेकिन संघ से संस्कार और प्रेरणा प्राप्त किये स्वयंसेवक अपनी-अपनी प्रेरणा, रुचि और प्रवृत्ति के अनुसार राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करेंगे, वहां राष्ट्र जीवन के लिए आवश्यक कार्यों की रचना व विचारों का विकास करेंगे। प्रयत्न यही रहेगा कि संघ के आदर्शों के प्रकाश में कार्यों की रचना और विचारों का विकास हो । संघ ने जो रीति-नीति हमें सिखायी है उसी पर दृढ़ रहते हुए हम अपने चुने हुए क्षेत्र में कार्य करें। इस व्रत के साथ स्वयंसेवकों को विभिन्न क्षेत्रों में जाना है। कार्य करना है। अर्थात् संघ कुछ नहीं करेगा पर उसके स्वयंसेवक सब कुछ करेंगे । यह विचार सन् १९२५ से चलता आया है और उसी के अनुसार आज स्वयंसेवक विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हैं। यह सारे कार्य स्वयंसेवक कर रहे हैं, संघ नहीं कर रहा, यह स्पष्ट करना में आवश्यक समझता हूं ।
अब ऐसे रचनात्मक कार्यों का मुझे तो कोई प्रत्यक्ष अनुभव है नहीं। लेकिन मेरे मामा जी, जो गाँधी जी के निकट सहयोगी श्री जमनालाल बजाज के यहां काम करते थे, उन्हें इस बारे में काफी अनुभव था। उन्हीं से सुने हुये कुछ अनुभव आपके सामने रखता हूं।
पहला अनुभव यह है कि कोई रचनात्मक कार्य हाथ में लेने पर कार्यकर्ता अपने को उसके साथ पूर्णतया तद्रूप कर देता है और फिर उस काम को ही दुनिया का सबसे बड़ा काम समझकर उसको पूरा करने में जल्दबाजी करने लगता है। इस जल्दीबाजी में से कुछ खतरे पैदा होते हैं। पहला खतरा यह है कि कार्य को बढ़ाने की जल्दी में मिशनरी भावना के कार्यकर्ता उपलब्ध न होने पर वह आपद् धर्म के नाते उदरार्थी कार्यकर्ताओं के बल पर कार्य बढ़ाने की कोशिश करता है। किन्तु उदरार्थी भावना के कार्यकर्ता से मिशनरी स्पिरिट के कार्यकर्ता के समान निःस्वार्थ कार्य की अपेक्षा करना अव्यावहारिक होगा। जब इस तरह के उदरार्थी लोग एकत्र हो जाते है तो संस्था का वायुमंडल बिगड़ता है, उसके आदर्शवाद में गिरावट आने लगती है ।
दूसरा खतरा पैसे के बारे में होता है। अधिक धन होने से जल्दी काम बढ़ेगा, यह सोचकर रचनात्मक कार्यकर्त्ता कहीं से भी आया हुआ पैसा स्वीकार कर लेता है; चाहे वह पूंजीपति का हो, चाहे सरकार का, चाहे किसी विदेशी का। उसके गुण-दोष का विचार करने का समय उसके पास नहीं होता। अब पैसा कहीं से भी आए, अगर वह प्रचुर मात्रा में सरलता से मिल जाता है तो मिशनरी स्पिरिट को बचाए रखना केवल नीलकंठ शंकर के ही बस की बात है, हमारे जैसे सामान्य मनुष्यों की नहीं।
तीसरा खतरा आत्म-प्रचार की भूख के रूप में पैदा होता है। प्रारम्भ में तो कार्य की आवश्यकता के लिए पब्लिसिटी का थोड़ा सा सहारा लिया जाता है। बाद में पब्लिसिटी की भूख जाग जाती है तो फिर जो कार्य करने से पब्लिसिटी मिल सकती है वही करने को मन होता है अर्थात् साधन साध्य विवेक का विपर्याय होता है।
यह सारा परिवर्तन अनजाने में हो जाता है। अपने में कैसा परिवर्तन हो रहा है, यह अपने ख्याल में ही नहीं आता। इस दृष्टि से स्वयं को ठीक ढंग से कैसे रखना, यह कार्यकर्ता को स्वयं करना होगा। यह कार्य बाहर से नहीं हो सकता। लोटे के डाले हुए पानी से गंगा कभी नहीं बह सकती। अतः स्वयं प्रेरणा बहुत आवश्यक है। हमारे एक कार्यकर्ता कहा करते थे “बिगिन विद फर्स्ट पर्सन सिंगुलर” अर्थात् रचना और सुधार का जो भी कार्य हो उसे स्वयं से शुरू करो। अपना ही सुधार नहीं हुआ पर बाकी दुनिया की रचना करने निकल पड़े तो क्या होगा, कहा नहीं जा सकता ।
साभार संदर्भ |
दीनदयाल शोध-संस्थान द्वारा दिनांक 4,5,6 अक्तुबर 1983 को “विकास – अवधारणा एवं मूलवर्ती प्रयोग” विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया था। इस अखिल भारतीय कार्यशाला में श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी के दो बौद्धिक वर्ग प्राप्त हुये। जो दीनदयाल शोध-संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका मंथन के जून 1984 के अंक में प्रकाशित किये गये। |