Contact us

Edit Template

सर्वांगीण उन्नति – गोविंद कृष्ण भुस्कुटे

  • भाउसाहब भुस्कुटे

अपने हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति का लक्ष्य सम्मुख रखकर उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अपने समाज को संगठित करने की दृष्टि से परम पूजनीय डॉ. हेडगेवारजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। उस समय हम पराधीन थे। सर्वांगीण उन्नति के लक्ष्य के अन्तर्गत राष्ट्र को स्वतन्त्र करने का भी समावेश होता है, क्योंकि स्वतन्त्र राष्ट्र हो संसार में सम्मान प्राप्त करता है । यद्यपि स्वतंत्रता प्राप्त करना इस समय तात्कालिक अनिवार्य आवश्यकता थी तथापि हमने सदैव ऐसा सोचा कि स्वाधीनता प्राप्त करना राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के लक्ष्य की पूर्ति में एक मील का पत्थर है, चढ़ने की एक सीढी है । गन्तव्य इसके आगे है । इसलिए स्वाभाविक रूप से अपने राष्ट्र के स्वतंत्र होते के पश्चात् भी इस कार्य की आवश्यकता रही है और आगे भी रहेगी। पिछले तीस वर्षो के स्वतंत्र जीवन में हमने यही अनुभव किया है और विशेष रूप से उस समय जब सारे देश पर आपात्‌काल व्यर्थ ही लादा गया हमें और सारे समाज को भी इस आवश्यकता की पहली अनुभूति हुई है ।

प्राप्त हुआ है-“ए बून इन डिसगाइस” जिसे अंग्रेजी में कहते हैं। उस समय के शासनारूढ दल के विरोधी लोग, जो हमारे बारे में गलत धारणायें लिए हुए थे, उनका हमसे संबंध आया और  सहवास में उन्होंने का अनुभव किया कि यथार्थ में संघ के लोग बहुत अच्छे हैं। यों तो पहले भी कहते थे परंतु उस समय अच्छे हैं ऐसा कहते समय हमेशा वे  ऐसा कहते थे कि संघ का कार्यकर्त्ता स्वयंसेवक व्यक्तिगत रूप से वो बड़ा अच्छा रहता है परंतु जहां कहीं वह समूह के रूप में या सांघिक रूप में प्रस्तुत होता है, वहाँ यह खराब रहता है। वस्तुतः यह न समझने वाली बात है। पानी का एकेक बूंद यदि शुद्ध है, स्वच्छ है तो बूंदों को मिलाकर  ग्लास में जो पानी इकट्ठा होगा वह भी स्वच्छ ही रहेगा। फिर भी वे कहते ही थे।

 जब जेल में और जेल के बाहर भी उन लोगों से बड़े घनिष्ठ संबंध आए समय पर दोनों ने, इन्होंने और हमने भी, इस बात का अनुभव किया कि यथार्थ में यदि कहीं मतभेद हो तो प्रतिशत चार-पांच है बाकी पचानवे प्रतिशत सहमति है और इसलिए उन लोगों ने हमको अपनाया था। और विशेष रूप से मनुष्य-निर्माणकारी अपना कार्य होने के कारण आपात्काल में हमारा यह कार्य प्रभावी रहा इसलिए भी उन्हें अपना लोहा मान्य करना पड़ा।

केरल के एक मार्क्सिस्ट कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ने आपातकाल में ही अपने एक कार्यकर्ता से कहा कि “भाई, अभी तक तो हम लोग, लोगों को एकत्रित करने के लिए प्रलोभन देते रहे जैसे कि तुम्हारी मजदूरी बढ़ा देंगें, तुम्हारा कार्य का समय कम करेंगे, अमुक सहूलियत देंगें, तमुक सहुलियत देंगे। इस प्रकार से लोगों को हम एकत्रित करते रहे। निष्काम भावना से और अहैतुक किए जाने वाले आपके संघ कार्य की मखोल-मजाक करते रहे, परंतु अब हम इस बात का अनुभव करते हैं कि जो आपत्ति बीती उस समय पर हमसे कुछ लाभ नहीं पहुंचता, इसलिए वे सारे लोग हमसे दूर हो गए। आपत्ति के समय हम लोगों का साथ देने के लिए वे तैयार नहीं । परंतु आप का कार्य निष्काम होने के कारण आपके अनुयायियों ने आपका साथ दिया। अब हमको भी हमारे कार्य और कार्य पद्धति के बारे में विचार करना होगा।”

यह स्पष्ट रूप से उन्होंने स्वीकार किया । अपनी ऐसी कौन सी विशेषता है जिससे हम आपातकाल की परीक्षा में खरे उतरे ? उसका एक मात्र कारण यह कि राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के लिए प्रमुख आधार मनुष्य निर्माण है, इस बात को हमने समझा । वास्तविक रूप में राष्ट्र की उन्नति तो सभी करना चाहते हैं, सबकी इच्छा है, परंतु इसको जो सम्यक रचना चाहिए, ज्ञान चाहिए, उस ज्ञान का समाज में अभाव है । और वस्तुत: इसी कारण वे हमारा मखोल करते हैं। आपात्काल के समय का शासनारूढ़ दल हमारे ध्येय और कार्यपद्धति के विषय में टीका टिप्पणी करता ही था, पहले भी करता था और अभी भी करता रहता है, किंतु उस समय के शासनारूढ़ दल के विरोधी लोग, जो उस समय सहमति दिखाते थे, वे भी आज विरोध में बोलने लगे हैं। उसका एकमात्र कारण यह कि राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति की सम्यक कल्पना उनके सामने नहीं थी और नहीं है ।

हम चाहते हैं कि हमारे राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति हो । वैसे देखा जाए तो यह लक्ष्य प्रायः सभी सामाजिक एवं राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं के सम्मुख रहता है। परंतु हमारी सर्वांगीण उन्नति की कल्पना की एक विशेषता है और उसी प्रकार से उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए हमारे द्वारा अपनाए गए मार्ग की भी अपनी एक विशेषता है। अतः इस लक्ष्य को और इस मार्ग को हमें समझना होगा । इस दृष्टि से मुझे ऐसा लगता है कि यदि एक व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का उदाहरण अपने सामने रखें तो समझना सरल होगा ।

जब हम यह कहते हैं कि व्यक्ति की सर्वांगीण उन्नति होनी चाहिए तो स्वाभाविक रूप से यह विचार आता है कि उसके शरीर, बुद्धि और मन सभी का विकास होना चाहिए और विकास संतुलित रूप से होना चाहिए। सर्वांगीण विकास कहते ही शरीर के जो भिन्न-भिन्न अंग होते हैं उन सभी के विकास की बात सामने आती है। कल्पना कीजिए कि कोई मनुष्य शरीर से काफी मोटा है, उसकी तोंद भी फाफी बडी है, परंतु उसके हाथ-पेर दुबले हैं, तो क्या उसका विकास संतोषजनक कहा जा सकता है ? हम यही कहेंगे कि उसका विकास एकांगी हुआ है। ऐसे व्यक्ति की पाचन शक्ति दुर्बल रहती है । थोड़ा भोजन करने में ही उसे डकार आने लगती है। थोड़ी भी दौड़ लगाने पर वह हांफने लगता है। अर्थात् एकांगी विकास वाले व्यक्ति में दुर्बलता रहती है । इस दुर्बलता का परिणाम यह होता है कि आंतरिक रोग उत्पन्न होते हैं और अगर आंतरिक रोग उत्पन्न नहीं हुए तो बाहर के रोग जैसे चेचक, हैजा, पीलिया, टाइफाइड आदि किसी भी रोग से उसका स्वास्थ्य खराब होता है। इसलिए शरीर की सर्वांगीण उन्नति अर्थात् सर्व अंगों की संतुलित उन्नति आवश्यक है । जब व्यक्ति के शरीर को सर्वांगीण उन्नति का चित्र आपके सामने हम खींचते हैं तो स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्ति का चित्र सामने आता है। जिसकी हृष्ट-पुष्ट भुजाएं हैं, जंघाएं हैं, स्नायु संस्थान मजबूत है, कमर पतली है । परंतु ऐसा व्यक्ति यदि बुद्धिहीन हो तो भी वह एकांगी विकास कहलाएगा अथवा काफी बुद्धिमान होने पर भी उसका शरीर यदि रोग ग्रस्त है, तो वह भी एकांगी विकास होगा और इसलिए अपेक्षा यह रहती है कि दोनों का ठीक विकास हो । व्यक्ति का एक तीसरा अंग भी होता है और वह है मन। उसके मन पर अच्छे संस्कार हुए तो वह व्यक्ति समाज के लिए हितकारी होता है । इसके विपरीत यदि व्यक्ति कठोर हो, क्रूर हो, उसमें दया, करुणा, ममता का अभाव हो, समाज के प्रति प्रेम नही हो तो ऐसा व्यक्ति समाज के लिए बहुत पीड़ा देने वाला हो जाता है । वह अपने शरीर और बुद्धि का समाज को पीड़ा देने के लिए साधन के रूप में प्रयोग करता है । अभी व्यर्थ लादे गए आपातकाल में हमने प्रत्यक्ष रूप से ऐसा होते देखा है ।

मनुष्य जीवन के केवल तीन अंग होते हैं ऐसी बात नहीं । पारिवारिक जीवन भी उसके जीवन का एक अंग होता है। उसके भी भिन्न-भिन्न उपांग रहते हैं । पारिवारिक जीवन में माता-पिता का वह पुत्र होता है, सन्तान का पिता होता है, पत्नी का पति होता है, बङे अथवा छोटे भाई बहनों का वह छोटा अथवा बड़ा भाई होता है। उन सबके साथ उसके मधुर सम्बन्ध होना आवश्यक होता है। परंतु केवल मधुर सम्बन्ध होना ही पर्याप्त नहीं । उसने परिवार के लिए कुछ कमाई नहीं की तो हम कहेंगे कि व्यावसायिक जीवन का अंग पूर्ण रूप से उपेक्षित है, अविकसित हैं। इसलिये अपेक्षा यह रहती है कि मनुष्य को परिवार के लिये कमाते हुए सबका भरण-पोषण करना चाहिए। तभी हम कह सकते हैं कि मनुष्य का पारिवारिक जीवन और व्यावसायिक जीवन अच्छी प्रकार से विकसित हैं।

व्यक्ति के जीवन के केवल इन दोनों अंगों-पारिवारिक एवं व्यावसायिक जीवन का ही उन्नत होना पर्याप्त नहीं। इनके जीवन का एक तीसरा अंग भी होता है और वह है-सामाजिक जीवन, जिसकी उपेक्षा करना उचित नहीं अन्यथा वह भी एक एकांगी जीवन ही होगा । समाज के सुख-दुःख में समरस होना, समाज के कार्यों में भाग लेकर अपने समाज के प्रति जो कर्तव्य होते हैं उनका निर्वाह करना समाजिक जीवन के अंग के विकसित होने का लक्षण है। यदि किसी व्यक्ति का पारिवारिक एवं व्यावसायिक जीवन का अंग अच्छा विकसित हैं और उसने काफी कमाई करके आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति ही नहीं अपितु विलास की वस्तुए भी प्राप्त कर ली हैं, फिर भी उसके पड़ोस में रहने वाला कोई व्यक्ति यदि भूखा है, रोगी है, पीड़ित है, उसकी सहायता करना यदि वह आवश्यक नहीं समझता, तो हम कहते हैं कि वह सामाजिक जीवन की उपेक्षा करता है । उसका सामाजिक जीवन का अंग अविकसित है । जो समाज के प्रति कर्त्तव्यों की उपेक्षा करता है, उसका जीवन हमने कभी आदर्श नहीं माना। स्पष्ट है कि वह जीवन, आदर्श जीवन है जिसमें पारिवारिक, व्यावसायिक एवं सामाजिक तीनों अंग विकसित हों ।

व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लक्षणों की इस कसौटी पर अपने समाज के प्रत्येक व्यक्ति को हम जरा परख कर देखें तो हमें दिखाई देगा कि अधिकांश व्यक्तियों के जीवन का एकांगी विकास हुआ है। सामाजिक जीवन के प्रति समाज के अधिकांश लोगों की उपेक्षा है। अतः सामाजिक जीवन के अंग का सम्यक विकास नहीं हुआ है। हम व्यवसाय करते हैं, किंतु व्यवसाय करते समय भी मुख्य उद्देश्य पारिवारिक जीवन की ओर ध्यान देना ही रहता है। वे परिवार के लिये ही कमाते हैं और परिवार के लिये कमाना मात्र ही लक्ष्य रहने के कारण उनका व्यावसायिक जीवन असंतुलित रहता है। उचित-अनुचित में विवेक किये बिना ही कमाना मात्र ही उनका लक्ष्य रहता है। समाज का स्वास्थ्य ठीक बना रहे इसलिये धर्म के द्वारा अपनी एक व्यवस्था की गई है। उस व्यवस्था का उल्लंघन कर ये लोग कमाते हैं । जैसा हमें अनुभव है कि अनेक सरकारी कर्मचारी रिश्वत लेते है और जो लोग अनुग्रह के योग्य नहीं उन पर अनुग्रह करते हैं। जिनका काम होना चाहिये, उनका काम नहीं करते। अगर करते हैं तो विलम्ब से करते हैं । इसका अर्थ यह कि उनका व्यावसायिक जीवन का अंग अविकसित है। इसी प्रकार अनेक व्यापारी हैं जो वस्तुओं में मिलावट करके उन्हें बेचते है या उचित भाव में नहीं बेचते अथवा नाप तोल में गडबड़ी करते हैं । समाज में अनेक उत्पादक रहते हैं जो जान बूझकर खराब माल तैयार करते हैं और कीमत अधिक रखते हैं । इन व्यापारियों एवं उत्पादकों का भी व्यावसायिक जीवन का अंग अविकसित है ।

समाज में अनेक मजदूर भी हैं, जो वेतन अधिक चाहते हैं, महंगाई भत्ता अधिक चाहते हैं, परन्तु उस वेतन के अनुपात में समाज के लिये अधिक परिश्रम नहीं करते । उनका भी व्यावसायिक जीवन का अंग अविकसित है। यही बात अन्य व्यवसाय करने वालों में भी दिखाई देती है। इसका एक मात्र कारण यह है कि वे केवल अपने परिवार के लिये अधिक धन कमाना चाहते हैं। व्यावसायिक जीवन के अंग के विकास की ओर उनका ध्यान नहीं रहता है । परन्तु ऐसा करने से क्या पारिवारिक विकास ठीक हो पाता है ?

इन लोगों की वित्तेपणा इतनी प्रबल रहती हैं कि उनका पारिवारिक जीवन का अंग भी जैसा सुविकसित होना चाहिये वैसा नहीं है । वे सारा समय धनार्जन में व्यतीत करते हैं। पारिवारिक जीवन के अंग के चार उपांग है। पहला है माता-पिता तथा बडों की सेवा करना । अनेक लोग उनकी देखभाल करते हुए नहीं दिखाई देते । दूसरा है सन्तान की और ध्यान देना । इसका यदि विचार किया जाय तो कहना होगा कि उनकी ओर भी इनका ध्यान नहीं रहता । उन पर अच्छे संस्कार डालना, वे मन में कौन से विचार धारण करते हैं, यह परखना, उन्हें कौन से बच्चों की संगति है और वे कौन-सा साहित्य पढ़ते हैं, इसका निरीक्षण करना आदि बातों की ओर उनका ध्यान नहीं रहता । अगर लड़के ने कुल तैतीस प्रतिशत अंक परीक्षा में प्राप्त कर लिये हों-भले ही नकल कर प्राप्त किये हों, तो भी कोई हर्ज नहीं, वे संतुष्ट रहते हैं । वे इसलिये भी संतुष्ट रहते हैं, क्योंकि धनार्जन की तीव्र अभिलाषा उन्हें सन्तान की ओर ध्यान देने के लिये समय नहीं देती अर्थात् संतति के लिये पैसा कमाते हैं, परन्तु उसकी ओर ध्यान नहीं देते ।

वस्तुतः पैसा, जमीन, जायदाद अचेतन सम्पति है। कमाने के पश्चात वह अपनी वृद्धि नहीं कर सकती, क्योंकि वह अचेतन है । संतति, व्यक्ति की सचेतन सम्पत्ति है । उस पर ठीक संस्कार डाले जाएं तो वह सचेतन होने से अपनी प्रेरणा से अपना विकास कर सकती है । इसलिये वस्तुतः उस सचेतन सम्पत्ति की ओर अर्थात् संतति की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। अपने जन्मदाता माता-पिता की ओर जैसे व्यक्ति ध्यान नहीं देते वैसे ही अपनी सन्तान की भी उपेक्षा करते हैं । ऐसा लगता है कि आज की युवा पीढ़ी में, छात्रों में जो उद्दंडता दिखाई देती है उसके लिये ८० प्रतिशत उनके माता-पिता जिम्मेदार हैं, क्योंकि परिवार में ही उनका अधिक समय व्यतीत होता है और परिवार के मखिया ऊपर निर्दिष्ट कारणों से उनकी ओर ध्यान नहीं देते । दारिद्र्य के कारण जीवन की आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धियों के लिये पैसा कमाने में ही जिनका अधिकतर समय व्यतीत होता है उनकी विवशता तो समझ में आती हैं परन्तु सम्पन्न लोग, जिन्हें जीवन की सभी आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध हैं, वे यदि अधिक ऐश्वर्य या आराम के लिए अथवा संग्रह करने के लिये पैसा कमाने की दृष्टि से सन्तान की उपेक्षा करते हैं तो वह उनका दृष्टिकोण समझ में नहीं आता, क्योंकि कमाई भी आखिर बच्चों के लिये ही तो करनी है। उन पर यदि अधिक ध्यान देकर उन्हें अच्छे संस्कार दिये जाएं तो वे अपने लिये कमाई कर लेंगे और उन पर यदि अधिक ध्यान न देने से वे दुराचारी बने तो हमारे द्वारा उनके लिये की हुई कमाई भी उनके अधःपतन के लिये निमित्त बनेगी और वे भी उन्हें नष्ट करेंगे । एक कवि की रचना है “पूत सपूत तो क्यों धन संचय ? पूत कपूत तो क्यो धन संचय ?” अर्थात् संतति अच्छी है तो धन संचय की आवश्यकता नहीं और संतति कपूत है तो धन संचय व्यर्थ है। कितनी सार्थक है यह उक्ति !

परिवार का तीसरा रिश्ता है पति- पत्नी का । इस ओर अधिक ध्यान दिखाई देता है। माता-पिता की ओर ध्यान नहीं, संतति की ओर ध्यान नहीं।

मुझे ऐसा उदाहरण मालूम है जिसमें दम्पत्ति ने अपना सिनेमा जाने का शौक पूरा करने के लिये छोटे बच्चों को नींद की गोली देना प्रारंभ किया और एक बार अधिक मात्रा में देने से बच्चा ही गुजर गया ! परिणाम यह है कि पारिवारिक जीवन में भी एक उपांग की ओर अधिक ध्यान है ।

समाज में ऐसे भी अनेक लोग हैं जिनका इस रिश्ते की ओर भी ध्यान नहीं रहता । अपने साढ़े तीन हाथ के शरीर के सुख के लिये ही वे ज्यादा ध्यान देते हैं । पीते हैं, जुआ खेलते हैं, सट्टा खेलते हैं और सब प्रकार के दुराचरण करते हैं। जो कुछ कमाया उसे अपने शारीरिक सुख की प्राप्ति के लिये खर्च करके पत्नी और परिवार को भूखा रखते हैं। समाज में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां सामाजिक जीवन के अंग की उपेक्षा कर व्यावसायिक अंग की ओर देखने का, व्यावसायिक जीवन की उपेक्षा कर, केवल पारिवारिक जीवन के अंग का विचार करने का और पारिवारिक जीवन के विभिन्न उपोगों में केवल एक ही उपांग के बारे से विचार करने का दृष्टिकोण अपनाया जाता है । यह एकांगी विचार है और इसकी स्वाभाविक परिणति मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक एवं मानसिक विकास में बाधा पैदा करती है। यह होना उचित नहीं। इसलिये समाज में वह व्यक्ति आदर्श माना जाता है जिसके शरीर, बुद्धि एवं मन, इन  तीनों अंगों का ठीक विकास हुआ हो और जो पारिवारिक जीवन, व्यावसायिक जीवन और सामाजिक जीवन के तीनों अंगों के दायित्वों का भली प्रकार निर्वाह करता हो । एक अन्य संदर्भ में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि-

“युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।” गीता ६/१७

अर्थात् “जिसका आहार एवं विहार युक्त (संतुलित) है, कर्म करते समय जिसकी चेष्टा संतुलित है और जिसकी निद्रा एवं जागरण संतुलित है उसके लिए योग दुःख विनाशक सिद्ध होता है। अर्थात् संतुलित जीवन होने की आवश्यकता है। श्री अरविन्द अथवा श्री मां की उक्ति है कि “Perfection is not an extreme, it lies in maintaining the balance.” (परफेक्शन इज् नाट एन एक्स्ट्रीम इट लाइज इन मेनटेनिंग दि बैलेन्स) जीवन में संतुलन आवश्यक है। ऐसे संतुलित जीवन वाले व्यक्ति के लिए हम कहते हैं कि इसका सर्वांगीण विकास हुआ है।

जैसा यह व्यक्ति के बारे में सही है वैसे ही राष्ट्र के लिए भी सही हैं। राष्ट्र एक जीवंत इकाई है। उसका भी एक शरीर होता है । जैसे शरीर के हाथ पैर आदि अंग होते हैं वैसे राष्ट्र के भी भिन्न-भिन्न अंग होते हैं। अंतर केवल इतना है कि शरीर के अवयव शरीर से सम्बद्ध होते हैं और अगों का शरीर से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, परंतु राष्ट्र के जो भिन्न-भिन्न अवयव होते हैं, सबके रहते हैं, उनका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व, अहंभाव होता है । इसीलिए एकात्मता से ही, एक रस जीवन की, एक दम कल्पना नहीं होती । नित्य चिंतन करने पर अथवा जब कोई प्राकृतिक अथवा राजनैतिक आपत्ति आती है तब पता लगता है कि सारे राष्ट्र में एकात्मकता है और उसका अपना अन्य राष्ट्रों से अलग एक स्वयं का अस्तित्व है, अहंभाव है। जैसे आंध्र पर प्राकृतिक प्रकोप के समय अनुभव हुआ। लोग मारे गए । प्रत्येक को अनुभव होता है कि हमारे शरीर का यह अंग है, उसकी सहायता करनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि अलग-थलग रहने पर भी जीवन में एकरसता रहती है। इसलिए राष्ट्र रूपी शरीर के भी भिन्न-भिन्न अवयव रहते हैं जो भिन्न-भिन्न तबकों एवं व्यक्तियों के रूप में रहते हैं ।

अब हम जरा देखें कि क्या इनका संतुलित विकास हुआ है, क्या वह सर्वांगीण है ? ध्यान देने से पता चलेगा कि वह केवल एकांगी विकास है-जैसे शहरी जीवन एवं ग्रामीण जीवन को लीजिए। शहरी जीवन बड़ा साफ सुथरा अथवा प्रगत दिखाई देगा। ग्रामीण जीवन में अस्वच्छता है, अपने कर्तव्यों का उन्हें अनुभव नहीं है। फिर प्रबुद्ध एवं बुद्धिहीन लोगों के तबकों की ओर दृष्टिपात किया जाए तो हम अनुभव करेंगे कि उनके विचार एवं आचार दोनों स्तरों में एक बडी खाई है । यह भी एकांगी विकास है ।

उसी प्रकार एक ओर धनवान, साधन-सम्पन्न लोग दिखाई देते हैं दूसरी ओर धनहीन, साधनहीन है। धन सम्पन्न लोग अपने लिए विलास तथा ऐशो आराम की सब वस्तुएं प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं । धनहीन लोगों के लिए विलास की चीजें तो दूर रहीं, जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तुओं को जुटा पाना भी असम्भव है । यह एकांगी विकास है, सर्वांगीण नहीं। इस एकांगी विकास से समाज रूपी शरीर में वेसे ही रोग उत्पन्न होते हैं जैसे कि शरीर के एकांगी विकास से होते हैं। वे रोग शारीरिक होते हैं और समाज के शरीर में उत्पन्न होने वाले रोग मानसिक होते हैं । जहां साधन सम्पन्नता रहती है वहाँ स्वाभाविक रूप से अहंकार आता है । अहंकार, उन्माद को जन्म देता है और उन्माद इतना प्रबल हो जाता है कि उस उन्माद की कल्पना भी साधन सम्पन्न लोगों को नहीं रहती। मुझे ऐसे संपन्न परिवार ज्ञात हैं जहां अतिथि को भोजन कराते समय यह जरूरी समझा जाता है कि थाली में ढेर सारा भोजन पड़ा रहे, इतना आग्रह करना । यदि अतिथि ने कहा कि मेरा नियम है कि मैं थाली में खाद्य वस्तुएं नहीं छोड़ता इसलिए आग्रह मत कीजिए तो और अधिक आग्रह कर थाली में भोजन परोसते हैं और दया का भाव लाकर कहते हैं कि “जब आप थाली में अन्न छोडेंगे तभी गरीबों को खाने के लिए मिलेगा ।” क्या यह दया का भाव है ? वस्तुतः यह कोरा उन्माद है । इस अतिथि को आग्रह कर अपनी मिथ्या प्रतिष्ठा जताना और उधर गरीबों को देकर अपनी मिथ्या दया बताना यह कोरी आत्मवंचना है। वस्तुतः वहां गरीबों के प्रति दया-ममता अथवा आत्मीयता का भाव नहीं रहता । आत्मीयता होती तो अपने जैसा उनसे व्यवहार करते अर्थात् हम यदि दूसरों का उच्छिष्ट अन्न (जूठा खाना) पसन्द नहीं करते तो हम उन्हें भी न देते ।

अपने यहाँ कहा गया है ‘आत्मवत्सर्वं भूतेषु, यः पश्यति स पश्यति’ अर्थात् अपने जैसा जो दूसरों को देखता है, वह देखता है । जैसा भगवान् हम में है, वैसे दूसरे में भी है, यह भावना जिसके अन्तःकरण में रहेगी वह वस्तुतः धर्म के अनुसार व्यवहार करता है। आवश्यकता तो इस बात की है कि ऐसे व्यक्तियों में, जो गरीब होने से दूसरों की जूठन खाते हैं, स्वाभिमान जगाना चाहिये कि “तुम इस प्रकार से जूठन मत खाओ, तुम पशु नहीं, मानव हो और इस प्रकार के उनके व्यक्तित्व के विकास में सहायता करना उनमें आत्म विश्वास जगाना यह धर्म का उपदेश है। इसके बदले में उनके प्रति दया का मिथ्या भाव जतला कर उन्हें अपनी जूठन खाने के लिये देना यह व्यवहार उन्हें मानव से पशु बनाने जैसा है। फिर इसे धर्म कैसे कहा जाये ? अपना यह जूठन खिलाने का व्यवहार धर्ममय है ऐसा मिथ्या समाधान अनुभव कर ये लोग आत्मवंचना कर लेते हैं । वस्तुतः यह व्यवहार उनमें उत्पन्न उन्माद का ही परिचायक है ।

साधन विहीन लोगों में तीन प्रकार के लोग दिखाई देते हैं। एक वे हैं जिनमें किसी प्रकार का आत्मविश्वास नहीं, स्वाभिमान नहीं। इसलिये अपना पेट भरने के लिये साधन सम्पन्न लोगों के पास जाते हैं और जिन किन्हीं शर्तों पर साधन सम्पन्न लोग काम करने के लिये देते हैं उन शर्तों को मान लेते हैं, उसमें अन्याय, पक्षपात, अपमान होता है तो उसे भी सहन कर लेते हैं क्योंकि उनमें कर्त्तव्य के अभाव में आत्म विश्वास नहीं होता और सोचते हैं कि चलो भाई जितना मिल गया उतने में ही गुजारा कर लें ।

साधन विहीन लोगों में दूसरा ऐसा वर्ग होता है जिसमें आत्म- विश्वास रहता है और इसके साथ स्वाभिमान भी रहता है। उन्हें एसा लगता है जहां लात जमाऊंगा वहां पानी निकाल लूंगा । अपने पसीने से कमाऊंगा। ऐसे व्यक्ति जब साधन सम्पन्न लोगों के पास काम मांगने जाते हैं तो वे इन पर वैसी ही शर्ते लादने का प्रयास करते हैं, जैसी आत्मविश्वासविहीन, साधनविहीन व्यक्ति के साथ वे किया करते हैं। परन्तु उस स्थिति में उन्हें अलग प्रकार के उत्तर सुनने को मिलते हैं, उस समय इतनी कठोर भाषा प्रयोग करते हैं अथवा न बोलते हुए भी पक्षपात पूर्ण व्यवहार करते हैं जिससे आत्मविश्वासी साधनविहीन व्यक्ति पर उसकी प्रतिक्रिया होती है। उसके स्वाभिमान को ठेस पहुंचती है जिसका परिणाम होता है, मनोमालिन्य एवं ईर्षा, जिनका अनुचर है द्वेषभाव।  इस प्रकार सम्पन्न लोगों में अहंकार एवं तज्जनित उन्माद एवं साधन- विहीन लोगों में ईर्षा और तज्जनित द्वेष से समाज में कलह होता है और यदि साधन विहीन लोगों ने यह सारा अन्याय सहन किया तो भी सम्पन्न लोगों का अहंकार एवं उन्मद उन में पारस्परिक संघर्ष पैदा करता है । परिणामतः आन्तरिक फूट से समाज दुर्बल हो जाता है ।

पिछले एक हजार वर्षो में ऐसी ही स्थिति समाज में होती रही । परिणामतः बाहर से आक्रमण हुए और पराये यहां प्रभावी हुए । आक्रमण पहले भी हुए। शक आये, हूण आये और ग्रीक भी आये, परन्तु उनके आक्रमणों का हमने सफलतापूर्वक सामना किया। उसका एक मात्र कारण यही था कि सर्वांगीण उन्नति हुई थी और उसके फलस्वरूप समाज की जीवन शक्ति प्रबल थी, स्वास्थ्य अच्छा था इसलिये आक्रमणकारियों को हमने पराजित किया और उनमें से जो बचे उन्हें हम आत्मसात् कर गये । उन्होंने हमारे जीवन के आदर्श माने, हमारी संस्कृति अपनाई और राष्ट्र जीवन की धारा में अपने जीवन की बूंद मिलने में जीवन की कृतार्थता अनुभव की। इसी कारण हममें आज कौन ग्रीक, शक अथवा हूण है, कह पाना असम्भव है। इतना सबका एक जीवन है। यह सब इसलिये हो सका कि अपना राष्ट्र सक्षम था। परन्तु पिछले एक हजार वर्षों में जो अहंकार, उन्माद, ईर्ष्या एवं द्वेष उत्पन्न हुए और उनके कारण पारस्परिक संघर्ष उत्पन्न हुए उनसे दुर्वलता आ जाने से या शक्ति का ह्रास होने से बाह्य शक्तियां यहां घुस आई। प्रकृति का यह धर्म है कि रिक्तता की पूर्ति करना ।

अंग्रेजी में कहावत है ‘नेचर एव्होर्स वैक्यूम’   Nature abhors vacuum  एक बार हम ऐसा कह सकते हैं कि मुसलमान आक्रांता के रूप में आयें, परन्तु क्या अंग्रेजों के बारे में ऐसा कहा जा सकता है? वे तो व्यापार करने आये थे जैसे फ्रेंच, पोर्तुगीज एवं स्पेनीयर्डस आये थे। उन सबके और विशेष रूप से अंग्रेजों के ध्यान में यह बात आई कि यहां पारस्परिक द्वेष है, संघर्ष है, और इसी कारण दुर्बलता है । जब ये लोग आपस में लड़ते हैं तो हमसे सहायता लेकर अपने प्रतिस्पधियों को पराभूत करते हैं। व्यापारी होने के नाते स्वाभाविक रूप से उनके मन में यह विचार आया कि मदद देनी है, दो, उसकी कीमत मय मुनाफे के वसूल करें और इसलिए कीमत के रूप में वे भूभाग प्राप्त करते गये । उसकी व्यवस्था एवं रक्षा के लिये उन्होंने ‘सेना’ वह भी यहीं के लोगों को बनाई। फिर उनके मन में विचार आया कि इस स्थिति में हम यहां अपना साम्राज्य निर्माण कर सकते हैं। उसके बाद उन्होंने हमारे पारस्परिक संघर्ष की अग्नि में जो हमने ही सुलगाई थी,पारस्परिक मनोमालिन्य निर्माण करने के रूप में घी डाला और धीरे-धीरे बढ़ते हुए अपना साम्राज्य स्थापित किया ।

अब हम जरा विचार करें कि व्यापार करते आये लोगों के मन में अपना साम्राज्य प्रतिष्ठित करने के विचार उत्पन्न करने के लिए कौन जिम्मेदार है। स्पष्ट है कि इसके लिए हम जिम्मेदार हैं। आपसी कलह और फूट के कारण हमने ही उन्हें यहां खेमे गाडने के लिये निमंत्रित किया और अपनी कमजोरियां उजागर कर उन्हें साम्राज्य स्थापित करने के लिये उत्साहित किया। इसलिए उन्हें दोष देने की अपेक्षा हम अपने दोषों को देखें और पिछले एक हजार वर्ष की बातों के लिये अपनी जिम्मेदारी अनुभव करें। भगवान श्रीकृष्ण एक अन्य संदर्भ में कहते हैं–

“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयत् ।

आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मंत्र रिपुरात्मनः ।। ” – गीता ६/५

अर्थात हम अपने द्वारा अपना उद्धार करें और अपना विनाश न करें। हम ही अपने बंधु (मित्र) हैं। इसलिए राष्ट्र को दु:स्थिति के लिये अपनी जिम्मेदारी अनुभव कर इस प्रकार की व्यवस्था निर्माण करना आवश्यक है कि अपने सामाजिक जीवन में भिन्न-भिन्न तबकों का जीवन एकात्म हो और विकास सर्वांगीण हो । शरीर का प्रत्येक अंग शरीर से अभिन्न रहता है। परंतु राष्ट्र के भिन्न-भिन्न तबके एवं व्यक्ति अपना एक अलग अस्तित्व रखते हैं । इसलिये उनमें अहंभाव रहना आवश्यक है । स्वस्थ विकास की वास्तविक पद्धति तो यह है कि पहले अहंभाव को विकसित किया जाए अर्थात् उसके व्यक्तित्व को विकसित किया जाए और फिर उसे अपने इस अहंभाव को राष्ट्र को समर्पित करने के लिये प्रेरित किया जाए। यदि स्वाभाविक अहंभाव को अर्थात विशेषताओं को दबाने का प्रयास किया जाय तो विकृति पैदा होती है। एकांगी विकास होता है जो समाज का स्वास्थ्य बिगाड़ता है। इसलिये समाज के प्रत्येक तबके को और प्रत्येक तबके के प्रत्येक व्यक्ति को अपना विकास करने का अवसर मिलना चाहिये। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि प्रत्येक के पारिवारिक जीवन, व्यावसायिक जीवन और सामाजिक जीवन का विकास होता रहे ।

साधन विहीन लोगों का तीसरा वर्ग है जो विकलांग रहता है जैसे कि अंधे, लंगङे, लूले, गूंगे, आदि। वे किसी प्रकार से आजीविका कमाने में असमर्थ होते हैं। इन सभी लोगों के जीवन में न्यूनतम आवश्यकताओं की पूति होती भी आवश्यक है। तभी हम कह सकेगे कि राष्ट्र का सर्वागीण विकास हुआ।

राष्ट्र के जीवन में विभिन्न तबके इस प्रकार के अंग हैं। उसमें दूसरे अंग अथवा पहलू भी होते हैं जैसे शिक्षा, सहकारिता, कला, साहित्य, राजनीति, उत्पादन, मजदूर आदि । ऐसे अनेक क्षेत्र है। हमें दिखाई देता है कि इनका भी एकांगी विकास हुआ है । व्यक्ति के जीवन में जैसे सामाजिक जीवन का अंग है और व्यावसायिक जीवन के अंग में पारिवारिक जीवन का अंग और पारिवारिक जीवन के भिन्न-भिन्न उपांग पर एक ही उपांग हावी है अर्थात् व्यक्ति केवल अपना ही विचार करने का दृष्टिकोण रखता है, उसी प्रकार यह दिखाई देगा कि राष्ट्र जीवन में जो भिन्न-भिन्न अंग है उनमें एक ही अंग बाकी अंगों पर हावी हो रहा है, और वह है राजनीति। जीवन के विभिन्न उपांगों पर भी यह एक ही उपांग हावी हो रहा है । उदाहरण के रूप में शिक्षा के क्षेत्र का विचार कीजिये । शिक्षा क्षेत्र में सबसे बड़ा प्रतिष्ठान रहता है विश्वविद्यालय और उनमें सबसे प्रमुख स्थान रहता है, उपकुलपति का । गत तीस वर्षों में इन स्थानों पर किन लोगों की नियुक्ति हुई, किसी शिक्षाविद् की हुई क्या ? जहाँ शिक्षाविद् की नियुक्ति हुई वहां स्थिति कुछ ठीक है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को शिक्षा के अध्ययन, अध्यापन का ध्यान रहता है । लेकिन सभी विश्वविद्यालयों में ऐसी नियुक्ति नहीं हुई । अधिकांश स्थानों पर सत्तारूढ़ दल के संसद अथवा विधानसभा के पराभूत उम्मीदवारों की नियुक्तियां हुई अथवा वे लोग नियुक्त किए गए जो शासन के इशारे पर नाचने वाले हैं। ऐसे लोगों की नियुक्ति का परिणाम क्या हुआ? परिणाम हुआ कि राजनीति में जो दाव- पेच चलते हैं उन दांव पेंचों को उन्होंने शिक्षा प्रतिष्ठानों में भी चलाया। राजनीति चलाना आरम्भ किया और इन राजनीतिक दांव पेंचों में सहायक हो सकने वाले प्राध्यापकों को भले ही थे ठीक प्रकार पढ़ाते न हों, तो भी ऊंचा स्थान दिया गया। पदोन्नतियां दी गई। जो राजनीतिक दांव पेंचों में सहायक नहीं हुए ऐसे अध्यापकों को भले ही वे अध्यापन कार्य में निपुण रहे हों, उचित स्थान तक नहीं दिया गया। स्वाभाविक रूप में इन प्राध्यापकों में दो गुट बने और वैसे ही पक्षपात के कारण छात्रों में भी गुट बने या प्राध्यापकों ने ही छात्रों में गुट निर्माण किए। आज हम देखते हैं कि शिक्षा क्षेत्र में सब प्रकार की उद्दण्डता हैं। पढ़ना-पढ़ाना छोड़कर बाकी सब कुछ होता है । हड़ताल होती है, भवन नष्ट किए जाते हैं, शराब पी जाती है । यह स्थिति है और इसका एकमात्र कारण वह राजनीतिक व्यक्ति है जो अधिकार न रहते हुए भी शिक्षा क्षेत्र पर लादा गया है। ऐसी हालत है कि मानो संसद या विधान सभा का चुनाव न जीतने के कारण जो बेकार हुआ है, उसकी बेकारी दूर करने के लिए ही विश्वविद्यालयों के उपकुल-पति पदों की योजना बनी है। एक दूसरा भी दृश्य दिखाई देता है कि शिक्षा क्षेत्र में भी शासकीय दल की राजनीतिक विचारधारा से संगत या उसके अनुकूल शिक्षा देना। आपने सुना होगा कि इतिहास को तोड़ मरोड़ कर छात्रों को सिखाया जा रहा है। वास्तव में इतिहास पढ़ाने का उद्देश्य यह रहना चाहिए कि इतिहास जैसे का तैसा छात्रों के सामने रखा जाए। परन्तु उसे तोड़ मरोड़ कर रखा जाता है। इसका परिणाम यह है कि राजनीतिक जीवन अध्ययन के क्षेत्र पर भी हावी है। यह बहुत घृणास्पद बात है और राष्ट्र के लिए हानिकारक है। ऊपर के स्तर पर जो हुआ वह नीचे के स्तर पर होने ही वाला है। मुझे बुरहानपुर की घटना याद है कि बुरहानपुर के पास ६ मील पर शाहपुर नामक मौजा है, १० हजार की आबादी का । समाजवादी कार्यकर्ताओं ने वहां हायस्कूल खोला। २५ वर्ष पुरानी बात है। अब चूंकि उन्होंने वहाँ हायस्कूल खोला तो वहां के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने वह स्कूल चलाने नहीं दिया । ३ मील दूर पर दूसरा मौजा बाकोडा नामक है वहां पर उन्होंने एक हायस्कूल खोला। इस गांव की आबादी ३ हजार है और गांव के रहने वाले लड़कों के माता पिता पर दबाव था कि वे अपने लड़कों को इसी स्कूल में भेजें ।“यद् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरे जनाः” जो श्रेष्ठ कहलाए जाने वाले लोगों ने किया वही साधारण लोग करते हैं ऐसी सारी स्थिति उत्पन्न हुई और वह शाहपुर का हायस्कूल बन्द हो गया। यह सब क्यों ? इसका श्रेय दूसरों को नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि यदि उनको श्रेय मिला तो वे चुनाव में जीतकर आ जायेंगे, तो इसका परिणाम क्या हुआ ? जो साधनहीन थे उनके बच्चे की पढ़ाई उन दिनों में नहीं हो सकी, जो साधन सम्पन्न थे उनके अपने बच्चों को तीन मील दूरी पर पढ़ने के लिए भेजा । तो इस प्रकार से लोगों की शिक्षा नहीं हुई तो चलेगा परंतु हमारा व्यक्ति चुनकर आए इसलिए दूसरे लोगों को शिक्षा प्रसार करने का अवसर नहीं मिलना चाहिए। इस प्रकार की भूमिका वहां के लोगों ने अपनाई। मेरे कहने का सार यह कि शिक्षा क्षेत्र में वह राजनीति का पहलू हावी हो गया ।

सहकारिता के क्षेत्र का हम विचार करें । कोआपरेटिव बैंकों में दिखाई देता है कि चाटुकार को, खुशामद करने वाले को कर्जा जल्दी मिलेगा, ज्यादा मिलेगा और जरूरत होने पर माफ भी कर दिया जाएगा । लेकिन उनके विचारों से सहमत व्यक्ति न हो तो दस बार धक्के खाने पर भी उसे पैसा नहीं मिलता । पैसा मिलने पर जल्दी वसूल करने का प्रयास किया जाता है और आवश्यक होने पर माफ भी नहीं होता । कोआपरेटिव बैंक के संचालन के लिए चुनाव में भी राजनीतिक स्पर्धा और ईर्ष्या होती है और बहुत खर्चा किया जाता है। महाराष्ट्र के कोआपरेटिव शुगर फॅक्टरीज के संचालकों के चुनाव में जितना खर्च किया जाता है उतना संसद या विधान सभा के चुनाव में भी नहीं किया जाता। उसका परिणाम यह होता है कि वह खर्च किया हुआ पैसा फैक्टरी से अन्य मार्ग से वसूल किया जाता है और चीनी का उत्पादन खर्च बढ़ जाने से चीनी के भाव बढ़ते हैं। इससे सहकारिता के क्षेत्र में भी यह हस्तक्षेप होता दिखायी देता है ।

कला और साहित्य के क्षेत्र का उदाहरण लें। हम जानते है कि सारे कला और साहित्य के क्षेत्र में राजनीतिक विचारधारा वाले, उनके अनुकूल लिखने और प्रचार करने वाले लोगों को पारितोषिक जल्दी मिलते हैं । विशेष रूप से आपातकाल में तो एक ही दल के और एक ही व्यक्ति के भगत बन गये थे । स्तुति गान हो रहा था। कहीं समाचार पत्र में लेख छपवा देना, उनमें भी उनकी स्तुति करना और अपने लिए विज्ञापन प्राप्त करना । रेडियो पर स्तुति में लेख या कविताएं पढ़ना और उसके बदले में पारितोषिक पाना । ऐसी स्थिति में स्वतन्त्र और तटस्थ चिंतन असम्भव है। जहां पर स्वतंत्र प्रेरणा का अभाव होता है, स्वतंत्र चेतना का जागरण होना असंभव होता है, वहाँ बौद्धिक गति कुंठित हो जाती है, क्योंकि एक ही प्रकार की विचारधारा या राजनीतिक स्वार्थ उनके मन पर हावी रहता है।

शासन व्यवस्था का विचार करें तो उसमें भी दिखाई देगा कि समाज में जो कुव्यवस्था होती है उसमें राजनीति का हावी होना ही कारण है । पन्द्रह बीस वर्ष पहले मध्यप्रदेश सरकार ने अपराधियों के सुधार का एक कदम उठाया था। ऐसा विचार किया गया था कि समाज में जो उद्दण्ड लोग हैं उन्हें सजा दिया जाना तो ठीक है, लेकिन कभी उत्तेजनावश भी ऐसे लोग गलत काम कर जाते हैं जिसे वे स्वयं खराब समझते हैं और पछताते हैं, जैसे किसी को मार दिया। कारण यह कि किसी ने गाली दी तो गुस्सा आ गया और गाली देने वाले को पीट दिया, इतना पीटा कि मर गया, ऐसे व्यक्ति को पांच सात साल की सजा हो गई । कानून ने अपना काम किया, परन्तु अपराधी सुधार करना चाहता है । इसलिए सोचा गया कि ऐसे व्यक्ति अपने में सुधार लावें और उत्तेजनावश फिर कभी ऐसे काम न करें। इसलिए शासन ने तय किया कि इन लोगों के मामलों का अध्ययन करना चाहिए । आवश्यकतानुसार इन्हें कभी पैरोल पर छोड़ना या कभी उनकी सजा माफ करनी चाहिए। मैंने यह सरकार का निर्णय अखबार में पढ़ा तो सोचा कि यह बडी अच्छी कल्पना है। आखिर ऐसे व्यक्तियों को जो संयोगवश पथभ्रष्ट हुए हैं ठीक राह पर लाने के लिए शासन यदि इस प्रकार काम करता है तो अच्छी बात है । बाद में मुझे मेरा एक मित्र मिला। उसकी नौकरी शासन के इसी विभाग में थी। मैंने अपने विचार उसके सामने रखे तो उसने कहा कि हां ऊपर से तो सत्ताधारियों का यह निर्णय अच्छा   लगता है परंतु सच्चाई में ऐसी बात नहीं है । इनका अंतस्थ हेतु दूसरा ही है। मैंने इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि आगे चुनाव आएंगे और चुनाव में उनकी मदद करने के लिए गुण्डे चाहिए। इसलिए जेलों से इन्हें छुड़ाना जरूरी है। इसीलिए ऐसी योजना बनी है और उसके अनुसार सारे कागजात तैयार किए जाते हैं। गांव वालों से लिखा लिया जाएगा कि अमुक व्यक्ति बहुत अच्छा है उसे जेल से छोड़ दिया जाना चाहिए । संयोगवश उससे गलती हुई थी और सजा हो गई। फिर जिस थाने में वह रहा होता है उस थानेदार को ऐसी ही बात कहने के लिए बाध्य किया जाता है और उसके पश्चात् जिस जेल में वह रहता है उस जेलर से भी लिखवा लिया जाता है कि व्यक्ति बहुत अच्छा है, अनुशासन में रहता है उसे सचमुच अपने किए पर पछतावा है, यदि उसे पेरोल पर छोड़ दिया गया अथवा उसकी सजा माफ कर दी गई तो शायद वह सुधर सकें । ऐसा सारा मामला बनाकर उसे छोड़ा जाता है और छूटकर आने के बाद छुड़ाने वालों के पक्ष में अर्थात् शासकीय पक्ष में चुनाव में काम करता है । वह लोगों को डराता है, धमकाता है, आतंकित करता है, उनसे वोट डलवाता है और विरोध करने वाले को मतदान के लिए आने से रोकता है । इस प्रकार राजनीति के पूर्ण संरक्षण में उसकी उद्दण्डता चालू हो जाती है। हमारे देश में सामाजिक व्यवस्था खराब होने का यह भी बहुत बड़ा कारण है। ऐसी बातें चलती हैं । इसलिए जिस प्रकार की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए वह नहीं होती । व्यवस्था पर राजनीति ऐसी हावी हुई दिखाई देती है कि ईमानदारी से कोसों दूर केवल राज- नीतिक दावपेच ही चलते हैं। इतना ही नहीं अपने राष्ट्रीय जीवन के जितने भिन्न-भिन्न अंग हैं उदाहरणार्थ उत्पादन क्षेत्र, मजदूर क्षेत्र आदि हैं उनमें भी यही दोष हमें दिखाई देता है कि उन पर राजनीति हावी होने से उनके विकास में कुण्ठा उत्पन्न हुई है।

राजनीतिक जीवन भी कई प्रकार की उलझनों में फंसा हुआ है। मैं तो वैसे राजनीति का अध्येता नहीं हूं। मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि राजनीति के चार उपांग है- चार प्रकार से राजनीति चलती है।

ये चार प्रणालियों है :

१. डिमोगोगीज्म (Demagoguism) अर्थात लोगों को प्रक्षुब्ध करने वाली बातें एवं काम करने की पद्धति । एजिटेशेन या आन्दोलनों द्वारा सत्ता प्राप्ति का प्रयास करना । इसे आन्दोलनकारिता कहेंगे ।

२. स्टेट्समैनशिप (Statesmanship) अर्थात् दूरदर्शिता । जो २५-५० साल आगे तक समाज का विचार करते हैं।

३. डिप्लोमेसी (Diplomacy) अर्थात् राजनय (दौत्य) और

४. एडमिनिस्ट्रेशन (Administration) अर्थात् प्रशासन ।

इन चार उपांगों में से एक ही अन्य उपांगों पर हावी हो रहा है वह है डिमोगोगीज्म आन्दोलनकारिता । परिणामतः बाकी तीन अंगों का जैसा विकास होना चाहिए वैसा होता हुआ दिखाई नहीं देता ।

प्रति पांच वर्ष में एक बार चुनाव होते हैं । उनमें सफल होना और कुर्सी प्राप्त करना ही अच्छी राजनीति की कसौटी बन गया है । यदि कुर्सी है तो वह बनी रहें यह भी विचार रहता है और यह कुर्सी चाहे पार्षद, नगरपालिकाध्यक्ष, विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री की हो उसे प्राप्त करने का उद्देश्य रहता है। तदर्थं समर्थन करने वालों को प्रसन्न रखना चाहिए और प्रसन्न रखने वालों के लिए उन्हें रोचक भाषा एवं व्यवहार करना पड़ता है । परिणाम यह होता है कि एक ओर लोगों से कहा जाता है कि आप के टैक्स कम किए जायेंगे, कर्मचारियों से कहा जायेगा कि वेतन बढ़ाए जायेंगे और सबको प्रसन्न करने के लिये कहा जायेगा कि हम गरीबों के लिए विकास की योजना चालू करेंगे। अब एक और टैक्स कम करने से आमदनी घटेगी और उधर खर्च बढ़ेंगे, फिर कैसे चलेगा? परिवार चलाने वाले हम सब जानते हैं कि आमदनी और खर्च का मेल न होगा तो क्या होगा ? कर्जा लेना होगा । बस यही चल रहा है। परिणामस्वरूप अपने यहां गत तीस वर्षों में अरबों रुपयों का कर्ज प्रतिवर्ष लिया गया है । यदि कर्ज नहीं मिला या हम जितना चाहते हैं उतना नहीं मिला तो हमने प्रायः वर्ष में अरबों रुपयों के नोट भी छापे हैं। प्रतिवर्ष घाटे को वित्त व्यवस्था चल रही है । उसके कारण महंगाई बढी है, क्योंकि नोट सस्ते हो गये तो दाम बढ़ गये, महंगाई हो गई परिणामतः भ्रष्टाचार बढ़ा। उसके कारण पारस्परिक अविश्वास भी बढ़ा। इस दुश्चक्र का केन्द्र बिन्दु है पांच साल बाद होने वाले चुनाव मात्र का विचार करना । पच्चीस तीस वर्ष के पश्चात् क्या समस्या उत्पन्न होगी इसका विचार पांच साल की योजना बनाने वाले करने को तैयार नहीं ।

इसके साथ ही दूसरे प्रकार के राजनीतिज्ञ भी होते हैं जिन्हें स्टेट्समेन अथवा दूरदर्शी कहा जाता है। ये लोग केवल पांच साल का विचार नहीं करते अपितु आगामी २५, ५० वर्षों में राष्ट्र के सम्मुख आसमानी अथवा सुलतानी आपत्ति किस प्रकार की आ सकती है उसका विचार करके इतनी दूर की समस्या को देखते हैं। उन्हें इसीलिए दूरदर्शी कहा गया है। वे पांच साल पश्चात् कुर्सी प्राप्त करने की समस्या का विचार ही नहीं करते, ऐसी बात नहीं। परन्तु तात्कालिक समस्या का विचार उन पर इतना हावी नहीं रहता कि जिसके कारण वे कुछ अधिक समय पश्चात् आने वाली सम्भावित समस्या से पराङ्मुख हो जाए और इसीलिए वे लोगों को भ्रान्तचित्त नहीं करते। समाज को जो स्पष्ट रूप से बताना आवश्यक है वह न बताने की गलती नहीं करतें और झूठे आश्वासन नहीं देते। इस प्रकार से विचार करने वाले, स्वस्थ अध्ययन करने वाले समाज में बहुत कम मिलेंगे। ऐसे लोग यदि कहीं दिखाई देते हैं तो उन्हें निरुपयोगी समझा जाता है, परन्तु उनकी महत्ता अतुलनीय है । वर्तमान प्रत्यक्ष राज- नैतिक क्षेत्र में ऐसे दूरदर्शी बहुत कम हुए हैं। मैं तो कहूंगा कि केवल एक ही हुए और वे थे सरदार पटेल । जब नेहरू जी “तिब्बत चीन का अंग है” इस तत्त्व को मान्यता देने का विचार कर रहे थे तो उन्होंने नेहरू जी को सावधान किया था कि यह मान्यता देना खतरे से खाली नहीं हैं। इसका परिणाम यह होगा कि चीन की और अपनी सीमा भिड़ जाएगी। उसकी सेना तिब्बत में आएगी और एक दिन वह आक्रमण कर देगी । उस समय दूरदर्शिता के अभाव में नेहरू जी ने उनकी राय नहीं मानी, परन्तु आाखिर वे ही दूरदर्शी सिद्ध हुए । १२-१३ वर्ष पश्चात् चीन ने हम पर आक्रमण करके हमें पराजित किया और हम समस्त संसार में उपहास का विषय बने, यह हम सब जानते हैं। इस दूरदर्शिता के उपांग की कुर्सी प्राप्त करने को तात्कालिक समस्या को हल करने वाले डिमोगोगिज्म से ‘लोकप्रियता’ प्रदान कराने वाले गुण के उपांग ने ग्रसित कर लिया है।

राजनैतिक जीवन के अंग का तीसरा उपांग है डिप्लोमेसी – दोत्य कर्म। दूसरे देशों में कौन से विद्यमान विचार प्रवाह प्रभावी हैं, भविष्य में कौन से प्रभावी हो सकते हैं और वे हमारे देश के लिए अनुकूल है अथवा प्रतिकूल इनका अध्ययन कर अनुकूल हो तो अधिक अनुकूल होने के लिए और प्रतिकूल हो तो कम प्रतिकूल होने के लिए हमारे देश को उनके प्रति कौन सी नीति का अवलम्बन करना चाहिये इस सम्बन्ध में मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए दूसरे देशों में दूतों की नियुक्ति की जाती है । उस दृष्टि से हमने कितनी कुशलता प्राप्त की है ? इस उपांग का कितना विकास किया है? हमें ज्ञात होगा कि १६६० के पूर्व चीन में नियुक्त हमारे दूत उस दृष्टि से निरुपयोगी रहे । बीस एक वर्ष पूर्व नेहरू जी कुछ पाश्चात्य देशों की यात्रा कर वापिस आते समय तुर्कस्थान गए थे। दो एक दिन के शासनारूढ लोगों से सलाह करके वे विमान से यहां वापिस आए। इस प्रवास के लिए उन्हें अधिक से अधिक ७-८ घण्टों का समय लगा होगा । इस अवधि में वहां क्रान्ति होकर शासनारूढ़ लोग पथभ्रष्ट हो गए और यह समाचार नेहरू जी को विमान से उतरते ही यहां मिला। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि तुर्कस्थान स्थित हमारे दूतवास को इसकी जानकारी नहीं थी, अन्यथा उस समय का प्रवास स्थगित करने की वे नेहरू जी को सलाह देते । यह तो भगवान की ही कृपा है कि नेहरू जी के रहते कोई उत्पात नहीं हुआ। यह घटना पुरानी है परंतु अभी १५ अगस्त, १९७५ को बंगला देश के प्रमुख शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या हुई उसका सारा वंश निर्मूल कर दिया गया। शासन का तख्ता पलट गया और हमारी सरकार को इसकी जानकारी तब मिली जब घटना पूर्ण हो चुकी थी । स्पष्टतः यह हमारे दूतावास की निष्क्रियता का ही परिणाम है। इन दूतावासों के कर्मचारियों को एवं दूतों को दौत्य का प्रशिक्षण या तो नहीं दिया जाता अथवा दिया जाता है तो वे अपने कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं करते, यह स्थिति है । इसका एकमात्र कारण यह है कि कुर्सी प्राप्त करने की तात्कालिक समस्या में उलझे रहने वाले लोगों को इस उपांग के विकास की ओर ध्यान देने के लिए फुरसत नहीं मिलती । तात्पर्य यह है कि इस उपांग को भी ग्रहण लगा है ।

राजनैतिक जीवन का चौथा उपांग है, प्रशासन, एडमिनिस्ट्रेशन का। इसके महत्त्वपूर्ण कर्तव्य हैं, जिले में कानून के अनुसार अच्छी व्यवस्था रखना, समाज में कौन से विचार हैं इसकी जानकारी रखना और किसी प्रकार का असन्तोष हो तो उसे दूर करने की दृष्टि से योजना बनाकर उसे क्रियाविन्त करना। परन्तु अपना नित्य का अनुभव है कि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं की कमी होने पर उनकी पूर्ति के लिए अथवा उचित दाम में वह समाज को प्राप्त हो इसके लिए कोई प्रबन्ध नहीं किया जाता। लोग जब प्रदर्शन करते हैं, शान्ति भंग होती है, तभी प्रशासन को उसका पता लगता है, उसकी आंख खुलती है । उस समय भी सब कुछ राजनीति पर केन्द्रित होने के कारण प्रशासन को सूझता ही नहीं कि वह क्या करे । उसे हमेशा यह देखते रहना पड़ता है कि राजधानी से कौन सा इशारा किया जा रहा है और तदनुसार वह काम करता है। आपातकाल में यह विशेष रूप से हमने अनुभव किया है कि प्रशासन अपनी प्रेरणा से कोई निर्णय नहीं करता था । कोई चाल नहीं चलता था, जैसे कि शतरंज के मोहरे हों । कोई राजा, वजीर, हाथी, घोड़ा अथवा ऊंट रहता है, परंतु वह कहने मात्र के लिए राजा और वजीर है। उनकी चाल चलने वाले खिलाड़ी अलग होते हैं। खिलाडी जब उठाकर रखेगा तब वह चलेगा । उसकी अपनी कोई चेतना नहीं, प्रेरणा नहीं, क्योंकि वह अचेतन है । हमारे प्रशासन के अधिकारी सचेतन होते हुए भी उनमें प्रेरणा का अभाव था और निर्णय करने की क्षमता नहीं थी । यह यद्यपि आपात्काल में प्रखर रूप से सामने आयी तथापि दूसरे समय में भी कम अधिक मात्रा में उनकी यही स्थिति है । दायित्व की अनुभूति का अभाव । अनूभूति हो तो दायित्व का पालन करने से कतराते हैं, हिचकते हैं। सोचते हैं शासन जैसा कहेगा वैसा करेंगे । पुनः अधिकांश जिला अधिकारियों की नियुक्ति निर्वाचन के दिनों में शासनारूढ़ दल की सहायता करने के लिए उनकी क्षमता को देखकर की जाती है। उनकी सहायता से उपकृत शासनारूढ़ दल के लोग भी उनके द्वारा कर्तव्यच्युत होने पर उन्हें क्षमा करने को तैयार रहते हैं । परिणामत: प्रशासन अच्छा नहीं रहता । अतः राजनैतिक जीवन के इस उपांग पर भी कुर्सी की तात्कालिक समस्या हल करने वाला उपांग हावी है। स्पष्ट है कि सारा एकांगी विकास है । इसके बाद दुबारा चुनाव जीतने की तात्कालिक समस्या को हल करने के लिए ये राजनैतिक नेता, मिल मालिक और मजदूरों में मतभेद उत्पन्न कराकर हड़ताल करा देते हैं। भिन्न-भिन्न जातियों में अथवा भाषा भाषियों में कलह पैदा करते हैं। इससे उनका आशय यह होता है कि उसके कारण एक विशिष्ट अंग के लोग चुनाव में उनका साथ दें उस दृष्टि से कुछ शक्ति वह जुटाना चाहते हैं। इस खोखले राजनीतिक ढंग से सोचने वालों की शक्ति की परिभाषा भी कुछ अनोखी है । जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं के अभाव अथवा वर्गगत खींचातानी के कारण समाज में असन्तोष होता है। इसका वे प्रचार कर लोगों को एक दूसरे के अथवा एक गुट को दूसरे गुट के विरुद्ध प्रक्षुब्ध करते हैं और राहत प्राप्त करने के लिए सभा जलूसों द्वारा प्रदर्शन करवाते हैं । उसमें बहुत बडी संख्या में लोग आ गए तो लगता है कि यह बहुत प्रभाव  रखते हैं । परंतु क्या वास्तव में वह शक्ति रहती है? यदि ऐसा होता तो उसे बार-बार ऐसी कसरत की आवश्यकता नहीं होती । कुछ समय बाद लोग भूल जाते हैं। उसे फिर असन्तोष की खोज में रहना पड़ता है । इस प्रकार की प्रक्रिया से क्या राष्ट्र की वास्तविक शक्ति निर्माण होती है ? कभी नहीं । इसका पहला कारण तो यह हैं कि वह शक्ति अस्थायी होती है। जैसे वर्षा में पहाड़ी नदी बहती है । बाढ आने पर वह इतनी प्रबल गति से बहती हैं कि मनुष्य तो क्या हाथी और बडी-बडी चट्टानों तक को बहा ले जाती है। वह बाढ कुछ ही घण्टों की रहती है। जिस मनुष्य के पास संयम और धैर्य है वह अगर चार घण्टे उस बाढ़ के किनारे खड़ा रहे तो बाढ में घुटने भर पानी हो जाता है और बडी आसानी से उसे लांघकर जा सकता है। अतः इस अस्थायी शक्ति को वास्तविक शक्ति नहीं कहा जा सकता ।

साथ ही दूसरी बात यह है कि जन असन्तोष के कारण उमड़ने वाली शक्ति में सहज द्वेष की हवा जरूर रहती है । असन्तोष प्रकट करने के लिए इस द्वेषकारी हवा का सहारा लिए बिना काम नहीं चलता, परंतु जहाँ द्वेष रहेगा वहां कभी भी स्थायी शक्ति का निर्माण नहीं हो सकता। जहां किसी के प्रति द्वेष के आधार पर तात्कालिक शक्ति खड़ी की जाती है, वहां जिससे व्यक्तिगत द्वेष किया गया था; उसके न रहने के पश्चात् ऐसी स्थिति निर्माण होती है कि लोग आपस में लड़ते हैं और नष्ट हो जाते हैं । द्वेष के आधार पर निर्माण की गई शक्ति द्वेष का विषय हटते ही आन्तरिक द्वेष निर्माण करने वाली सिद्ध होती है । जैसे अपने यहां मुसलमानों को संगठित करने के लिए उनके नेताओं ने हिन्दुओं के खिलाफ द्वेष पैदा किया। बाद में जब पाकिस्तान में हिन्दू नहीं रहे तो उन्होंने बंगला देशीय मुससमानों को पीड़ित करना आरम्भ किया। बंगला देश उनसे अलग हो गया और आज पाकिस्तान में जो चार प्रान्त हैं उनमें क्या समस्या है यह हम सब जानते हैं। इसका एकमात्र कारण है कि द्वेष की भावना आसुरी प्रवृत्ति होने से जहां रहेगी वहां स्थायी शक्ति का निर्माण नहीं किया जा सकता। स्थायी और ठोस शक्ति निर्माण करने के लिए समाज के प्रति भावात्मक प्रेम की आवश्यकता होती है और द्वेष में भावात्मक प्रेम नहीं पनप सकता ।

साथ ही यह भी सही है कि द्वेष के कारण विवेक भी नहीं रहता । क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, द्वेष पर आधारित शक्ति इस सम्बन्ध में सोच भी नहीं सकती । संयम भी नहीं रहता और संग्राम के अभाव में वह हानिकारक होती है। उदाहरण स्वरूप कल्पना कीजिये कि अनाज के अभाव की समस्या उत्पन्न होने के कारण कोई जुलूस निकाला,  वह अगर किसी अनाज के गोदाम या दुकान पर जाए तो हम समझ सकते हैं, परंतु वहां जाकर कानून अपने हाथ में लेकर लूटपाट करना उचित नहीं । वहां जाने के बदले अगर ऐसी भीड जनरल स्टोर की दुकान को लूट लेगी, कपड़े की दुकान जला देगी, बस फूंक देगी, रेल्वे लाईन उखाड़ देगी अर्थात विवेक न रहने के कारण क्या करना चाहिए, क्या नहीं, उसका विचार ही नहीं रहता । भीड़ और भीड़ का नेता दोनों नहीं सोच पाते कि यह जो नुकसान हुआ है वह जनता को अपनी जेब से ही देना पड़ता है । शासन कोई एक व्यक्ति नहीं है जो नुकसान पूरा करता रहे। इस सब नुकसान को पूरा करने के लिए शासन जनता से ही टैक्स के रूप में धन निकालता है, वसूल करता है। परंतु इसका उल्लेख करे कौन ? राजनीतिक नेता कहेगा कि ऐसी बात कह कर क्या मुझे लोगों की नाराजगी मोल लेनी है ?

पुनः ऐसी शक्ति अपने उद्देश्य के विरुद्ध ही काम कर जाती है। अनेक बार ऐसा होता देखा गया है और यह हमें सबक सिखाने वाला है। इस सम्बंध में रोचक उदाहरण है-फ्रेंच क्रान्ति का । अठारहवी शताब्दी के उत्तरार्ध में वहां बड़ी विषमता थी। एक ओर सम्राट और उसके सरदार ऐशो आराम में डूबे रहते थे और दूसरी ओर भूखी नंगी  जनता के लिए खाने को अन्न नहीं, पहनने के लिए कपड़े नहीं थे । यह सब देखने के बाद वहां के विचारकों को लगा कि इस अन्याय को दूर करना चाहिए। उसके लिए उन्होंने साहित्य सृजन किया । भाषण दिए और वहीं स्वतन्त्रता, समता, और बंधुता का नारा चल पड़ा। इससे इतना जन-असन्तोष उत्पन्न हुआ कि वहाँ के सम्राट लुई को सूली पर चढ़ा दिया गया। उसके वंश को भी समाप्त कर दिया गया। सरदारों को कत्ल कर दिया गया। एक बार जब द्वेष पर आधारित शक्ति उमड़ पड़ी और सामने द्वेष करने के लिए कोई रास्ता नहीं रहा, तो उन्होंने आपस में एक दूसरे का गला काटना आरम्भ कर दिया । अराजकता पैदा हुई । उस समय सेना का नेपोलियन नामक एक अधिकारी सामने आया । उसने अपनी कुशलता से सब को काबू में किया और स्वयम् सम्राट बन गया। लोग शांत हो गए। स्पष्ट है कि एक सम्राट के रूप में जो विषमता और परतंत्रता थी उसे दूर कर समता और स्वतंत्रता स्थापित करने के लिए किये गए इस सारे आन्दोलन की परिणति हुई पुनः दूसरे सम्राट् के हाथों में बागडोर सौंपने में, अर्थात् पुनः विषमता और परतंत्रता निर्माण करने में । अतः स्पष्ट है कि अपने उद्देश्य के विपरीत भी ऐसी शक्ति काम कर जाती है। इसका यह एक उद्बोधक उदाहरण है । असन्तोष निर्माण करने वाला “डेमगाग” यह सब क्यों करता है ? केवल इसलिए कि उसे अपनी कुर्सी मिल जाए ।

कभी-कभी ऐसे आन्दोलन का क्या परिणाम निकलेगा यह वह नेता भी नहीं जानता । संस्कृत में एक श्लोक है–

“यस्य कस्य तरोर्मूलं येन केनापि मिश्रितम् ।

यस्मै कस्मै प्रदातव्यं यद्वा तद्वा भविष्यति ।”

अर्थात् किसी वनस्पति की जड़ लो, अनुपात के रूप में किसी वस्तु के साथ उसे मिलाओ । किसी एक व्यक्ति को खिला दो तो कुछ न कुछ होगा । तो यह डेमगाग ऐसा सोचता है कि कुछ न कुछ तो होगा ही ।

कभी ऐसा भी होता है कि कुछ नहीं होता। वह शक्ति उस डेमगाग को धोखा देती है। उसके भी नियंत्रण में नहीं रहती । इस सम्बंध में मराठी के गीत पर व्यंग कर परम पूजनीय डाक्टर साहब वास्तविकता का बोध कराते थे। उनका स्वभाव था बैठकों में ऐसे मजाक एवं विनोद द्वारा स्वयं सेवकों के मन पर उच्च तत्व अंकित करना । उस गीत में एक चेला अपने नेता से कहता है–

“नको वळूनि पाहूं मागे चाल तु पुढारा । पहा तुझ्या मागे येतो चा।

अर्थात् “तू पीछे मुड़ कर मत देख, आगे बढ़ । देख मैं तेरे पीछे आता हूं, आगे बढ ।” इस रचना में नेता को बड़ी सद्भावना से आश्वस्त किया गया है। परम पूजनीय डाक्टर साहब कहा करते थे कि जनता का यह स्वभाव नहीं रहता कि नेता के पीछे जाए और इसलिए इस रचना पर व्यंग करते हुए वे कहते थे–

“न को वळुनि पाहू मागे चाल तू पुढारा । आणि मी जातो माघारा।

नेता को आश्वस्त करने के लिए पीछे मुड़कर देखने के लिए अनुयायी मना नहीं करता अपितु वह वापिस जाने वाला है, इसका नेता को पता न लगे इसलिए पीछे मुड़कर न देखने के लिए कहता है ।

इस दृष्टि से आपातकाल की स्थिति का अध्ययन करना ठीक होगा । इससे अपना कार्य ठीक प्रकार से समझने में सुविधा मिलेगी । अपने समाज ने पिछले २५-३० वर्षों में एक बहुत भारी गलती की कि एक ही दल को शासनारूढ रखा । परिणाम यह हुआ कि शासनारूढ दल, उसके डेमगाग कहे जाने वाले वर्ग की एवं नौकरशाही की सांठगांठ हो गई और उन्होंने खूब भ्रष्टाचार, अन्याय और पक्षपात किया। खूब पैसा कमाया। बेकारी बढी । धनवान और निर्धन में एक बड़ी खाई उत्पन्न हो गई । इन्हीं कारणों से जीवनोपयोगी वस्तुओं का मिलना कठिन हो गया। स्वाभाविक रूप से समाज के जो अच्छे लोग थे, उन्होंने सोचा कि इसमें से मार्ग निकालना चाहिए और अपने यहां के नेताओं के पास पहुंचे। नेताओं ने शासन को सलाह देनी चाही । लेकिन शासन में जो लोग थे वे पैसे कमाना चाहते थे और कुर्सी पर भी बैठे रहना चाहते थे, इसलिए बाद में आपातकाल भी लादा गया। इस प्रयोजन के लिए उन्होंने देश में दौरे किए, सभाएं की, उन सभाओं में लोग लाखों की संख्या में आए। नारे लगाए, तालियां बजाई, मालाएं पहनाई और जयकार किया । ऐसा लगा अब बडी भारी शक्ति खड़ी हुई है और अब कुछ न कुछ होगा, परन्तु क्या हुआ ? हम देखते हैं कि २५ जून, १९७५ को जैसे ही आपातकाल की घोषणा हुई और इन नेताओं को कारागार में बन्द किया गया वैसे ही ये सभा में आने वाले लोग अपने-अपने घर गए और अपने-अपने व्यवसाय में लग गए। भय का वातावरण छा गया। घर की दीवारें ही छत से भय खाने लगीं। यह बात कटु है, परन्तु सत्य है । उनको दुःख नहीं हुआ, ऐसा मेरा कहना नहीं है, दुःख हुआ, चोट पहुंची परन्तु कर्त्तव्य करने के लिए उनके कदम आगे नहीं बढे । उनका सबका सहयोग करने के लिए लोग आगे नहीं बढे । और उसका एक कारण यह है कि सहयोग के लिए आत्मीयता की आवश्यकता होती है। अगर बच्चा किसी मुसीबत में हो तो मां दौड़कर आगे जाती है। या मां बीमार हो तो बच्चा भी हर प्रकार से डाक्टर के पास जाएगा, सेवा शुश्रूषा करेगा, रात को जगेगा और माँ को आराम हो इसलिए प्रयास करेगा। तो इसलिए पारम्परिक सहयोग के लिए वास्तविक आवश्यकता होती है आत्मीयता की । आत्मीयता उत्पन्न होती है सहवास में से और फिर ध्येयनिष्ठा में से और इसलिए उस प्रकार को ध्येयनिष्ठा निर्माण करना, जिन लोगों में इस प्रकार की ध्येयनिष्ठा निर्माण हुई कि राष्ट्र का उत्थान करना है, मैं अपनी आत्माहुति का विचार नहीं करूंगा। इस प्रकार विचार न होने के कारण वे साहसपूर्वक कर्तव्य पथ पर बढ़ नहीं सके । किन्तु उनमें कुछ भावनाएं तो थीं । इसका प्रमाण यह है कि आगे जाकर जब चुनाव हुए तब इन्हीं नेताओं के इशारे पर सब ने काम किया, वोट दिए। परन्तु मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं कि अगर चुनाव घोषणा न होती तो क्या होता ? अथवा चुनाव की घोषणा होने के पश्चात् भी चुनाव स्थगित किए जाते तो क्या होता ? ये सब लोग अपना-अपना विचार करते रहते और उन्हें राहत पहुंचाने के लिए जिन नेताओं ने काम किया, वे कारागार में बन्द रहते । वास्तव में उन नेताओं पर जब आपत्ति आई थी तो उस आपत्ति से नेताओं को छुटकारा दिलाना लोगों का कर्त्तव्य था । इस दृष्टि से उन्हें कुछ करना चाहिए था। परन्तु उन्होंने नहीं किया और वे सब अपने-अपने घर चले गए। उन्होंने सहकार किया नहीं, यह कटु सत्य है । पारस्परिक सहकार के लिए पारस्परिक आत्मीयता की अपेक्षा होती है जो परस्पर नित्य संपर्क तथा ध्येय चिंतन से निर्माण होती है। स्पष्ट है कि प्रक्षोभ द्वारा निर्माण की गई हलचल वास्तविक शक्ति नहीं होती ।

जिन महापुरुषों ने समाज की शक्ति जागृत करने का इस प्रकार से प्रयास किया उनकी आलोचना करना मेरा उद्देश्य नहीं, क्योंकि उन्होंने किसी लालच वश ऐसा नहीं किया। वे तो चुनाव में खड़े भी नहीं हुए । उन्होंने सारा प्रयास निःस्वार्थ भाव से किया । अतः उनकी आलोचना करने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह सब वर्णन करते समय मेरा एक ही उद्देश्य है कि वास्तविक शक्ति का अधिष्ठान क्या ? स्वरूप क्या ? वह कैसे निर्माण की जा सकती है ?

इस सारे विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जिस प्रकार व्यक्ति की सर्वागीण उन्नति होना – यह तब कहा जाता है जब उसके शरीर, बुद्धि एवं मन का विकास होकर उसके पारिवारिक, व्यावसायिक एवं सामाजिक जीवन के अंगों का सन्तुलित विकास हुआ हो, उसी प्रकार राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति होना यह तभी कहा जा सकेगा जब राष्ट्र के भिन्न-भिन्न तबकों को और प्रत्येक तबके के प्रत्येक व्यक्ति का उसके कर्तव्य के अनुपात में विकास होगा अथवा उसे अपनी रुचि, पात्रता एवं अधिकार के अनुसार विकास करने का अवसर मिलेगा। साथ ही राष्ट्र जीवन के जो भिन्न- भिन्न क्षेत्र हैं उनमें कार्यरत लोगों को अपने विकास के साथ ही अपने लिए निर्धारित कार्य क्षेत्र को अपनी स्वतन्त्र प्रतिभा के अनुसार, प्रेरणा के अनुसार दूसरे किसी क्षेत्र के उस पर बिना हावी हुए विकास करने का अवसर मिलेगा। उपर्निर्दिष्ट जो एकांगी विकास हुआ है उसका कारण यह है कि मनुष्य में जो अहंकार रहता है, वह उसे दूसरों पर हावी होने को प्रवृत्त करता है। परिणामतः न तो उसका आत्मिक विकास होता है जिसमें अहंकार हो और न उसका आत्मिक विकास होता है जो दबाया जाता हो। इसलिए व्यक्ति में जो आत्मिक विकास का अभाव रहता है उसके कारण राष्ट्र दुर्बल बनता है, उसमें विकृति आती है। जिस व्यक्ति का आत्मिक विकास हुआ है वह दूसरे व्यक्ति को प्रलोभन वश अथवा भयवश नहीं दबायेगा अति समझा बुझाकर अपने त्याग द्वारा उसे जिस मार्ग से वह चाहे उस मार्ग से त्याग करने के लिए प्रेरित करेगा। इसके परिणाम स्वरूप इन दोनों प्रकार के लोगों का आत्मिक विकास हगा और उससे राष्ट्र की भी शक्ति बढेगी, लोग निर्भय होंगे। विवेक से एवं संयमपूर्वक कर्म करेंगे। इसे हम समझें और उसके निर्माण के लिए हम प्रयत्न करें। उस दृष्टि से विचार किया जाये तो समझ में आयेगा कि संयमी, विवेकशील, निष्ठावान, समर्पित जीवन कार्यकर्त्ताओं की अखण्ड परम्परा के रूप में राष्ट्र देवता के मन्दिर में एक अखण्ड ज्योति नन्दा दीप का जलना आवश्यक है । एक के बाद दूसरा, तीसरा इस प्रकार के कार्यकर्ता प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा से, प्रेरणा से, स्वतन्त्र रूप से परन्तु एक सूत्रबद्ध रूप में जहां खड़े रहेंगे वहीं राष्ट्र की शक्ति जागृत रहती है । यह कल्पना हृदय में रखकर परम पूजनीय डॉक्टर साहब ने कार्य प्रारम्भ किया और वह बाद में बढ़ा । उसका परिणाम आज हम देखते हैं कि इस व्यर्थ लादे गए आपातकाल में भी हम राष्ट्र की आंशिक  मात्रा में, परन्तु प्रभावी रूप से सेवा कर सके। हम जानते हैं कि आपात्‌काल लागू होते ही हमारे नेताओं को मीसा बंदी बनाया गया। शासन की कल्पना थी कि हम उत्पात करेंगे, परन्तु हमने संयम रखा। अपने कार्यकर्त्ता अपने घर गए परंतु आगे की योजना बनाते गए । जो मीसा बन्दी बने उनमें ९० प्रतिशत अपने लोग थे । फिर भारत सुरक्षा कानून के अन्तर्गत जो बन्दी बनाए गए उनमें भी ९० प्रतिशत अपने थे। जब सत्याग्रह की योजना बनी तब सत्याग्रह करने वालों में भी अपने लोग ९० प्रतिशत थे। फिर आगे की योजना बनाकर उसे क्रियान्वित करने हमने भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों के निमित्त एकत्र होना प्रारम्भ किया। कहीं भजन, कहीं रामचरितमानस का पाठ, कहीं सत्यनारायण पूजा तो कहीं वालीबाल अथवा कबड्डी के लिए हमारे लोग एकत्र होते रहे और उहोंने उन मीसा बन्दियों के लिए, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, धन संग्रह, अन्न संग्रह करके उनके परिवारों में वितरण करना आरम्भ किया। उस समय समाज ने भी बहुत साथ दिया, परन्तु देते समय कभी ऐसी शंका नहीं की, कि हम जो अन्न अथवा धन इन्हें देते हैं वह ये अपनी जेब में तो नहीं डालेंगे अपितु उन्होंने हमें देते समय इसी विश्वास के साथ दिया कि हम बिना पक्षपात किए वितरण करेंगे। हमारे स्वयसेवकों ने भी केवल स्वयं सेवकों के अथवा प्रशंसकों के घर नहीं दिया अपितु जिन्होंने अपना पहले विरोध किया था, उनके घर भी पहुंचाया। मुस्लिम एवं ईसाई बन्दियों के परिवारों को भी दिया। इसके अतिरिक्त अपने अनेक अज्ञातवास कार्यकर्त्ता उन दिनों के अत्याचारों का वर्णन छपवा कर उसे बांटते थे और लोग भी समाचार पत्रों की अपेक्षा उसे अधिक चाव से पढ़ते थे । इसके अतिरिक्त विदेश स्थित अपने स्वयंसेवक अपने यहां के अत्याचारों को विदेशी पत्रों में प्रकाशित करके शासन की तानाशाही का भण्डा फोड़ करते थे ।

यह अपने ढंग से हमने जो शासन का प्रतिकार एवं विरोध किया इसका एक मात्र कारण है संयमी, विवेकशील, निष्ठावान कार्यकर्ताओ की अखण्ड परम्परा । यह हमें स्वीकार करना ही होगा कि पांच दशकों तक समाज को संगठित करने का हमने जो प्रयास किया उसकी तुलना में हम समाज को उतना संगठित नहीं कर पाए, जितना हमें करना चाहिए था। न राष्ट्र का स्वास्थ्य खराब रहता और न आपातकाल लादने का शासन साहस ही करता । परन्तु सबको यह तो मान्य ही होगा कि आखिर शासन का जो कुछ अविरत प्रतिकार किया गया वह केवल संघ के द्वारा ही किया गया।

इस सब का एक मात्र कारण यह है कि हमने राष्ट्र से भावामत्क प्रेम करने वाले विवेकी, संयमी, दूरदर्शी, ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता निर्माण किए है। जो अपनी रुचि, पात्रता तथा अधिकार के अनुसार भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हैं और कार्य करते समय अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र प्रतिभा से अपने कार्यक्षेत्र का विकास करने की आकांक्षा रखते हैं और पारस्परिक सहयोग से कार्य करते हैं।

कार्यकत्ताओं का गुट भी हम कैसे निर्माण कर पाए इसका हमें विचार करना है। इसका एक मात्र उत्तर है-शाखा के रूप में चलने वाली हमारी सामूहिक उपासना । उसके माध्यम से मन पर ध्येय निष्ठा का नित्य संस्कार होता है। प्रतिदिन जो सबका सहवास प्राप्त होता है वह आत्मीयता का निर्माण करता है और परिणामतः सहज रूप से पारस्परिक सहयोग भी प्राप्त होता है। पुनः ऐसी उपासना करते समय एक ही अभिलाषा पैदा की जाती है-राष्ट्र के पुनरुत्थान की और सेवा की, जो हमारी आत्मिक उन्नति करेगी। यह एक पवित्र भाव लेकर हम स्वयंसेवक बने हैं, किसी प्रकार के अन्य व्यक्तिगत लाभ  की आसक्ति न रखते हुए सर्वकर्म फल त्याग की भावना से अहंकार रहित होकर हम यह कार्य नित्य करते हैं। यह एक कर्मयोग है, जो अल्पमात्रा में करने से भी  महान आपत्तियों से रक्षा कर सकता है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

“स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्” गीता-२/४०

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

HinduWay.Org

Our ebook website brings you the convenience of instant access to a diverse range of titles, spanning genres from fiction and non-fiction to self-help, business.

Our Books

Most Recent Posts

SHRI GURUJI | परम पूजनीय श्रीगुरुजी

परम पूजनीय श्रीगुरुजी की और उनकी वेवलेंथ एक थी ऐसा कहा जा सकता है। ऐसे में श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी की दृष्टि, मानस व बुद्धि से श्रीगुरुजी का संक्षिप्त सिंहावलोकन सभी देशभक्तों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होगा।

Category

Our ebook website brings you the convenience of instant access.

Features

All Blogs

Amazon Books

About Us

Help Center

Books

Dattopant Thengadi

Deendayal Upadhyaya

Best Sellers

Newsletter

copyright © 2023 All Rights Reserved || HinduWay