(‘पॉलिटिकल डायरी’ नाम से पं० दीनदयाल उपाध्याय के लेखों के संग्रह का प्रकाशन दि० १७ मई, १९६८ को बम्बई में श्री गुरुजी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ था । उस अवसर पर श्री गुरुजी द्वारा दिया गया भाषण यहां प्रस्तुत है ।)
पं० दीनदयाल जी ने ‘पोलिटिकल डायरी’ नाम से अंग्रेजी साप्ताहिक ‘आर्गनाइजर’ में जो लेख लिखे हैं, उसी नाम से पुस्तक के रूप में वे प्रसिद्ध हो रहे हैं । उस पुस्तक को सबके सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए मेरी जो योजना हुई है, वह बहुत योग्य है ऐसा अपने मित्रवर श्री राम बत्राजी ने बताया । उन्होंने ‘पर्टिनंट’ (प्रसंगोचित) शब्द का प्रयोग किया । उसी शब्द का प्रयोग कर मैं कहता हूं कि मेरे लिए यह काम ‘इंपर्टिनंट’ (अनधिकार) होगा । कारण भी बताता हूँ ।
अपने देश के एक अति श्रेष्ठ पुरुष के बारे में ऐसा कहा जाता है कि एक बार एक वृद्ध सज्जन उनसे मिलने गए । वे श्रेष्ठ पुरुष देश के मान्यता प्राप्त, बहुत प्रसिद्ध, जनसाधारण के नेता थे । भेंट होते ही उन्होंने उक्त वृद्ध सज्जन को अतीव नम्रतापूर्वक प्रणाम किया । जब लोगों ने पूछा, तो उन्होने बताया कि ये वृद्ध सज्जन प्राथमिक शाला में उनके गुरु थे । उन्होंने ही पढ़ाया और आशीर्वाद दिया कि बुद्धिमान बनो । उन्ही के आशीर्वाद से वे बड़े बने हैं । वे अध्यापक जानते थे कि उनकी योग्यता केवल प्राथमिक शाला में पढ़ाने की थी और ये श्रेष्ठ पुरुष जितने विद्वान हुए, जितनी श्रेष्ठता उन्होंने प्राप्त की, उतनी विद्वत्ता, श्रेष्ठता प्रदान करने की क्षमता उनके अन्दर नहीं थी । मेरा भी पण्डित दीनदयाल से जो कुछ सम्बन्ध आया, वह उस प्राथमिक शाला के शिक्षक के रूप में ही समझना चाहिए, उससे अधिक नही ।
अब यह लेख-संग्रह है । डॉ० सम्पूर्णानन्द जी जैसे ख्यातनाम विद्वानऔर देश की राजनीति के अग्रगण्य पुरुष ने प्रस्तावना लिखकर इस लेख-संग्रह की महत्ता को बहुत बढ़ाया है । मुझे इसका समाधान भी है कि डा. सम्पूर्णानन्द जी ने एक बहुत ही अच्छी परम्परा का अनुसरण किया है। जनतन्त्र का उदय इंग्लैण्ड में हुआ । वहाँ के जनतन्त्र के एक बहुत बड़े समर्थक ने कहा है, ”मेरे विचारों से विपरीत विचार व्यक्त करने का तुम्हें अधिकार है, यह मैं मानता हूँ और केवल इतना ही नहीं, तो तुम्हारे इस अधिकार का मैं समर्थन और रक्षण करूँगा । ”आय विल डिफेंड यूअर राईट ।” यह जो भाव है वह जनतन्त्र की सफलता के लिए अनिवार्य है । मैं समझता हूँ कि डॉ० सम्पूर्णानन्द जी ने इसी शुद्ध भावना से प्रेरित होकर प्रस्तावना का यह उपक्रम किया है ।
इस संग्रह में जितने लेख हैं, वे मैंने शायद ही पढ़े होंगे । मैं वृत्तपत्र पढ़ने में बहुत कच्चा हूँ । कभी-कभार दिखाई दे गया तो पढ़ लेता हूं- जो भी हाथ लग जाए । एक बार एक वृत्तपत्र पढ़ रहा था । लोगों ने पूछ लिया-क्या पढ़ रहे हो? मैंने कहा क्या हुआ? तो उन्होंने बताया कि यह तो तीन माह पुराना है! फिर, मेरा दुर्भाग्य यह है कि देश के हित की दृष्टि से जो आवश्यक हो, देश के लिए कोई अहितकर बात हो, सावधान करने वाली घटना हो, उसी पर पहले मेरी दृष्टि पड़ जाती है । लोग कहते हैं-तुम दोष देखते हो । बात सच भी है । अब इस संग्रह में जो छपा है वह मैंने देखा । बिलकुल प्रारम्भ में डॉ० सम्पूर्णानन्द जी के प्राक्कथन में संस्कृत का जो उद्धरण है, उसे देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए । कारण यह कि वह ठीक नहीं छपा । ऐसा दिखाई देता है कि अंग्रेजी छापे-खाने का यह गुण ही है कि संस्कृत वचनों को वे अवश्यमेव गलत छापेंगे । पता नहीं ऐसा क्या विधिलिखित है?
मूलगामी विचारों के अम्यासक
आज के इस कार्यक्रम का प्रबन्ध करने वाले एक महानुभाव ने इस लेख-संग्रह की कच्ची प्रतिलिपि मुझे दी थी । यह सोचकर कि बुद्धि में अन्धकार रखकर खड़े होना योग्य नहीं, मैंने यहाँ से राजकोट जाते समय और वहाँ से विमान से यहाँ आते समय पूरी पुस्तक पढ़ ली । पुस्तक में अनेक विषय तो तात्कालिक ही हैं, परन्तु हमारे दीनदयाल जी की एक विशेषता यह थी कि तात्कालिक विषय को भी एक स्थायी सैद्धान्तिक अधिष्ठान देकर वे लिखा करते थे, बोला करते थे । केवल तात्कालिक बात कहकर उसे छोड़ देना उनका स्वभाव नहीं था । कई वर्षों तक निकट सहकारी के नाते मैं उन्हें जानता रहा हूं । मुझे पता है कि वे मूलगामी -विचारों के अम्यासक थे । तात्कालिक समस्या पर बोलते या लिखते समय भी, उसके पीछे कोई न कोई चिरंतन सिद्धान्त है, इसका विचार कर उसके अधिष्ठान पर ही वे शब्द प्रयोग किया करते थे ।यह ठीक है कि राजनीतिक विरोधी दल के कार्यकर्ता-नेता के नाते शासनारूढ़ दल के अनेक कार्यों पर, उनकी नीतियों पर उन्होंने टीका टिप्पणी की है । कभी-कभार कुछ व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी कोई बात न आई हो, ऐसा भी नहीं । परन्तु उनके लेखों को हम सहृदयता से देखेंगे, तो दिखाई देगा कि टीका टिप्पणी करते समय भी उनके समूचे हृदय में किसी दल और किसी व्यक्ति के प्रति किसी प्रकार के अनादर की, दूरता की भावना नहीं थी । जो कुछ लिखा है वह आत्मीयता से लिखा है । आत्मीयता इसलिए कि कोई भी दल हो, अपने ही यहाँ का क्यों न हो, यदि अनिष्ट मार्ग से चलता है, तो दल का जो भला-बुरा होने वाला हो वह तो होगा ही, परन्तु अन्ततोगत्वा देश का ही नुकसान होता है । विभिन्न दलों में काँग्रेस कहें, सोशलिस्ट-प्रजा सोशलिस्ट कहें, जनसंघ, हिन्दू सभा या राम-राज्य परिषद कहें, सभी दलों में लोग तो अपने ही हैं । अपने लोग यदि कोई त्रुटि, कोई भूल करते हैं, अनिष्ट नीतियां अपनाते हैं, कोई कृति करते हैं जो देश के लिए लाभकारी न हो, तो उसके सम्बन्ध में बोलना, सचेत करना देश की भलाई के लिए आवश्यक ही रहता है ।
प्रधानमन्त्री : देश की सीमाओं से अनभिज्ञ
जिसे आजकल राजनीति बोलते हैं याने दलगत, उसके सम्बन्ध में मैं कुछ जानता नहीं । देश, राष्ट्र और समाज की सब प्रकार की श्रेष्ठता, सुरक्षा, उसका सम्मान आदि से जिसका सम्बन्ध होता है, उसी के सम्बन्ध में मैं बोलता हूँ । उदाहरण बताना हो तो कच्छ का जो मामला हुआ है, उसे ही ले । इसके सम्बन्ध में बोलते समय अपने प्रधानमन्त्री ने कहा, ”अंग्रेज गए तो उन्होंने हमको बताया नहीं कि देश की सीमा क्या है । इसलिए कच्छ का यह हिस्सा हमारा था या नहीं – यह हमको पता नहीं ।” यह अब मैंने पढ़ा तो मुझे अतीव दुःख हुआ कि अपने देश का प्रधानमन्त्री अपने देश की सीमा नहीं जानता । इसलिए मैंने कहा कि जिसको देश की सीमा ही मालूम नहीं वह अपना घरबार बसाए तो इसमें कोई प्रत्यवाय नहीं, परन्तु प्रधानमन्त्री के दायित्वपूर्ण पद पर उसे नहीं रहना चाहिए । देशभक्ति की यह माँग है कि वे स्वयं त्यागपत्र दें और देशभक्ति की ही यह माँग है कि यदि वे त्यागपत्र न दें तो मन्त्रिमण्डल के उनके जो सहयोगी हैं वे उनसे अपना स्थान छोड़ने की प्रार्थना करें । यह बड़ा लाभदायक होगा । इससे देश के भीतर अच्छा वायुमण्डल उत्पन्न करने में सहायता भी होगी। मैं जानता हूँ कि मैंने जब यह कहा, तो इससे काफी लोग नाराज हुए । कुछ लोगों ने कहा कि ये राजनीतिक बात करते हैं ।
शासन कोई भी चलाए
शासन कांग्रेस चलाती है या और कोई चलाता है इससे मुझे कोई सुख-दुःख नहीं । शासन अच्छा चलता है, देश की रक्षा होती है, जनसाधारण सुरक्षा अनुभव करते हैं, सुख की वृद्धि होती है, आत्मविश्वास, राष्ट्रभक्ति आदि पवित्र गुणों का विकास होकर सर्वसाधारण मनुष्य चारित्र्य सम्पन्न, शीलसम्पन्न, आत्मसमर्पण की भावना से युक्त बनता है, इसमें मेरी रुचि है । मुझे इसमें कोई रुचि नहीं कि वहाँ कुर्सी पर कौन बैठता है ।
शिखर पर बैठने की सबकी इच्छा होती है, परन्तु मैंने कहा कि भाई शिखर पर बैठने की इच्छा क्यों हो! बड़े-बड़े मन्दिरों के शिखर पर तो कौवे भी बैठते हैं । हमें तो, उस नींव का पत्थर बनने की आकांक्षा करनी चाहिए जो अपने कन्धों पर मन्दिर को भव्य स्वरूप देता है । इसलिए जहां ऐसे गुणों का विकास दिखाई देता है, वहाँ मुझे सन्तोष होता है । अपने स्वदेशी लोगों द्वारा चलाया हुआ राज्य जब तक रहेगा तब तक हम तो तुलसीदास जी के वचन में यह कहेंगे-‘कोउ नृप होऊ हमहि का हानी’ । अर्थात् विदेशी नही चलेंगे । परकीय, आक्रमणकारी, राष्ट्रविरोधी नहीं चलेंगे । स्वकीय कोई भी हो, अपने ही हैं । आनन्द से बैठें । हमें उसमें क्या चिन्ता है । परन्तु मन को खटकने वाली, राष्ट्र की दृष्टि से अपमानकारक कोई बात दीखती है, तो उसका उल्लेख करना मेरा धर्म है । इसमें राजनीति वगैरह की कोई झंझट नहीं । और जब कोई ऐसा कहता हो, तो कहना चाहिए कि उसे राजनीति समझती ही नहीं । बेकार ही राजनीतिक दल में काम करता है ।
युधिष्ठिर की परम्परा के अनुगामी
पं० दीनदयाल जी एक विरोधी दल के प्रमुख व्यक्ति थे । उनका: तो यह कर्तव्य ही था कि जो अनिष्ट दिखे, जो-जो कुछ त्रुटिपूर्ण दिखाई दे, उसके विषय में अपने मत वे असंदिग्ध शब्दों में प्रकट करें । यह उन्होंने किया भी । परन्तु उनके सब लेखों को देखें, तो हमें दिखाई देगा कि उनके हृदय के अन्दर कोई कटुता नहीं थी । शब्दों में भी कटुता नहीं थी । बड़े प्रेम से बोला करते । मेरा तो बहुत सम्बन्ध था । कभी किसी पर जरा भी नाराज नहीं हुए । बहुत खराबी होने पर भी खराबी करने बाले के प्रति अपशब्द का प्रयोग नहीं किया । वे युधिष्ठिर के समान थे । दुर्योधन में दुराक्षर था इसलिए वे ‘दुर्योधन’ नहीं ‘सुयोधन’ कहा करते थे । दीनदयाल जी भी इसी परम्परा के थे । इसीलिए उनमें कटुता दिखाई नहीं दी । शब्दों में नहीं, हृदय के अन्दर नहीं, वाणी में भी नहीं । इस पुस्तक में हमें उसका प्रत्यय मिलेगा ।
प्रजातन्त्र : कम दोषों वाली राज्य-पद्धति
अपना यह जो जनतान्त्रिक ढांचा है, वह एक विशेष प्रकार का है । अंग्रेजों के सम्पर्क में आने के कारण उन्होंने जैसी प्रजातन्त्र की पद्धति अपनाई, विकसित की, उसी को हमने ग्रहण किया, उसी का अनुसरण किया । स्वयं हमने तो यह पद्धति बनाई नहीं । लोग कहते हैं कि आजकल की यही सर्वश्रेष्ठ पद्धति है और राज्य चलाने की जो भिन्न-भिन्न पद्धतियाँ हैं उनमें से यह पद्धति अन्तिम सत्य के रूप में प्रकट हई है । ‘ब्रह्म सत्य’ कहा तो लोग कहते हैं कि इसको अन्तिम सत्य मत मानो, इस विषय में कुछ और संशोधन करो । ‘ब्रह्म’ के बारे में इस प्रकार का तर्क करने वाले लोग ही ‘प्रजातन्त्र’ के बारे में ऐसा कहते है कि राज्य चलाने की जो भिन्न-भिन्न पद्धतियां हैं, उनमें यह पद्धति अन्तिम सत्य के रूप में प्रकट हो गई है ।
राज्य चलाने की और भी भिन्न-भिन्न पद्धतियां हैं । सामान्य व्यवहार के क्षेत्र में जहाँ कोई चीज कभी भी स्थायी नही रहती, नित्य बदलती रहती है वहाँ यही एक पद्धति अन्तिम है, सत्य है- यह बात जँचती नही । इसके बारे में कोई यह कह नहीं सकता कि यही एक श्रेष्ठ है! फिर भी आज हम लोगों ने यह मान लिया है कि यह अच्छी है । अपने सामने चलने वाली अन्य विभिन्न पद्धतियों की तुलना में इसमें दोष कम हैं । कुछ दोष तो अवश्य ही हैं। परन्तु कम से कम हैं । दोष हों भी, तो उनको दुरुस्त करने की कुछ सम्भावना भी रहती है । इसीलिए यह अच्छी है । परन्तु अच्छी कब है? वह अच्छी तभी है, जब, उसके जो पथ्य हैं, उन्हें समझकर तदनुसार हम सब लोग मिलकर व्यवहार करने के लिए कटिबद्ध हो । यदि किसी ने कहा कि अन्य लोग पथ्यों का पालन करें, मैं नहीं करूंगा; कोई कहे कि वह इस पद्धति को भी नहीं मानता, देश को भी नहीं मानता, तब तो यह बड़े खतरे की बात है । इसी बात का विचार कर पं० दीनदयाल जी ने जनतन्त्र के विषय में अपना मत प्रकट किया है, कुछ गुण बताए हैं । यह बताया है कि मताधिकार का प्रयोग कैसे करना चाहिए । उसमें कुछ अंश तो अपने दल के प्रचार का है । इसमें कोई दोष भी नहीं, क्योंकि कोई भी आदमी अपने दल का प्रचार तो करेगा ही । परन्तु इसके साथ ही उन्होंने स्थायी सिद्धान्त भी दिए हैं जो सदा के लिए, सभी दलों और सभी दलों के सभी व्यक्तियों के लिए हैं । सम्पूर्ण समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इन पर विचार करना चाहिए । सफल प्रजातन्त्र के लिए यह आवश्यक है, लाभदायक है ।
विचारों का खाद्य
आर्थिक समस्या, पंचवर्षीय योजना आदि की दृष्टि से भी इसमें अनेक प्रकार के विचार दिए गए हैं । मेंने पढ़ने का प्रयत्न किया । इसमें राजनीति है, अर्थनीति भी है । इनके विषय में मैं कुछ बोल नहीं सकता, परन्तु इतना कह सकता हूँ कि अत्यन्त मनन से, देश का ही भला हो, इस प्रकार हृदय से गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद जो मत बने; वे ही इन लेखों में उन्होंने अभिव्यक्त किए हैं । सब लोग यदि थोड़ा-सा पठन करेंगे तो विचार के लिए कुछ खाद्य मिलेगा, स्वतन्त्र रूप से विचार की अनुकूलता प्राप्त होगी, देश के सम्पूर्ण जनतान्त्रिक ढांचे में अपनी ओर से भी कुछ योगदान करने की अपनी क्षमता बढ़ेगी ।
असामान्य कर्तृत्व
उनके व्यक्तिश: सम्बन्ध में मैं कुछ बोलूंगा नही, अभी तक मैंने कुछ कहा नहीं । मुझे बहुत ही दुःख होता है । वे संघ के एक प्रचारक थे । मैं संघ का एक स्वयंसेवक हूँ । संघ याने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ । उसका कुछ उत्तरदायित्व लोगों ने मुझ पर रखा है । इस कारण उनसे अपना एक प्रचारक के नाते मेरा सम्बन्ध था । अब तो मैं ‘पण्डित जी’ वगैरह कहता हूँ, क्योंकि सर्वमामान्य समाज में उन्होंने जो प्रतिष्ठा प्राप्त की, उस नाते मुझे वैसा कहना चाहिए । परन्तु वह एक बालक एक विद्यार्थी इस नाते बढ़ा । केवल बढा ही नही, तो बड़ा हुआ । इस प्रकार का हमारा सम्बन्ध था । मेरे सामने देखते-घूमते चला गया । मैं उससे १०-१२ साल बड़ा हूँ । वह गया बिलकुल तारुण्य में । इसका दुःख है ।
कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि वह संघ का प्रचारक था तो अच्छा था । हमारे स्व० डॉ० श्यामाप्रसाद एक बार मेरे पास आए और उन्होंने कहा, ”मैं राजनीति का एक दल चलाता हूं । मुझे कुछ कार्यकर्ता दो ।” इस पर हमारे सब मित्रो ने कहा कि ”दीनदयाल अच्छा आदमी है । उनको एक अच्छा आदमी चाहिए । डा. श्यामाप्रसाद से अपना निकट सम्बन्ध है, तो उनको एक सहयोगी देना कठिन नहीं है ।” इसलिए उनसे कहा कि अच्छा, दीनदयाल आपको देते हैं । उन्हें वह प्राप्त हो गया ।
जनसंघ की वृद्धि से हम समझ सकते हैं कि उन्हें कितना बड़ा कार्यकर्ता प्राप्त हुआ । थोड़े ही समय में उसने जो प्रतिष्ठा कमाई, एक नाम कमाया, उससे हम समझ सकते हैं कि उसमें कितना कर्तृत्व था ।
समय से पूर्व ही चला गया
मैं जानता था कि वह कर्तृत्ववान है । मैं जानता था कि वह गुणवान है, बुद्धिमान है । मुझे इस बात का भी प्रत्यक्ष अनुभव था कि संघ के प्रचारक के नाते वह संगठन के शास्त्र में कुशल है । मैं यह भी जानता था कि अपनी मधुर वाणी, स्निग्ध व्यवहार और सब प्रकार के मानसिक-बौद्धिक सन्तुलन से उस क्षेत्र में वह असामान्य स्थान प्राप्त करेगा । देश में तो उसे बहुत बड़ा स्थान प्राप्त हो चुका था । और भी बड़ा स्थान मिल सकता था, मिलने वाला था । मुझे दुःख यही होता है कि जगत में सामने आने, असामान्य स्थान प्राप्त करने के पहले ही वह चला गया। जगत में भी उसका नाम हमेशा के लिए स्मरण रह सके, ऐसा बनने के पहले ही वह चला गया ।
जो ईश्वर को प्रिय होते हैं
अपने घर का लड़का बुद्धिमान हो, होशियार हो, खूब उत्तम रीति से परीक्षा उत्तीर्ण हो रहा हो, जिधर-उधर नाम कमा रहा हो, ऐसा लड़का चट से चला जाए तो माँ-बाप को कैसा दुख होता है? आपमें से बहुतांश परिवार चलाने वाले लोग हैं । आप उसकी कल्पना कर सकते हैं। मैं परिवार नहीं चलाता, इसलिए मेरी जो दुःख की भावना है वह शतगुणित है । इसीलिए उसके वैयक्तिक सम्बन्ध में कुछ नहीं कहूंगा । इतना ही कहूँगा कि ईश्वर ने ले लिया है । अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत मैंने पढ़ी है कि ”दोज हूम गॉड लव्हज डाय यंग” । भगवान् को शायद उसपर अतीव प्रेम था, इसी कारण हम लोगों के प्रेम की अवहेलना कर के वह उसे उठा कर ले गया ।
जांच हृदय से नहीं हुई
जिस प्रकार से वह गया, जिस प्रकार की वह घटना है, वह भी दुःख-कारक है । उसका कोई पता नहीं लगा सका, यह और भी दुःखकारक और लज्जास्पद है । इस मामले में जो कुछ हुआ है, उसकी मुझे पहले ही आशंका थी । उसके शरीर का दर्शन करने के लिए मैं वाराणसी गया था । पोस्टमार्टम के स्थान पर उसका शरीर देखा और बाहर आ गया । मित्रों से मेंने कहा- ”भाई देखो, इसका जो ‘इन्वेस्टिगेशन’ है, इट विल बी साईड ट्रेक्ड, बी अवेयर, टेक केयर ।” (इसकी जो जाँच होगी वह मार्गभ्रष्ट कर दी जायेगी, इसलिये सावधान रहो और हर तरह की सावधानी बरतो ।)
मित्रों ने कहा, ”ऐसा क्यों कहते हो? ” परन्तु चारों ओर देख कर मेरे हृदय में यह निश्चित आभास हो गया था । मुझे ऐसी पूर्वसूचना अनेक बातों की मिलती है । ऐसी ही यह पूर्वसूचना मेरे हृदय की थी । किसने किया होगा; नाम तो कहने की मेरी शक्ति नहीं है, परन्तु किन क्षेत्रों से यह हुआ है-इसकी भी पूर्वसूचना मेरे अन्तःकरण में है । मेरे हृदय का यह परिपूर्ण विश्वास है कि अभी जो कुछ चल रहा है, वह तो उस पर परदा डालने के लिए ढकोसला खड़ा किया जा रहा है । परन्तु मैं तो कुछ कर नहीं सकता । मैं कोई ‘इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर’ तो हूँ नहीं और न कोई सरकारी अधिकारी हूँ । यह व्यथा मात्र मैं प्रकट कर देता हूँ कि जाँच-पड़ताल हृदय लगाकर नहीं हुई है और ऐसा लगता है कि जाँच-पड़ताल को मार्गभ्रष्ट करने का प्रयास भी किया गया ।
मैं समझता हूँ कि यह ठीक नहीं है । आज एक दल का गया, यह दुर्भाग्य अन्य दलों पर नहीं आएगा यह कोई कह सकता है क्या? इसलिए उसका वहीं पर याने प्रथम स्थिति में ही प्रबन्ध किया जाना चाहिए । योग्य रूप से पता लगाकर, इसके लिए अगर कोई दल, कोई समाज अथवा व्यक्तिसमूह अपराधी दिखाई दे, तो उसे कठोर रीति से दण्डित कर एक ऐसा वायुमण्डल उत्पन्न करना आवश्यक है, जिससे फिर कभी कोई खराब माथे का व्यक्ति या व्यक्ति-समूह, अपने देश का जनतन्त्र चलाने वाले किसी भी दल के किसी भी व्यक्ति पर हाथ उठाने का साहस न कर सके । ऐसा वायुमण्डल बनाना सभी का कर्तव्य है, शासन का तो वह धर्म है । वह नहीं हुआ, इसका दुःख है ।
रोने के लिए समय कहाँ ?
परन्तु ‘गतं न शोच्यं’ आगे का सोचो । मैं रोते नहीं बैठा, कभी बैठूंगा भी नहीं । परन्तु अन्य कार्यकर्ता उसके शरीर को देखते ही कटे पेड़ की तरह हो गए । गिरते हुए इन कार्यकर्ताओं को पकड़ कर मैंने कहा-
”क्या कर रहे हो, भाई? आप तो एक कार्य के पीछे लगे हुए हो । रोने के लिए समय किसके पास है? अपने पास समय नहीं । शरीर जब कार्यक्षम नहीं रहेगा, कार्य की वृद्धि नहीं कर पाएंगे, तब बुढ़ापे में और मृत्युशय्या पर जितने भी दुःख हैं उनके लिए रो लेंगे । अभी रोने के लिए समय नहीं है । यह तो काम का समय है ।”
दीनदयाल कोई अन्तिम नहीं है
इसलिए हमें सोचना चाहिए कि गया तो जाने दो । एक गया तो क्या होता है । यह तो बहुरत्ना वसुन्धरा है हमारी । हमारे समाज ने एक के बाद एक कितने ही असामान्य पुरुष पैदा किए हैं । दीनदयाल कोई अन्तिम नहीं है । वैसे पुनः उत्पन्न हो सकते हैं, ऐसा विश्वास दिलाने वाली एक विभूति इस नाते से वह अपने सामने है । इसी आश्वासन के साथ, हम अपने अन्तःकरण में यह आशा और विश्वास लेकर चलें कि अपनी लगन से, अपनी ध्येयनिष्ठा से, अपने प्रयत्नों से अपने समाज मे एक से एक बढ़कर कार्यकर्ता फिर से खड़े होंगे । विचार करने वाले खड़े होगे । व्यक्तिगत परिवार-संसार की सब चिन्ताओं को छोड़कर केवल राष्ट्र का ही परिवार चलाने की दृढ़ता हृदय के अन्दर लेकर चलने वाले और जिन्हें त्यागमूर्ति न भी कहा जाए, परन्तु जो त्याग के परिपूर्ण रूप हों, इस प्रकार के लोग खड़े होंगे । इसके लिए प्रयत्न करना अपना प्रथम कर्तव्य है । हृदय के अन्दर ऐसा दृढ़ विश्वास लेकर हम लोग चलें, तो ऐसा समझा जाएगा कि उनके स्मारक इत्यादि की दृष्टि से हम लोगो ने अच्छा कार्य किया ।
साभार संदर्भ |
‘पॉलिटिकल डायरी’ नाम से पं० दीनदयाल उपाध्याय के लेखों के संग्रह का प्रकाशन दि० १७ मई, १९६८ को बम्बई में श्री गुरुजी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ था । उस अवसर पर श्री गुरुजी द्वारा दिया गया भाषण यहां प्रस्तुत है । |