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श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी अमृतमहोत्सव – प्रो. श्रीकांत देशपांडे

बहुआयामी व्यक्तित्व

10 नवम्बर, 1920 को विदर्भ प्रदेश के आर्वी गांव, जिला वर्धा में जन्मे दत्तोपंत को वकालत करनी चाहिए यह उनके पिता की इच्छा थी। स्व. बापूजी ठेंगडी स्वयं उस इलाके के ख्यातिप्राप्त अधिवक्ता थे। अतः उनकी यह इच्छा स्वाभाविक थी। किन्तु नियति को यह स्वीकार नहीं था। श्री दत्तोपंत बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आये एवं उनके जीवन के ध्येय की दिशा ही बदल गयी। हिन्दुत्व की वकालत करना यह जिम्मेदारी नियति ने उन पर सौंपी। प. पू. श्री गुरूजी का पारस स्पर्श हुआ और दत्तोपंत ने उम्र के 22वें वर्ष में 1942 को केरल प्रंात में संघप्रचारक इस नाते कार्य प्रारंभ किया। उस समय से आजतक याने अर्धशतक से भी अधिक समय हुआ वे संघप्रचारक इस नाते समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में संघविचार पहुंचाने का, उस दृष्टि से ओतप्रोत कार्यकर्ताओं के निर्माण का कार्य कर रहे है। वे हिन्दू राष्ट्र के अनन्य साधक, चिंतक, परिव्राजक एवं श्रमशील कार्यकर्ता इस नाते पहचाने जाते है।

दत्तोपंत जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे कार्यकर्ता है, मार्गदर्शक भी है। वे नेतृत्व प्रदान करते है, किन्तु आधुनिक अर्थ में नहीं। उनके जीवन कार्य पर एक नजर डाली जाये तो एक अलग अनुभूति होती है। कुछ कुछ स्थानों पर अपूर्व योगायोग महसूस होता है। उदाहरण के लिए 1942 में केरल प्रान्त में एवं 1945 में बंगाल प्रांत में संघ का विस्तार करने हेतू उन्हें भेजा गया। वर्तमान में साम्यवादियों के गढ़ समझे जाने वाले इन दोनों प्रांतो में संघ का कार्य प्राथमिक अवस्था में प्रारंभ करने का सौभाग्य उन्हे प्राप्त हुआ।

संघ का ध्येय एवं कार्य एक सर्वात्म, समृद्ध सनातन तथा युगानुकूल हिंदू राष्ट्र की पुनः स्थापना करना है यह दत्तोपंत जी की श्रद्धा । ‘‘राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर’’ ले जाने का काम संघ ही कर सकता है। यह मार्ग कठिन, लंबा एवं सहनशीलता की परीक्षा लेने वाला है यह उनकी धारणा है। जीवन का – राष्ट्र जीवन का लक्ष्य (Goal) जितना श्रेष्ठ होगा तो उसे प्राप्त करने की कालावधि भी अधिक होगी, यह उनका विश्वास है। ऐसा विश्वास प्रारंभ से ही रखने वाले दत्तोपंत जी का श्री गुरूजी एवं पं. दीनदयाल उपाध्याय के साथ बहुत निकट का संबंध रहा है।

भारतीय मजदूर संघ की स्थापना

राष्ट्र जीवन के सभी क्षेत्रों में पुनर्रचना की दृष्टि से कार्य करने का निर्णय संघ ने स्वातंन्त्रय प्राप्ति के बाद किया। विविध क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं को भेजा गया। संगठन बनाने हेतु प्रोत्साहन दिया गया। आज देश में प्रथम क्रमांक का श्रमिक संगठन इस नाते सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त भारतीय मजदूर संघ की स्थापना श्री दत्तोपंत ठेंगडी ने 1955 में की। किंतु उसकी तैयारी एवं अभ्यास उन्होंने 1949 से ही प्रारंभ किया। दत्तोपंत जी को 1949 में मजदूर क्षेत्र में अभ्यास करने के लिये कहा गया। उस समय मजदूर क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का इंटक, यह मजदूर संगठन था। उन्होंनें इंटक में प्रवेश किया तथा एक अर्थ से उनके जन्मसिद्ध कार्य का श्रीगणेश हुआ। थोडे ही दिनों में दस अलग अलग उद्योगों में कार्यरत युनियनों के वे पदाधिकारी एवं आधार स्तम्भ भी बने। 1950 के अक्टुबर में दत्तोपंत जी इंटक के अखिल भारतीय जनरल कौन्सिल के सदस्य एवं पुराने मध्यप्रांत के प्रांतीय संगठन मंत्री इस नाते नियुक्त हुऐ। 1952 से 1955 इस दौरान कम्युनिस्ट प्रणीत ए.आई.बी.ई.ए. (ऑल इंडिया बैंक ऐम्पलाइज एसोेशिएशन) इस नाम से चलने वाले बैंक कर्मचारियों के संगठन के संगठन मंत्री इस नाते काम किया। 1954-55 में आर.एम.एस. एम्पलाईज युनियन, इस डाक तार विभाग के श्रमिक संगठन के सेंट्रल संगठन के अध्यक्ष थे। इंटक में उन्होंने श्री पी. वाय. देशपांडे तथा डा. श्री ल. काशीकर इनके मार्गदर्शन में एवं कम्युनिस्ट युनियन में श्री दादा घोष जो उस समय के साम्यवादी पार्टी के नेता थे, उनके मार्गदर्शन में काम किया। उस जमाने में जिन जिन व्यक्तियों से दत्तोपंत जी का संपर्क हुआ, उन सबके साथ उनके पारिवारिक एवं आत्मीय संबंध प्रस्थापित हुए।

संगठन-संसार

पुर्व कथनानुसार राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत एवं भारतीय विचारधारा के आधार पर भारतीय मजदुरों का संगठन निर्माण करना यह उनका जीवन कार्य है। विविध श्रमिक संगठनों में प्रत्यक्ष कार्य करते हुये श्रमिक आंदोलन का गहरा अध्ययन किया। उस समय साम्यवादी विचारधारा का बहुत गहरा प्रभाव विश्व के पुरे श्रमिक आंदोलन पर था। उसका भी व्यापक अध्ययन, मनन, चिंतन उन्होंने किया। इस संपूर्ण पार्श्वभूमी में उन्होंने 23 जुलाई 1955 में भोपाल में एक छोटी सी बैठक में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना का ऐतिहासिक निर्णय लिया। ‘‘परमेश्वर’’ यह संगठन का पहला सदस्य। ‘‘राष्ट्र का औद्योगिकीकरण’’, ‘‘उद्योगों का श्रमिकीकरण’’ एवं ‘‘श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण’’ यह त्रिसुत्री उन्होंने भारतीय मजदूर संघ को प्रदान की। यह कार्य ईश्वरीय कार्य है यह श्रद्धा एवं कार्यकर्ताओं का अनुशासन इस धारणा के आधार पर उन्होंने श्रमिक क्षेत्र में श्रमिकों के माध्यम से ही एक आदर्श तत्व एवं व्यवहार पद्धति प्रस्थापित करने का संकल्प एकाग्र चित से किया।

श्री दत्तोपंत ठेंगडी जी ने पारिवारिक जीवन का परंपरागत अर्थ में स्वीकार नहीं किया, किन्तु, उनके द्वारा संस्थापित संगठनों का एक विशाल परिवार, पारिवारिक भावना से ओतप्रोत नजर आता है। उन्होंने अनेक संगठनों का सामाजिक जीवन के विविध क्षेत्रो में सृजन किया। अनेक संगठनों को एक मार्गदर्शक के रूप में उनका सहयोग मिला। 1949 में स्थापित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक सदस्यों में से एक वे थे। 1952 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई । मध्यप्रदेश में जनसंघ का आधारभूत कार्य खडा करने की जिम्मेदारी दत्तोपंत जी को दी गयी।

संगठन स्थापन करने की दत्तोपंत जी की शैली शुद्ध भारतीय है। शुद्ध भारतीय पद्धति माने, समाज जीवन में व्याप्त समस्याओं की स्वयं अनुभूति करना, उस अनुभूति को अपने सहयोगीे कार्यकर्ताओं में निर्माण करना, इतना ही नहीं तो उस संगठन में समस्या पीड़ित जनसमूह का सहभाग हो, ऐसा प्रयास करना। केवल संगठन के संविधान और नियमावली के आधार पर ही नहीं तो प्रत्यक्ष कार्य क्षैत्र में कार्य करते करते, सहज रूप से संगठन तैयार होता है।

इसके विपरित संगठन बनाने की पाश्चात्य पद्धति, संगठन प्रारंभ करने से पूर्व ही उसका संविधान, उसका ब्लू प्रिंट तैयार रहता है। उसका प्रचार होता है। दत्तोपंत जी द्वारा प्रत्येक संगठन का निर्माण करते समय मन में जो भी विचार उभरे, उसको उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं के समक्ष व्यक्त किया, उनसे संवाद प्रस्थापित किया, अपना विचार अपने सहकारियों में संक्रमित किया। सर्वानुमति से निर्णय लिये। यह उनकी कार्य पद्धति आज भी अनवरत चल रही है। उनके मन में विशिष्ठ संगठन के संबंध में संपूर्ण ब्लू-प्रिंट तैयार रहता है किन्तु वे उपरोक्त कार्य पद्धति से ही कार्यान्वित करते है।

जागृत, स्वयंप्रेरित एवं संगठित किसान एवं मजदूर ही सही अर्थ में भारत के भाग्य विधाता है। ऐसी अवस्था में राष्ट्र निर्माण के लिये बनाई जाने वाली योजना निचले ग्राम स्तर से राज्य स्तर पर जायेगी। योजना निर्माण में स्वयं किसान सहभागी होने के कारण उसके क्रियान्वयन में ग्रामीण, किसान, मजदूर स्वयं, उत्साहपूर्वक आगे रहेगें। उसके कारण संपुर्ण देश में वातावरण बदल जायेगा। इस प्रकार से मौलिक परिवर्तन लाने की दृष्टि से 4 मार्च 1979 को श्री दत्तोपंत ठेंगडी जी ने राजस्थान के कोटा शहर में भारतीय किसान संघ की स्थापना की। आज किसान संघ देश का सबसे सशक्त ऐसा किसान संगठन के नाते जाना जाता है।

यह तो त्रिमूर्ती है

श्री दत्तोपंत जी ठेंगडी ने स्वयं कुछ संगठन बनाये। उसके साथ वे कई अन्य संगठनों के संस्थापक, मार्गदर्शक एवं संरक्षक के नाते भी कार्य करते है। संघ प्रेरणा से स्थापित हुई संस्थाओं का विकास कैसा होगा, इस ओर उनका नित्य ध्यान रहता है। सहकार भारती, ग्राहक पंचायत, सामाजिक समरसता मंच, आदि संस्थाओं के नित्य प्रवास, परिवार के एक मुखिया के नाते जिम्मेदारी निभाने की भूमिका से इन संस्थाओं के कार्य की और ठेंगडी जी के देखने की भूमिका है। 13 नवम्बर, 1986 को नागपुर में अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत का अधिवेशन संपन्न हुआ। उस अधिवेशन में मुख्य मार्गदर्शन मा. दत्तोपंत द्वारा प्राप्त हुआ। उस अधिवेशन के अवसर पर ग्राहक पंचायत के अध्यक्ष श्री बिंदूमाधव जोशी ने अपने वक्तव्य में कहा की, श्री दत्तोपंत ठेंगडी सच्चे अर्थ में दत्तात्रेय है। मजदूर संघ, किसान संघ तथा ग्राहक पंचायत यही वह ‘‘त्रिमुर्ती’’ है।

श्री दत्तोपंत जी ठेंगडी के जीवन कार्य के आलेख पर यदि हम नजर डाले तो ध्यान में आयेगा की, उनका विभिन्न संगठनों में भिन्न भिन्न विचारों के लोगों के साथ संपर्क आया। उनमें से कुछ व्यक्तियों का उल्लेख करना अनिवार्य है। सिविल लिबर्टी युनियन (Civil Liberty Union) में उन्होंने हितवाद के तत्कालीन संपादक एस.के. भारद्वाज की अध्यक्षता में काम किया। 1951 से 1953 तक वे एम.पी.टेनेन्टस एसोशिएशन (M.P. Tenents Association) के संगठन मंत्री रहे। उसके अध्यक्ष थे श्री एल.एम. माहुरकर। हेण्डलूम वीवर्स कांग्रेस (Handloom Weavers Congress) में वे कानूनी सलाहकार थे। श्री कोंडा लक्षमण बापूजी उसके अध्यक्ष एवं श्री रा.बा.कुंभारे उसके महासचिव थे। विमुक्त जाति संघ के उपाध्यक्ष इस नाते दत्तोपंत ठेंगडी जी ने काम किया। कांग्रेस पार्टी की उस समय की नेता श्रीमति एम. चन्द्रशेखर उस संघ की अध्यक्ष थी। ‘‘शेडयुल क्लाश रिक्सा पुलर्स कॉ-ऑपरेटिव सोसायटी’’ दिल्ली के माननीय दत्तोपंत जी उपाध्यक्ष थे एवं अध्यक्ष रिपब्लिकन पार्टी के ज्येष्ठ नेता श्री दादा साहब गायकवाड थे। छत्तीसगढ विलिनीकृत रियासत जनता कांग्रेस के वे सदस्य थे एवं अध्यक्ष उस इलाके के प्रसिद्ध नेता ठाकुर प्यारेलाल सिंह थे। ‘‘शेतमजूर कांग्रेस’’ के वे कार्यकारिणी सदस्य थे एवं अध्यक्ष इस नाते राजाराम महल्ले थे।

पांडिचेरी आश्रम की ‘‘फ्रेेंच मॉं’’ की शताब्दी कार्यक्रम समिति बनाई गयी। उसके अध्यक्ष इस नाते उस समय के उपराष्ट्रपति श्री. बी. डी. जत्ती को मनोनित किया गया। उस समिति के उपाध्यक्ष इस नाते तत्कालिन गृहमंत्री श्री यशवंतराव चव्हाण एवं श्री दत्तोपंत ठेंगडी का नाम नियुक्त किया गया।

उपरोक्त सभी संगठनों का उल्लेख केवल उदाहरण के नाते किया है। संघ परिवार के बाहर अन्य नेताओं के साथ काम करते समय उनका विश्वास संपादित करने का जो काम दत्तोपंत ने किया यह उनकी विशेषता है। इन सब नेताओं के साथ ठेंगडी जी के भविष्य काल में भी पारिवारिक एवं आत्मीय संबंध रहे है। वैचारिक मतभेद इन व्यक्तिगत संबंधों में कभी बाधा नहीं बन पाये।

डॉ. बाबा साहब आंबेडकर के सानिध्य में

डॉ. बाबा साहब आंबेडकर से दत्तोपंत ठेंगडी के घनिष्ठ संबंध थे। डॉ. अंबेडकर को यह जानकारी थी कि दत्तोपंत ठेंगडी जी संघ के प्रचारक है। विभिन्न विषयों पर उनकी चर्चाएं होती थी। 14 अक्टुबर, 1956 को डॉ. अंबेडकर ने बोद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की। यह निर्णय मैंनें क्यों लिया? यह बताने के लिये डॉ. अंबेडकर ने कुछ पत्रकार एवं मित्रों को आंमत्रित किया था। उस समय दत्तोपंत जी ‘‘कार्यकर्ता’’ इस नाते वहां उपस्थित थे। दत्तोपंत जी बौद्ध महासंघ के सदस्य बने। उस समय श्री वामनराव गोडबोले (डॉ. अंबेडकर के सहयोगी) के साथ निर्माण हुए आत्मीय संबंध आज भी विद्यमान है। वही आत्मीय संबंध आगे रिपब्लीकन पार्टी के नेताओं के साथ भी निर्माण हुए। उदाहरण श्री दादासाहब गायकवाड, श्री दादासाहब कुंभारे, बाबू हरिदास आवले, बै. राजाभाऊ खोबरगडे, श्री रा.स. गवाई आदि है। आगे चलकर रिपब्लिकन पार्टी का विघटन हुआ। अनेक गुटों में यह पार्टी विभाजित हुई, किन्तु दत्तोपंत जी का संबंध सभी के साथ पुर्वानुरूप ही रहा। 1980 में मा. दत्तोपंत ठेंगडी जी की षष्टिपुर्ती भारत भर में संपन्न हुई। विभिन्न संगठनों के, विभिन्न दलों के, विभिन्न विचारों के प्रमुख, उस समय अलग अलग स्थानों पर सम्पन्न सत्कार समारोहों के अध्यक्ष के रूप उपस्थित रहे। नागपुर के सार्वजनिक कार्यक्रम के अध्यक्ष थे श्री रा.सु. गवई एवं चन्द्रपुर के कार्यक्रम के अध्यक्ष थे बै. राजाभाऊ खोबरगडे। किन्तु दोनों के द्वारा अपने भाषण में दत्तोपंत जी के प्रति व्यक्त की हुई आत्मीयता अनन्य साधारण थी।

स्वदेशी आंदोलन

गत 10-15 वर्षों से भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आगमन प्रभावी ढंग से महसूस होने लगा है। आर्थिक आजादी को समाप्त करने वाला डंकल प्रस्ताव भारत ने स्वीकार किया। आर्थिक साम्राज्यवाद के विरोध में संघर्ष करने का समय भारतीय जनता के समक्ष आ गया है। आर्थिक रूप से आजाद रहना है तो ‘‘स्वदेशी’’ यही उसका पर्याय है यह अनुभूति प्रबुद्ध नागरिकों को होने लगी। इसमें संघ परिवार के नेताओं का बहुत योगदान है। आर्थिक आजादी की जंग लङने के लिये उसकी उद्देश्य पूर्ति हेतु जन सामान्य में जागृति लाने के लिये दिनांक 22 नवम्बर, 1991 को नागपुर के रेशिमबाग स्थित डॉ. हेडगेवार एवं श्री गुरूजी के समाधि स्थल के समक्ष श्री दत्तोपंत ठेंगडी जी ने संघ परिवार के राष्ट्रीय स्तर के गिने चुने कार्यकर्ताओं के समक्ष ‘‘स्वदेशी जागरण मंच’’ की स्थापना की । संघ के सरकार्यवाह श्री शेषाद्री जी इस अवसर प्रमुख रूपसे उपस्थित थे। नागपुर विद्यापीठ के भूतपूर्व कुलगुरू डॉ. मा. गो. बोकरे इस संगठन के राष्ट्रीय संयोजक बने।

    स्वदेशी जागरण मंच द्वारा गतवर्ष देश में जो स्वदेशी अभियान चलाया गया एवं उसे जनता की ओर से जो अच्छा प्रतिसाद प्राप्त हुआ, विविध विचारों के राष्ट्रीय नेताओं ने उसमें जो सहभाग दिया, उस आधार पर इस अभियान की सफलता को माप सकते है। स्वदेशी जागरण मंच के प्रमुख मार्गदर्शक नाते आज वे कार्यरत है।

      मा. दत्तोपंत ठेंगडी जी द्वारा अनेक सगठनों का निर्माण किया गया। किन्तु वे किसी भी संगठन के पदाधिकारी नहीं है। एक बार श्री गुरूजी ने कहा था कि, ‘‘हम संगठनशास्त्र के विशेषज्ञ है’’। श्री दत्तोपंत जी ने इस उक्ती को शतप्रतिशत व्यवहार में प्रस्थापित किया। उनकी कार्य करने की विशिष्ठ पद्धति है। कार्यारंभ होने तक उसका प्रचार नहीं करना, तथा कार्य विस्तार होने के पश्चात प्रचार की चिंता करने की जरूरत नहीं। (क्योंकि वह अपने आप होता है) यह उनकी कार्यशैली है।

      विश्व प्रवास

      श्री दत्तोपंत जी ठेंगडी 1964 से 1976 तक राज्यसभा के सदस्य थे। 1968 से 1970 तक वे राज्यसभा उपाध्यक्ष मंडल के सदस्य थे। अभी तक लगभग 30 से अधिक देशों का उन्होंने प्रवास किया है। 1993 में ‘‘वर्ल्ड व्हिजन 2000’’ में वाशिंगटन में किये भाषण ने पूरे कार्यक्रम पर एक अमिट छाप छोड़ी । 4-5 जुलाई, 1995 को दक्षिण अफ्रीका स्थित डरबन शहर में आयोजित ‘‘विश्व हिंदु सम्मेलन’’ में दत्तोपंत जी का प्रमुख भाषण हुआ। दक्षिण अफ्रीका के दूरदर्शन ने दत्तोपंत जी की मुलाकात आयोजित की।

        ‘‘लंदन स्कूल ऑॅफ इकोनोमिक्स’’ में भाषण देना, पेपर पढना, यह प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है। उसे पाश्चिमात्य अर्थशास्त्रज्ञों की काशी माना जाता है। नागपूर के डॉ. मा. गो. बोकरे द्वारा ‘‘हिन्दू इकॉनोमिक्स’’ नामक ग्रंथ लिखा। उसमें उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि ‘‘अर्थशास्त्र का मूलभूत चिंतन युरोप में प्रारंभ हुआ’’ यह मान्यता पूर्णतया असत्य है। वास्तविक रूप में भारत में अर्थशास्त्र का अभ्यास, चिंतन वेदकाल से ही चल रहा है। हिंदू इकॉनोमिक्स के लेखक पूर्व में कट्टर साम्यवादी विचारों के थे। किंतु उनके इस पुस्तक का प्रथम प्रकाशन रा. स्व. संघ के केन्द्रीय कार्यालय नागपुर में तत्कालीन सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस द्वारा किया गया। आगे चलकर इसी ‘‘हिंदु इकॉनोमिक्स’’ पुस्तक का ‘‘लंडन स्कूल ऑफ ऐकॉनोमिक्स’’ में मा. दत्तोपंत ठेंगडी जी द्वारा प्रकाशन हुआ, यह उल्लेखनीय घटना है।

        प्रसिद्धि परांगमुख

        जिनकी ध्येय पर अविचल निष्ठा होती है, जिसके अंगीकृत कार्य की महत्ता रहती है, उन्हे प्रसिद्धि की महत्ता मर्यादित प्रतीत होती है। क्योंकि प्रसिद्धि वर्षा के समान होती है। बारीश ज्यादा होती है तो गीला, एवं वर्षा नहीं होती है तो सूखा अकाल पडता है। यही नियम प्रसिद्धि के लिए लागू होता है। दत्तोपंत जी की धारणा यह है कि, विश्व में विविध प्रकार के जीवन मूल्य है। राष्ट्रजीवन पर विधायक परिणाम एवं प्रभाव डालने का काम चतुराई से नहीं किया जा सकता है। केवल पद प्राप्त कर या स्थान की महत्ता के चलते मिलने वाला बडप्प्पन वास्तविक रूप में बडप्पन नहीं होता है। किसी व्यक्ति का बडप्पन, किसी पद या स्थान पर निर्भर नहीं रहता, तो उसका आधार उस व्यक्ति की आंतरिक योग्यता, कार्य, विचार, एवं व्यवहार ही मानदंड होता है।

        ऐसे व्यक्ति में विनम्रता, श्रेय लेने से दूर रहने की प्रवृत्ति, खुद का नामोल्लेख न करने की वृत्ति दिखाई देती है। उसको अंग्रेजी में ‘‘सेल्फ निगेशन’’ कहते है। पूर्व में उल्लेख किये अनुसार दत्तोपंत जी आपातकाल में निर्मित लोक संघर्ष समिति के अंतिम महासचिव थे। उस समय हुये संघर्ष की जानकारी आने वाली पिढीयों को हो, ऐसा विचार सामने रखकर ‘‘आपातकालीन संघर्ष की गाथा’’ नामक पुस्तक लिखी गई। इन संघर्ष में किन किन व्यक्तियों ने किस प्रकार योगदान दिया इस संबंध में स्मरणपूर्वक नामोल्लेख किये है। केवल मा. दत्तोपंत ठेंगडी का नामोल्लेख पूरे पुस्तक में होने नहीं दिया ।

        भारतीय संस्कृति का प्रतीक

        श्री दत्तोपंत ठेगडी जी का योगदान बहुत बडा है। उन्होंने सैकडों पुस्तकें लिखी है। वह ‘‘मौलिक विचारधन है’’ । उनके विचार-जगत को दत्तोपंत ठेंगडी के सचिव एवं जानकी प्रकाशन के संचालक श्री रामदास पांडे द्वारा प्रकाशित किया गया है। दत्तोपंत द्वारा लिखित ‘‘थर्ड वे’’ इस पुस्तक को हाल ही में 14 अक्टुबर, 1995 को ‘‘अन्नत गोपाल शेवडे’’ पुरस्कार प्राप्त हुआ है। इस समारोह में उपराष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन द्वारा ठेगडी जी के संबंध में भावनाये व्यक्त की गई वह महत्वपूर्ण है। उन भावनाओं के प्रकटीकरण से ठेंगडी जी के जीवन कार्य एवं व्यक्तित्व का गौरव होता है । उपराष्ट्रपति श्री नारायणन ने कहा, ‘‘दत्तोपंत के जीवन पटल पर नजर डालने से वे कौनसे प्रांत के है, यह समझना कठिन है। वे केरल के है, या बंगाल के, या पंजाब के? वे भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि है, ऐसा मुझे लगता है।’’ उपराष्ट्रपति द्वारा व्यक्त इन भावनाओं को वसंतराव देशपांडे सभागृह में उपस्थित श्रोतृवृंद ने तालियों की गड़गड़ाहट कर प्रतिसाद दिया, उसी मेें सबकुछ समा गया।

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