( सुख की अवधारणा, भाग-एक, बौद्धिक वर्ग जयपुर दिनांक 14.06.1974)
अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हम स्वयंसेवकों पर जो जिम्मेदारियां डाली है उसमें सबसे कठिन जिम्मेदारी, जो मैं कठिन समझ रहा हूँ, वह है कि स्वयं अपने लिए विचार करने की। स्वयं अपने लिए विचार करना यह बहुत कठिन काम होता है। यदि निर्णय देने वाला कोई और हो, मार्गदर्शन करने वाला कोई और हो, तो फिर उसके मार्गदर्शन के अनुसार, फिर चाहे जितनी दौड़-धूप हम करें, इसमें इतनी तकलीफ नहीं होती, लेकिन स्वयं विचार करना, निर्णय लेना इसमें बहुत कष्ट होता है। अब इस तरह का सबसे कष्टदायक काम जो विचार करने का है, वह भी एक जिम्मेदारी के रूप में, अपने पास है।
अपने परम पूजनीय श्री गुरुजी ने एक बात कही थी कि “हम सब ट्रस्टी है।” पहली बार शायद यह जब हम लोगों ने सुना तो हम सभी को यह लगा कि यह जो एक ट्रस्टीशिप की कल्पना पूज्य महात्मा गांधी जी ने दी थी कि जो उद्योगपति है, उद्योग वाले हैं, पैसे वाले हैं, इन सब लोगों ने अपने-अपने उद्योग या पैसों के लिए, हम पूरे समाज के एक ट्रस्टी है, ऐसा समझकर व्यवहार करना चाहिए। यह जो एक ट्रस्टीशिप की कल्पना थी, शायद वही वह बोल रहे हैं, ऐसा सबको लगा। अब वह तो एक कल्पना श्री गुरुजी के मन में थी ही, किंतु उनका प्रमुख उद्देश्य दूसरा था, कि केवल उद्योगपति, केवल धनी, पैसे वाले इनके बारे में नहीं, तो हम में से हर एक ट्रस्टी है और इससे उनका मतलब यह था कि जो कुछ भी हमारे पास भगवान ने दिया है, यह साढे तीन हाथ का शरीर है, बुद्धि है, मन है, मन की भाव भावनाएं है, आत्मा है, जो कुछ भी भगवान ने दिया हुआ है, तो यह भगवान का है, मेरा नहीं और मैं केवल ट्रस्टी के रूप में इनका उपयोग कर रहा हूँ। यह स्वामित्व केवल भगवान का है, मैं इन सब का ट्रस्टी मात्र हूँ। यह समझ कर अपने शरीर का, बुद्धि का, मनका, सभी गुण-विशेषों का उपयोग ट्रस्टी के नाते, विश्वस्त के नाते उपयोग करना, इस अर्थ में उन्होंने कहा कि हम सब ट्रस्टी हैं।
अब यह स्वयं अपने लिए विचार करने के लिए बाध्य करने वाली बात है। एसा यदि एक बार मान लिया कि यह जितना भी है; शरीर से लेकर तो मन, बुद्धि, आत्मा तक यह सब बातें भगवान की है, भगवान ने दी हुई है और हमारे पास केवल एक ट्रस्टी के नाते उपयोग के लिए रखी हुई है। इनका ज्यादा से ज्यादा अच्छा उपयोग कैसे हो सकता है? यह विषय यदि सामने आता है तो यह बड़ी जिम्मेवारी है।
मैंने कहा कि यदि कोई सीधा बताने वाला ही होता कि ऐसा-ऐसा उपयोग करना है, हम उसके अनुसार चलते। अब हमने स्वयं इसके बारे में विचार करके और मन, बुद्धि, शरीर सब का ज्यादा से ज्यादा उपयोग हमें ट्रस्टी के नाते कैसे करना, यह यदि सोचना है तो हमारे लिए यह एक बड़ा बोझ है, क्योंकि यह विषय बहुत कठिन है। यदि मुझे यह बताया गया कि मुझे कहाँ पहुंचना है? तो मैं उस दिशा में आगे बढ़ सकता हूँ, लेकिन अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं तय करने का काम मुझे दिया गया तो उसमें मुझे सबसे ज्यादा असुविधा प्रतीत होती है। अब यदि स्वयं अपने जीवन का लक्ष्य तय करना है, किस तरह से जीवन बिताने से एक अच्छे ट्रस्टी के नाते हम व्यवहार कर सकें, ऐसा होगा, यह देखना है।
वैसे एक सुविधा की बात हमारे यहाँ श्रेष्ठ महापुरुषों ने कही है, उन्होंने कहा कि आप अपने जीवन में जो कुछ भी इच्छा रखेंगे यदि वह सत्य संकल्प है; तो भगवान पूरी करेगा। हर एक इच्छा भगवान पूरी करेगा, यदि वह सत्य संकल्प है, तो ऐसा हमारे यहाँ श्रेष्ठ महात्माओं ने कहा है कि सत्य संकल्प का दाता भगवान होता है। उन्होंने यह भी कहा की भगवान कल्पतरु के समान है। कल्पतरु के नीचे, कल्पवृक्ष के नीचे खड़े होकर अप जो भी कामना करेंगे वह कामना पूरी हो जायेगी। आपने कहा कि मिठाई आनी चाहिए तो मिठाई आ जाएगी। आपने कहा कि कड़वी चीज आनी चाहिए तो कड़वी चीज आ जाएगी। आपने विश्वास रखा कि विजय प्राप्त करेंगे, तो विजय आ जायेगी। आपने संदेह रखा कि शायद पराजित हो जाएंगे, तो परास्त हो जाएंगे। जो भी इच्छा आप मन में रखेंगे वह इस कल्पवृक्ष के कारण पूरी हो जाती है। लेकिन अब इच्छाएं कौन सी रखना एक सामान्य व्यक्ति के नाते, मेरे मन में यह प्रश्न सामने आता है कि कौन सी इच्छाएं रखना? कि मैं इस जीवन में क्या करना चाहता हूँ? क्या बनना चाहता हूँ? कौन सा काम मैं अपने लिए, कौन सा काम में औरों के लिए करना चाहता हूँ? अपनी इच्छा क्या है? इसका यदि विचार किया तो आप में से हर एक जरा विचार करके देखें, तो आश्चर्यजनक बात ख्याल में आएगी। सर्व सामान्य व्यक्ति का यही हाल है कि अलग-अलग मौके पर अलग-अलग इच्छाएं मन में आती है। जो शायद एक दूसरे से विरोधी भी होती है। उदाहरण के लिए देखिए जब मैं बच्चा था मुझे स्मरण है। हम तो गरीब परिवार के थे, पहली बार नागपुर में किसी बड़े पैसे वाले धनी आदमी के यहाँ एक दिन के लिए रहने का मौका आया, वहाँ की सारी सुख सुविधाएं, वह सारा जब देखा तो मेरे मन में इच्छा हुई कि जीवन एक गरीब के नाते बिताना व्यर्थ है। ऐसे जहाँ सब सुख सुविधाएं हो, सारा आराम से जीवन चलता हो, बड़ा बंगला हो, ऐसा कुछ होना चाहिए माने ऐश्वर्यशाली जीवन होना चाहिए, मन में प्रबल इच्छा हुई। फिर कुछ दिन गए हमारे गांव में एक आचार्य आए, गैरिक वस्त्र पहनने वाले, बहुत उनके भक्त थे। फिर लोगों ने उनकी पादपूजा वगैरह की। मैं छोटा बच्चा ही था, जब इतने बड़े-बड़े लोग, बड़े-बड़े बंगलों में रहने वाले, बड़ी-बड़ी हवेली में रहने वाले, यह भी इनकी पादपूजा करते हैं, देख लिया तो यह विचार मन में आया कि हम भी ऐसे बने तो अच्छा हो। यानी हम भी जरा गैरिक पहन लें, आचार्य बनें और यह सारे लोग आयेगें और हमारी पादपूजा करेगें, बड़ा अच्छा होगा। यानी यह विरोधी, परस्पर विरोधी बातें हैं। एक तरफ तो ऐश्वर्याशाली जीवन ऐसा बितायें दूसरी तरफ वैराग्यशाली जीवन बितायें लेकिन दो परस्पर विरोधी भावनाएं मन में आयी। माने जब किसी सेठ साहूकार का जीवन देखते हैं तो लगता है कि ऐसा ही जीवन हो और श्रेष्ठ सन्यासी आचार्य का जीवन देखते हैं, तो लगता है कि ऐसा ही जीवन हो।
अमेरिका में आपने सुना होगा कि एक पिता-पुत्र रुजवेल्ट अमेरिका के प्रेसिडेंट हो गए। उनमें से जो जूनियर रुजवेल्ट हो गए उन्होंने अपने पिता के बारे में लिखा था कि उनके मन में एक कमजोरी रहती थी। कमजोरी क्या थी? कि जिस समय जो व्यक्ति जनता के आकर्षण का केंद्र बना हुआ होगा, उस व्यक्ति के स्थान पर मैं होता तो अच्छा होता, ऐसा उनको लगता था। तो उन्होंने कहा कि यदि किसी वर-देवता का जुलूस निकलता है, याने Bridle Procession होता है, तो वर की ऐसी शोभायात्रा निकलती, बग्गी वगैरह है, आराम से दोनों बैठे है और देख लिया कि लोग भी बड़ी मात्रा में वहाँ शामिल हो गए हैं, शोभायात्रा में, तो बोले कि हमारे पिताजी को लगता था कि वर देवता के स्थान पर मैं होता तो बड़ा अच्छा होता। क्योंकि सबके आकर्षण का केंद्र कौन है ,वह वर देवता है, तो उनको लगता था कि वर देवता के स्थान पर मैं होता तो बड़ा अच्छा होता, लेकिन मान लीजिए दूसरे दिन सवेरे यदि शव यात्रा निकलती है और वह Coffin भी बड़ा अच्छा सजा-धजा ऐसा Coffin यदि है, और लोग भी बड़ी संख्या में वहाँ है, तो फिर उनको लगता था कि Coffin में जो प्रेत है या शव है उसके स्थान पर मैं होता तो कितना अच्छा होता, क्योंकि उस समय जनता के आकर्षण का केंद्र यह प्रेत बना हुआ है, इसके स्थान पर मैं होता तो कितना अच्छा होता, यह उनके पिताजी को लगता था। अब यह थोड़ा सा Exaggerated मालूम होता होगा, लेकिन मैं समझता हूँ सर्व साधारण व्यक्ति का यही हाल है कि जिस समय जिस चीज को वह देख लेता है, वैसा ही बनने की इच्छा हो जाती है।
मेरा ख्याल है कि आप में से भी हर एक ने अनुभव किया होगा। अब संघ कार्यालय में आते हैं, प्रचारक का जीवन देखते हैं तो लगता है कि ऐसा ही जीवन बिताना चाहिए और फिर दूसरी तरफ जाते हैं, आराम से जीवन व्यतीत करने वालों को देखते हैं, तो सोचते हैं कि प्रचारक जीवन में क्या रखा है? यह तो भिखारीपन है। यह जरा आराम से, ठाट से अपनी मोटर कार वगैरह लेकर घूमना चाहिए। इधर-उधर दोनों बातें मन में आती है। दोनों में से एक Sincere है, दूसरी Insincere है, दोनों में एक हृदय से है और एक दांभिकता है, ऐसी बात नहीं, अलग-अलग मौके पर अलग-अलग इच्छायें मन में आती है। अब भगवान कल्पवृक्ष तो है, लेकिन वह एक ही दिशा में जाने वाली इच्छा होगी तो उसे पूरा करते हैं। परस्पर विरोधी दिशा में जाने वाली इच्छाएं कैसे पूरी करेंगे? इसलिए जहाँ यह बात सही है कि हमारी इच्छाओं की पूर्ति भगवान जरूर करेंगे, वहाँ हमें यह चयन करने की आवश्यकता है कि एक दिशा में जाने वाली इच्छाएं, हम कोई तो भी चुन लें। किसी भी एक दिशा में जाने वाली हो। माने कौन सी दिशा रहे? क्या दिशा रहे? तो यह तो हर एक को अपनी-अपनी पसंदगी का सवाल है, लेकिन जो इच्छाएं हम धारण करते हैं वह एक दिशा में जाने वाली हो, तब तो सभी इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है। अब परस्पर विरोधी इच्छाएं रही तो यह भी नहीं होगा, वह भी नहीं होगा माने, “माया मिली न राम’ इस तरह की अवस्था जीवन में हो जाती है, इसलिए बड़ी बारीकी से, शांतता से, गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि आखिर में हम जीवन में क्या चाहते हैं? हमें क्या करना है? हमारी क्या इच्छाएं हैं? हमारे द्वारा कौन सा Contribution होना चाहिए? ऐसा हम समझते हैं? बहुत गहराई में जाकर सोचने की आवश्यकता है।
अब हम देखें कि तरह-तरह के जीवन हमारे सामने हैं। कुछ लोगों ने उपभोग लिया है; कुछ लोगों ने त्याग लिया है, लेकिन हर एक व्यक्ति, चाहे त्याग करने वाला हो या भोग लेने वाला हो, चाहे उदात्त हो, चाहे अनुदार हो, हम देखें कि हर व्यक्ति के काम के, जीवन के, पीछे की प्रेरणा क्या होती है? तो एक बात स्पष्ट है कि सभी के पीछे प्रेरणा सुख की होती है, इसमें कोई संदेह नहीं। हमारे यहाँ यह बात मानी गई है। सभी श्रेष्ठ पुरुषों ने इसे स्वीकार किया कि जो प्रेरणा है वह सुख की है। सुख की ओर आदमी दौड़ता है। हर प्राणी सुख की ओर दौड़ता है। अब इतना यदि आसान है कि दिशा निश्चित हो गई, सुख की ओर जाना है, तो फिर सभी लोग एक तरह से, एक ही दिशा में जा सकते हैं, इसमें आपत्ति क्या है? आपत्ति इसलिए आती है कि सुख कहाँ है? इसके विषय में तरह-तरह के विचार होते हैं, मतभेद होते हैं। अलग-अलग लोगों में मतभेद होते हैं ऐसी बात नहीं है तो, स्वयं अपने ही मन में अलग-अलग समय पर अलग-अलग विचार सुख के विषय में आते हैं, क्योंकि सुख भी तरह-तरह का होता है। एक तात्कालिक सुख होता है। एक लम्बा टिकने वाला सुख होता है। एक चिरंतन सुख होता है। हम मामूली उदाहरण लें कि मुझे डायबिटीज है, डॉक्टर ने कहा है कि भाई तुम मीठी चीजें मत खाओ, क्योंकि मीठी चीजें खाने से एक सेकंड तो अच्छा लगेगा जिव्हा पर, बाद में रात भर बेचैनी रहेगी, Insulin का Injection लेना पड़ेगा। अब मेरे सामने रबड़ी आती है, मैं रबड़ी पसंद करता हूँ। अब सुख याने क्या है? मैं विचार करूं, रबड़ी खाना यह मेरे लिए सुख की बात है। तात्कालिक सुख होता है। लेकिन मैं यदि अभी रबड़ी खाता हूँ, तो दो सेकंड तो जिव्हा को स्वाद अच्छा लगेगा, रात भर दु:ख का अनुभव होगा। अब अभी रबड़ी खा लेना या रात भर दु:ख अनुभव करना, यह सुख है या अभी क्षणिक सुख का त्याग करना, रात भर आराम की नींद लेना यह सुख है? यह प्रश्न मेरे सामने आता है। हम में से बहुत सारे विद्यार्थी हैं। हमारे सामने भी सुख क्या है? प्रश्न आता है। अब परीक्षायें आती है, आपको उसमें पढ़ना पड़ता है। अब पढ़ने में सब लोगों की रुचि तो नहीं होती। अब बहुत लोगों को जबरदस्ती से ही पढ़ाई करनी पड़ती है। अब मन में प्रश्न आता है कि भाई इच्छा नहीं है, अच्छा सिनेमा है, नाटक है, कहीं और भी अच्छी बातें चल रही है और यह सारी छोड़कर केमिस्ट्री-फिजिक्स पढ़ते रहे, शुष्क विषय है, ड्राई, इसमें ही अपना सारा जीवन बिता दें? इससे तो अच्छा है कि कोई अच्छी पिक्चर हो तो वहाँ देखने के लिए जाए। अब एक तरफ पिक्चर है, एक तरफ कल की परीक्षा है, यह फिजिक्स जैसा ड्राई सब्जेक्ट, शुष्क विषय मुझको पढ़ना है। अब सुख किस में है यह देखा जाए? वैसे देखा जाए तो यह ड्राई विषय है, उसको छोड़ कर पिक्चर जाना मुझे सुख देता है। तुरंत सुख देने वाली यह बात है। लेकिन यह क्षणिक सुख में लेता हूँ, तो फिर इस समय परीक्षा पास करने के बाद जो सुख मुझे मिलने वाला है, उस सुख में से मुझे वंचित रहना पड़ेगा। तो सुख आज पिक्चर में जाना यह सुख होगा या आज का पिक्चर का सुख छोड़ कर पढ़ाई करना, और कल के सुख के लिए तैयार हो जाना, इसमें सुख क्या है यह मुझे तय करना पड़ेगा?
हम सोचते हैं कि जिनके पास बहुत पैसा है, बड़े सुखी लोग हैं। ऐसा हम सोचते हैं। अब वास्तव में भोग और त्याग इसमें से कौन सा आदर्श अच्छा है? इस बात को छोड़ भी दिया जाए तो भी, पैसा कमाना ही केवल जिनका काम है उनके भी जीवन की ओर यदि आप देखेंगे, आपको ऐसा दिखेगा, कि लगातार परिश्रम करते रहते हैं, उपभोग की प्रवृत्ति बहुत कम होती है। एक घंटा भी या थोड़ा समय मिला तो ऐसा नहीं कि थोड़ा आराम से बिताएंगे। अपने पुराने हिसाब की जो बहियां है, जो सारे बही खाते हैं, उनको निकाल लेंगे। माने वह आराम से नहीं रह सकते। लगातार काम करते रहते हैं, इतना काम करते रहते हैं कि जैसा तुलसीदास जी ने कहा है-
डासत ही गइ बीति निसा सब , कबहुँ न नाथ! नींद ! भरि सोयो ॥
(विनय पत्रिका १७४)
कि बिछौना तैयार करने-करने में ही सारी रात बीत गई, यह सोच कर कि अच्छा बिछोना तैयार करेंगे, सो जाएंगे तो बिछौना तैयार करते-करते ही सारी रात बीत गई और एक क्षण भी मैं सो नहीं सका। अब उन्होंने तो आध्यात्मिक अर्थ में कहा है लेकिन यह आर्थिक अर्थ में भी इनका यही हाल रहता है कि सारा का सारा जीवन सुख की खोज करते-करते, सुख के लिए तैयारी करते-करते ही जीवन निकल जाता है और अंतिम क्षण में वे देखते हैं कि सुख नाम की चीज मिली ही नहीं। सुख के पीछे दौड़ने में ही सारा जीवन बिताया गया ऐसा दिखाई देता है। लेकिन एक बात निश्चित है, वे तात्कालिक सुख छोड़ते हैं, अखंड परिश्रम करते हैं।
अब यह प्रश्न है कि भाई सुख बोलने के बाद भी, सुख कौन सा है? क्षणिक सुख, ज्यादा देर तक टिकने वाला सुख, चिरंतन सुख, कौन से सुख की और हमारी प्रवृत्ति है, यह बात अपने सामने आती है। अब ऐसा हम देखें, तो व्यवहार चतुर लोग तुरंत प्राप्त होने वाले सुख को अच्छा मानते हैं, लेकिन सभी लोग ऐसा नहीं मानते हैं। अब मुझे स्मरण है कि एक मेरा साथी था, वह टीचर बन गया। बाद में अपने संघ पर बैन वगैरह आया तो उसके मेनेजमेंट ने उसको बुलाया। अब यह अच्छा स्वयंसेवक, मेरे साथ काम किया हुआ; तो कहा कि भाई देखो गवर्नमेंट से सर्कुलर आया है और उन्होंने कहा है कि जो संघ से संबंधित होगा तो वह अपने स्कूल में नहीं चल सकता, तो आप तो लिख कर दीजिए कि हमारा संघ से मेरा कोई संबंध नहीं है, तो उसने कहा कि भाई कि मैं कल जवाब दूंगा। मकान में आए, सोचा, बहुत व्यवहार चतुर पुरुष था। और उसने लिख दिया कि पहले भी मेरा संबंध नहीं था, बाद में भी नहीं रहेगा। बाद में हमारी मुलाकात हुई। तो उन्होंने कहा कि भाई यह तो व्यवहार है, आप नहीं जानते, आप तो प्रचारक हैं, आपका व्यवहार से संबंध ही आता नहीं। व्यवहार में तो ऐसी बातें चलती रहती है। यह सही है, व्यवहार चातुर्य के नाते देखा जाए तो यह बात सही है, लेकिन हम जानते हैं कि ऐसे कई पागल लोग हैं कि जो व्यवहार चातुर्य जानते ही नहीं। जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं करते। अब हमारे यहाँ श्रेष्ठ उदाहरण बड़ा प्राचीन काल का दिया जाता है। वह एक उदाहरण के रूप में, आदर्श के रूप में हमारे सामने रखा गया है। वह माने राजा हरिश्चंद्र का। उन्होंने कहीं स्वप्न में वचन दिया था, आजकल तो जागृत अवस्था में, कागज पर जो लिखकर वचन दिए जाते हैं, उनका भी पालन नहीं किया जाता, लेकिन उन्होने स्वप्न में उन्होंने दुर्वासा को वचन दिया था कि मैं मेरा राज्य तुझे दूंगा और जब दुर्वासा ऋषि पहुंच गए तो उनको लगा कि स्वप्न में दिया होगा, लेकिन मेनें वचन तो दिया था, तो अपना राज्य इनको देना चाहिए, और दे दिया। अब व्यवहार चतुरता के नाते देखें तो वह पागलपन था कि नहीं? अरे स्वप्न में तो हम कई बातें देखते हैं, कई बातें हम बोलते हैं, वह सारी बातें सच थोड़ी होती है। लेकिन ऐसे पागल लोग हमारे देश में हो गए। वह एक बार वचन दिया तो दिया, अब उसमें फर्क नहीं हो सकता चाहे वह स्वप्न का भी वचन क्यों न हो? ऐसे लोग हो गए।
अब विदेशों में भी कुछ उदाहरण आते है। हममें से कुछ लोगों ने सोक्रेटीज का नाम सुना होगा। वह कुछ प्रतिपादन करता था। सोक्रेटीज को ऐसा लगता था कि मेरा जो प्रतिपादन है, वह सत्य प्रतिपादन है। वहाँ के जो अधिकारी थे उन्होंने यह कहा कि तुम यह प्रतिपादन नहीं कर सकते। प्रतिपादन यदि तुम करोगे तो तुमको विष अर्थात जहर देकर मार दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि तुम मुझे मार सकते हो, लेकिन मेरा यह सत्य प्रतिपादन करना बंद नहीं करूंगा। और फिर उनके जीवन में आता है कि उनको जेल में रखा जाता है और जिस दिन उनको ‘हेमलोक’ इस नाम का जहर देने वाले थे। उस दिन उनके एक शिष्य ने कहा, उन दिनों ग्रीस में एक ऐसी व्यवस्था थी कि मान लीजिए कि किसी को जहर देकर मारने की सजा हो गई, तो उसके स्थान पर और किसी व्यक्ति को दे कर, उस को बचाया जा सकता था। माने उसके स्थान पर और किसी को वहां बलि चढ़ा देना और इसको वापस ले लो। तो उनके एक शिष्य ने कहा कि मेरा नौकर तुम्हारे स्थान पर बैठा देता हूँ, तुमको मैं रिलीज कर देता हूँ, तो उन्होंने कहा कि नहीं! वह नौकर बिठाने की जरूरत नहीं है। मैं स्वयं मरना चाहता हूँ। मैं यदि सत्य प्रतिपादन करना चाहता हूँ, तो उसके लिए मैंने स्वयं ही, जहर लेकर मरना है। यही ज्यादा उचित है। यह कहते हुए, आराम से उन्होंने हेमलोक नाम का जहर ले लिया और मर गए। अब व्यवहार चतुरता के नाते देखें तो यह पागलपन है कि नहीं? जब सरकार ने कहा, लोगों ने कहा कि प्रतिपादन मत करो, बोल देते, ‘अच्छा भाई छोड़ दिया’, हार ली और झगड़ा टूटा, इसमें कौन सी बड़ी बात है। और फिर अपने ढंग से जब कभी सुविधा हो जाएगी तब फिर अपना प्रतिपादन शुरू कर देते। लेकिन ऐसा नहीं किया तो, अपने सत्य प्रतिपादन को कायम रखने के लिए जहर लेकर प्राण त्याग करना उन्होंने पसंद किया लेकिन सत्य प्रतिपादन नहीं छोड़ा। अब हर एक प्राणी की, हर मनुष्य की यह प्रवृत्ति रहती है कि वह सुख की ओर जाता है, इसमें कोई शक नहीं। कोई अगर हमें बताएगा कि साहब वह जानबूझकर दु:ख को लेने वाला कोई आदमी है तो मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। लेकिन सोक्रेटीज ने जिस समय विष लिया तो उस समय उसके सामने कौन से विकल्प होंगे? एक तो विकल्प यह होगा कि सत्य प्रतिपादन को छोड़ देना और जीवित रहना, दूसरा होगा कि सत्य प्रतिपादन चलाना और प्राण त्याग करना। और यदि उन्होंने विष ग्रहण करना और मरना स्वीकार किया तो इसका मतलब यही होता है कि अपना सत्य प्रतिपादन छोड़कर जिंदा रहने में उनको जितना दु:खहोता, उससे कम दु:ख उनको प्राण त्याग करने में होता है, माने उनके लिए प्राण त्याग करना यह कम दु:ख देने वाली घटना थी और सत्य प्रतिपादन करना छोड़ देना यह ज्यादा दु:ख देने वाली घटना थी, इसलिए उन्होंने प्राण त्याग करना स्वीकार किया यह बात स्पष्ट है।
अब इस तरह के उदाहरण है कि प्राण त्याग करना भी कम दु:खदायी घटना, लेकिन हम अपना सिद्धांत नहीं छोड़ेंगे, अपना तत्व नहीं छोड़ेंगे। हम जानते हैं कि ईशा के बारे में कहते हैं कि शैतान ने उनको कहा कि हम तुमको सारी दुनिया का राज्य देते हैं, दुनिया के सभी राज्यों पर तुम्हारी प्रभुसत्ता स्थापित होगी, शर्त इतनी है कि तुम अपना सिद्धांत छोड़ दो। उन्होंने अपना सिद्धांत छोड़ने से इंकार कर दिया। अब देखना चाहिए कि हर एक आदमी सुख की ही दिशा में जाता है। सारे संसार का राज्य उनको प्राप्त हो, किंतु उसमें जितना सुख नहीं जितना चाहे सूली पर चढ़ना बाध्य हो जाए, मैं अपना सिद्धांत लेकर सूली पर चढ़ूंगा, इसमें उनको ज्यादा सुख था, यह बात स्पष्ट होती है।
अब अपने यहाँ कितने ही उदाहरण है, लोग कहते हैं कि भाई सुख काहे में है? अलग-अलग बातों में लोग कहते हैं। कोई कहता है पैसे में सुख है, कोई कहता है उपभोग में सुख है, अर्थ काम में सुख है, ऐसा कहा जाता है, लेकिन सबके लिए समान रूप से लागू नहीं होता, ऐसा दिखता है। हमारे इतिहास में आता है कि हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाले मोहम्मद गजनी ने कई बार आक्रमण किया। यहाँ की संपत्ति लूट कर ले गया, लेकिन उनके जीवन में ऐसा आता है कि जब मरने की बारी आयी तब वह रोने लगा, काहे के लिए रोने लगा? तो जितनी संपत्ति उन्होंने इकट्ठा की थी, लूटमार करके वह देख कर रोने लगा कि मैंने इतनी संपत्ति इकट्ठा की लेकिन यह सारी छोड़कर मुझे जाना पड़ रहा है, इसलिए रोने लगा। अब इतनी संपत्ति का वह स्वामी था, लेकिन मरने के समय दु:खहुआ। दु:खइसलिए हुआ कि मुझे जाना पड़ रहा है, यह सारा छोड़कर। तो संपत्ति ने उसको मरते समय सुख नहीं दिया, दु:ख दिया ऐसा दिखता है। एक और उदाहरण आता है, एक बड़े दार्शनिक का, कि जो संपत्ति की फिक्र नहीं करता था। कहते हैं कि यह जो अलेक्जेण्डर सिकंदर बादशाह, बहुत बड़े हो गए। उनके राज्य में एक दार्शनिक थे, Diogenes (Diogenes and Alexander) उनका नाम था। ग्रेट अलेक्जेंडर ने सुना कि मेरे राज्य में यह बड़ा दार्शनिक है तो उसको भी अभिमान हुआ, गर्व हुआ कि मैं भी कितना बड़ा हूँ कि मेरे प्रजा में ऐसे बड़े दार्शनिक है, इसी में अंहकार, तो उसको देखने के लिए वह गया। अब Diogenes को पहले उसने मैसेज भेजा। Diogenes की आदत ऐसी थी कि जब तक सूरज आकाश में है तब तक वह टब-बाथ लेता था। टब-बाथ का मतलब है कि पानी के टब में बैठकर सूरज की किरण अपने शरीर पर लेना। तो पहले दिन उसको मैसेज भेज दिया कि भाई बादशाह आ रहे हैं। तो उन्होंने कहा कि आते हैं तो आने दीजिए हम कौन रोकने वाले हैं। अब लोगों ने सोचा कि यह बादशाह के स्वागत की तैयारी करेगा, कोई तैयारी नहीं, आइए वगैरह यह कुछ नहीं, बैठिये, बैठने वगैरह की जगह कुछ नहीं, जब आने का समय हो गया तब यह टब में बैठे थे, सूर्य स्नान करते हुए, तो उनके लोग सामने आ गए बादशाह के, उन्होंने कहा कि भाई बादशाह आ रहे हैं, तो कहा कि आने दो। यह उठे नहीं, ये तो टब-बाथ लेते हुए यह तो सूर्य की किरणों का स्नान करते हुए टब में बैठे रहे। अब बादशाह को थोड़ा गुस्सा भी आया लेकिन पता नहीं कि यह दार्शनिक है, उल्टी खोपड़ी हो सकती है। थोड़ा सामने गया, सामने गए तो अपेक्षा तो यह थी कि बादशाह और वो तो विश्व विजयी ऐसा कहलाते थे, इतने बड़े आदमी आने के बाद कम से कम उठकर नमस्ते तो करेगा, यह उठे भी नहीं उन्होंने वहीं से थोड़ा देख लिया। कहा अच्छा आ गए, ठीक है। अब बादशाह असमंजस में थे कि अब क्या कहना चाहिए? तो उन्होंने कहा कि हमने आपका नाम सुना था। बोले अच्छा। बोले सुना था कि आप बड़े दार्शनिक है, बोले ठीक है। तो मुझे बड़ा आनंद हुआ कि मेरे राज्य में ऐसे भी प्रजाजन है, यह कुछ बोले नहीं। और फिर बादशाह ने कहा कि देखिए मैं आपसे बड़ा प्रसन्न हूँ, मैं तो सिकंदर हूँ, दुनिया का बादशाह हूँ, आपकी जो भी इच्छा होगी, मैं पूरी कर सकता हूँ। बड़े अहंकार के साथ कहा कि आप बताइए आपको क्या चाहिए? तो Diogenes ने थोड़ा सा स्मित हास्य करते हुए उनकी तरफ देखा और कहा कि भाई जो चीज में कहता हूँ, वह चीज आप दोगे? तो उनको लगा कि बड़ी चीज मांग रहे होंगे। हाँ बताइए देंगे, तो उन्होंने कहा कि देखिए मेरा तो ऐसा नियम है कि मैं डायरेक्ट सूर्य किरण का स्नान करता हूँ और मेरे और सूर्य के बीच में आप खड़े हैं, तो मुझे तो एक ही चीज दीजिए कि जरा यहाँ से आप हट जाइए ताकि सूर्य की किरण मेरे तक आ सके। अब यह संसार के सम्राट, विश्वविजयी सिकंदर जिनको कहा जाता है, वह दान देने के लिए तैयार हो गए और यह दार्शनिक क्या मांगता है कि आप मेरे और सूर्य के बीच में से हट जाइए और कुछ मांगता नहीं।
अपने यहाँ तो कितने उदाहरण है। संत तुकाराम का उदाहरण है। शिवाजी ने जब उनको बुलाया कि हम आप का सम्मान करना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं आपके यहाँ आकर क्या करुं, मुझे लेना-देना तो कुछ है ही नहीं, चलने के कष्ट होंगे, मैं इतने कष्ट बचाना चाहता हूँ, नहीं आना चाहता हूँ। ऐसे कई उदाहरण अपने देश में भी है। इसमें कौन सही, कौन गलत। सारा जीवन जिसने संपत्ति इकट्ठा करने में बिताया, वह मोहम्मद गजनी वह ठीक है या जो संपत्ति की फिक्र नहीं करते ऐसे जो Diogenes, तुकाराम के जैसे लोग हैं वह ठीक है? अब हमारे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत कठिन प्रश्न हो जाता है।
जैसे मैंने कहा कि ‘अर्थ’ के समान ‘काम’ के बारे में भी सोचा जाता है। काम के बारे में भी लोग सोचते हैं कि ज्यादा से ज्यादा उपभोग लेना, बस इसी में आनंद है। और अपने यहाँ तो बड़ा उदाहरण आता है कि एक राजा उनका नाम ययाति जिसने अपना सारा जीवन उपभोग में बिताया, विषय उपभोग में सारा जीवन बिताया किंतु तृप्ति नही हुयी और बुढ़ापे में भी फिर से विवाह करने की इच्छा हुई। अब इच्छा तो है, ‘ तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा’ तृष्णा जीर्ण नहीं होती, हम ही जीर्ण हो जाते हैं। तो दोबारा विवाह करने की इच्छा हुई, लेकिन इधर बुढ़ापा था। तो अपने लड़के पुरुर्वा को उन्होंने कहा कि ‘तुम्हारी वास्तव में भक्ति है मेरे प्रति, पिता के नाते तुम मेरी श्रद्धा करते हो, तो मेरी एक बात मानो’,पुत्र ने कहा ‘कहिए आप जो कहेंगे वह मानेंगे’ तो कहा कि ‘तुम्हारा यौवन मुझे दे दो।‘ अब देखिए कैसी बात है, कि पिताजी जो इतने बूढ़े हो गए हैं, वह लड़के को कह रहे हैं कि तुम्हारा यौवन मुझे दे दो, ताकि मैं विषय उपभोग और भी ले सकूं। लेकिन लड़का भी आज्ञांकित था, उसने कहा ठीक है। मैं अपना यौवन आपको दूंगा। तो उसने अपना यौवन अपने पिताजी को दे दिया। पिताजी ने दूसरा विवाह किया, किंतु इतना सारा होने के बाद ययाति के जीवन में कभी तृप्ति हुई ऐसा दिखाई नहीं देता। जो हमारे यहाँ रिकॉर्ड आता है उसमें ऐसा दिखाई नहीं देता कि ययाति की बड़ी तृप्ति हो गई। अब बहुत विषय उपभोग हमने लिए हैं तो अपने जीवन में बड़ी तृप्ति का अनुभव हम कर रहे हैं ऐसा नहीं दिखता। यह तो कहा गया है कि-
न जातु काम: कामानां उपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥ (श्रीमद्भागवतमहापुराण 9/19/14)
कि आप इच्छाओं का उपभोग लेते जाएंगे, उतनी इच्छाएं और प्रबल होती जाती है। उदाहरण यह दिया कि जैसे अग्नि में घृत डालोगे तो अग्नि और प्रज्वलित होती है। उसी तरह से उपभोग का घृत आप वासना की अग्नि में डालेंगे तो, वासना और प्रबल होगी। अनुभव के आधार पर यह कहा गया है। तो एक के बजाय दो यौवन का अनुभव कर लेने के बाद भी ययाति अतृप्त रहे और हमारे यहाँ शुक का उदाहरण आता है, कि आजन्म यानी जन्म से लेकर एकदम सभी विषयोपभोग से मुक्त इस तरह का जीवन, लेकिन ऐसा बताया गया है शास्त्रों में, कि अखंड तृप्ति का अनुभव करते थे। अब इतना एक्सट्रीम का उदाहरण भी छोड़ दिया जाए तो भी हम जानते हैं कि जिन्होंने शादी ब्याह भी किए, संयमित व्यवहार किया, रामचंद्र जी का जीवन हमारे सामने है। शूर्पणखा जैसे आती भी है तो भी यह उधर देखते नहीं। छत्रपति शिवाजी महाराज का भी हमने अभी-अभी उदाहरण सुना कि कल्याण के सुबेदार की बहू उन्हें समर्पण की जाती है, वह कहते हैं कि ‘मेरी माता अगर ऐसी सुंदर होती तो हम भी सुंदर हो जाते’ इस तरह उन्हें माता समझकर वह उन्हें छोड़ देते हैं, सम्मान पूर्वक। माने केवल शुकाचार्य का एक एक्सट्रीम उदाहरण लेने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे कई और उदाहरण है जहाँ विषय उपभोग को बहुत सीमित, संयमित रखते हुए लोगों ने जीवन बिताये। अब इसमें बुद्धिमानी किसमें है? अपने लड़के का भी यौवन स्वयं प्राप्त करते हुए विषय उपभोग करने वाले ययाति को बुद्धिमान कहा जाए या सारे जीवन विषय उपभोग से मुक्त रहने वाले शुक को बुद्धिमान समझा जाए। इस तरह से कल्याण के सुबेदार की बहू समर्पण करने के लिए लाई गई तो उसको माता समझ कर छोड़ने वाले शिवाजी को बुद्धिमान समझा जाए? इसमें से कोई तो भी एक सही होगा, एक गलत होगा, इसमें से क्या समझा जाए? यह हम लोगों के लिए मुश्किल सवाल हो जाता है, इसलिए यह बात तो सही है कि सुख की ही दिशा में सब जा रहे हैं, लेकिन यह सुख क्या है? किस बात में सुख है? यह तय करना बहुत कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से हर एक अपना अपना विचार करें और अपने जीवन की दिशा निश्चित करे। अब जीवन की दिशा निश्चित करना तो आवश्यक है, वह दिशा कौनसी रहे यह कहना दूसरे के लिए संभव नहीं है। मेरे जीवन की क्या दिशा रहे यह आप नहीं बता सकते, मुझे स्वयं तय करनी है। हम सोचने मैं कुछ भी समय बितायें, उसमें आपत्ति नहीं, दो साल बितायें, चार साल बितायें, पांच साल बितायें लेकिन एक बार जब हम जीवन का ध्येय निश्चित करते हैं, तो उसमें अंतिमत्त्व आना चाहिए, Finality आनी चाहिए, एक बार ध्येय निश्चित हुआ तो फिर फाइनल होना चाहिए कि कुछ भी हो जाए हम इस से हटने वाले नहीं है। इस तरह किंतु अपना ध्येय निश्चित करना चाहिए। अब यह ध्येय निश्चित करने के लिए हम क्या कहीं से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं? वास्तव में सुख की दिशा में कौन सा रास्ता जाता है, यह बताने वाला हमें मिलेगा क्या? कहीं ऐसा ना हो की पांच-दस साल हम इस ढंग से जीवन बिता दें और बाद में फिर लगे कि यह तो सारा व्यर्थ ही गया। हम इसके बदले दूसरा कुछ करते तो अच्छा होता। ऐसा पश्चाताप करने की बारी भी ना आये, इसलिए अच्छा होगा कि इस तरह मार्गदर्शन करने वाला कोई हमको मिले तो अच्छा होगा।
हमारे सौभाग्य से मार्गदर्शन इस तरह का करने वाले है। सबको मार्गदर्शन करने वाला, हमारे लिए उपलब्ध है। यह हिंदुओं की ही विशेषता है सारे संसार में। कि सुख की ओर निश्चित रुप से जाने वाला रास्ता कौन सा है? इसका सही मार्गदर्शन, स्थाई मार्गदर्शन, यह हिंदुओं के लिए ही प्राप्त है, जितना और किसी के लिए नहीं। यह हमारे लिए भगवान की देन है कि हमें यह मार्गदर्शन प्राप्त है। इस मार्गदर्शन में पहले यह कहा गया कि सुख यह हमारा अंतिम उद्देश्य है। बात सही है। लेकिन इसका अर्थ समझना चाहिए यह कौन सा सुख है? वह सुख नहीं कि आज रबड़ी खा ली और फिर रात भर बेचैनी में इधर से उधर और उधर से इधर बिस्तर में ऐसे लोटपोट हो रहे हैं, ऐसा सुख नहीं। तो सुख चिरंतन होना चाहिए, सुख अखंड होना चाहिए, सुख स्थाई होना चाहिए। इस तरह जो स्थाई रहेगा, अखंड रहेगा, चिरंतन रहेगा, इस सुख को हमारे यहाँ नाम प्राप्त हुआ है ‘मोक्ष’। बहुत लोग सोचते हैं मोक्ष यह कोई तो भी ऊपर वाली चीज है, हवा में की चीज है। हवा में की चीज नही है, बड़ी प्रेक्टिकल बात है। मोक्ष याने घनीभूत सुख, मोक्ष याने चिरंतन सुख, अखंड सुख, जिस सुख में बीच में कोई खंड नहीं, जो हमेशा के लिए रहता है, उस सुख को हमारे यहाँ ‘मोक्ष’ यह नाम दिया गया और फिर यह सुख कैसे प्राप्त होगा? तो यह कहा गया, आश्वासन पूर्वक कहा गया, हमारे पूर्वजों ने, हमारे द्रष्टाओं ने यह आश्वासन दिया कि जहाँ हम सब सुख की कामना कर रहे हैं, वहाँ उन्होंने कहा कि मनुष्य का स्वभाव ही सुख ही है। यह एक आश्वासन है। बहुत ही हम लोगों का हौसला, धीरज बंधाने वाला यह आश्वासन है। कि मनुष्य की प्रकृति ही सुख है। दु:ख जो है वह विकृति है, ऐसा कहा है। दु:ख विकृति है, सुख प्रकृति है। उदाहरण दिया, अब जब हम खबर सुनते हैं इधर-उधर तो फलां आदमी आज जीवित है, श्वांस-प्रश्वांस करता रहा, तो कोई न्यूज़ नहीं बनती। आदमी मर गया, यह न्यूज़ बनती है। कहीं एक्सीडेंट हुआ, वह न्यूज़ आइटम बन जाता है। एक्सीडेंट नहीं हुआ, न्यूज़ आइटम नहीं बनता क्योंकि एक्सीडेंट ना होना प्रकृति है। तो आदमी सुखी है, यह न्यूज आइटम नहीं बनता, किंतु किसी के किसी आप्त की मृत्यु हो गई, खटाक से समाचार पत्रों में आता है, किसी के यहाँ एक्सीडेंट हुआ खटाक से समाचार पत्रों में आता है। माने जितनी दुखदायक घटनाएं होगी वह तो समाचार पत्रों में आती है, इसका मतलब है कि आराम के साथ जीवित रहना यह एक स्वाभाविक ऐसी चीज मानी गई है। फिर मनुष्य को दु:खहोता है कि नही, दु:खहोता है, लेकिन यह उसका स्वभाव नहीं है। स्वभाव नहीं है और इसके लिए अपने यहाँ यह उदाहरण दिया गया, अपने यहाँ कहा कि भाई पानी है, पानी की प्रकृति क्या है?, पानी शीतल होता है। कुछ ऐसे निर्झर हो सकते हैं जैसे कि राजगीर वगैरह में है, जो निर्झर गर्म,उष्ण हो सकते हैं लेकिन वैसे देखा जाए आमतौर पर तो पानी ठंडा होता है। अब कोई कहेगा कि पानी को गर्म किया जा सकता है कि नहीं? गर्म किया जा सकता है, लेकिन गर्म होना यह उसकी विकृति है, यह स्वभाव नहीं, यह प्रकृति नहीं है। आप उसके नीचे लकड़ी डालेंगे या गैस पर उसको रखेंगे तो गर्म किया जा सकता है, लेकिन वह उसका स्वभाव नहीं है। ऐसा हम क्यों कहते हैं? तो जैसे ही वह गैस या लकड़ी ठंडी हो जाती है, और फिर वह पानी वैसे ही रहता है वहाँ, तो जैसे-जैसे समय बीतता है उसकी उष्णता कम हो जाती है। फिर से वह बैक टू इट्स नेचर, उसका जो स्वभाव है, शीतलता का, उस पर फिर से पानी आ जाता है। आपने समय यदि बीतने दिया तो फिर से अपने शीतलत्व की ओर, मूल स्वभाव की ओर आ जाता है। इसलिए कहा कि पानी गर्म तो हो सकता है, लेकिन उसकी प्रकृति गर्म होना नहीं है। उसकी प्रकृति शीतलत्व है। वैसे ही कहा कि मनुष्य को दु:ख प्राप्त हो सकता है लेकिन दु:ख यह उसकी प्रकृति या स्वभाव नहीं है। उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि मेरा कोई आप्त स्वजन, उसकी मृत्यु हो जाती है। मैं इतना दुखी होता हूँ कि मुझे ऐसा लगता है कि कुछ रहा ही नहीं जीवन में अब यह नहीं तो संसार में इसके अलावा मैं कैसे जीवित रह सकता हूँ? अब तो आत्महत्या कर लेना अच्छा है, ऐसा मुझे लगता है। लोग भी सोचते हैं, पता नहीं, जरा इसकी और वॉच रखो, कहीं यह कुएं में कूद ही ना डाले, कहीं आत्महत्या ना कर डाले, कहीं अंगार न लगा ले, तो माने इतना मन में, इतनी बेचैनी आ जाती है लेकिन मान लीजिए कुछ समय बीत जाता है तो यह जो आत्महत्या करने कि मेरी इच्छा है, उसके मृत्यु के कारण मुझे जो होने वाले शौक की तीव्रता है, वह धीरे-धीरे कम होती जाती है। और शायद फिर पांच-दस साल बाद तीव्रता समाप्त भी हो जाती है। केवल स्मृति मात्र रह जाती है। तो इसका मतलब यह है कि सुख की जो अवस्था है वह स्वभाव है, प्रकृति है, दु:खकी जो अवस्था है, वह वैसी ही विकृति है जैसे पानी को गर्म किया जाता है, उस तरह की विकृति है। तो जैसे-जैस समय बीतता जाएगा, मनुष्य फिर से दु:ख से सुख की ओर आएगा। इस अर्थ में कहा गया कि प्रकृति ही सुख है। आत्मा की प्रकृति, आत्मा का स्वभाव सुख है और इसलिए कहा कि भगवान सुख है। हम जिसको आत्मा कहते हैं, यह जो भगवान है, वह सुख है। हमारे यहाँ यह नहीं कहा गया, जो गलती से सर्व साधारण आदमी को समझाने के लिए कहा जाता है कि भगवान सुख देता है। परमेश्वर सुख देता है, ईश्वर सुख देता है, ऐसा नहीं कहा गया है। हमारे यहाँ कहा गया है कि भगवान ही सुख है, आत्मा ही सुख है, माने हमारी प्रकृति सुख की है। इसके कारण हर एक व्यक्ति की जो सारी दौड़-धूप है, वह सुख की दिशा में चलती है। और इसके कारण, यह जो सुख की दिशा वाली दौड़ धूप है इसमें भी अलग-अलग उदाहरण दिखते हैं। तो उसका अर्थ समझने की आवश्यकता है। सब के पीछे क्या सूत्र है? वह समझने की आवश्यकता है। जैसे हमने कुछ उदाहरण देखे, अब इतिहास में हम देखते हैं कि सुख को दो ढंग से समझने वाले लोग, कई ऐसे उदाहरण Parallel इतिहास में, अब राजस्थान के इतिहास में हम देखते हैं कि मानसिंह ने समझ लिया कि अपना मान छोड़कर, अपने हिंदुत्व का गौरव छोड़कर, और अकबर की भी हम सेवा करते हैं, उसको बड़ा मानते हैं, तो आपत्ति क्या है? आराम से रह सकते हैं। प्रताप सिंह का हमने उदाहरण देखा, कि यह उनकी प्रकृति को ठीक नहीं लगा, यह उनकी प्रकृति को ठीक नहीं लगा, मानसिंह को उन्होंने कहा कि हम जंगल में रहेंगे, भूखे रहेंगे, बच्चों को भूखा रखना पसंद करेंगे, लेकिन हम सेवा नहीं करेंगे अकबर की, उसके सामने झुकेंगे नहीं। अब दोनों को दो अलग-अलग बातों में सुख का अनुभव हुआ।
हम हम देखते हैं कि छोटी-छोटी बातों के लिए लोग झूठ बोलते हैं, लेकिन श्री संभाजी का उदाहरण सामने आता है कि संभाजी को जिस समय पकड़ा गया और औरंगजेब के सामने लाया गया, उनको कहा गया कि दक्षिण की सुबेदारी तुमको दी जाएगी और यह भी बात थी कि औरंगजेब के कुल की ही कोई लड़की भी देने की बात थी, लेकिन तुम अपना धर्म छोड़ दो और कोइ बात नहीं। दक्षिण का सुबेदार भी तुमको बनाया जाएगा, तुम्हारा नया विवाह भी होगा, किंतु इन्होंने इन दोनों बातों को इनकार कर दिया और इसके स्थान पर क्या बात स्वीकार कर ली, तो उसकी आंखें निकाल कर एक-एक अंग उसका काटकर, इस तरह से उस को कष्ट देकर मार डाला गया। अब इस तरह से कष्ट सहन करते हुए मरना, यह तो दु:ख की बात है, लेकिन उन्होंने दु:ख की बात क्यों स्वीकार की होगी, इसका कारण था कि इसके लिए जो दूसरा विकल्प था, अपना धर्म छोड़ना, यह तो इससे भी ज्यादा दुखदाई बात उनको लगती थी, माने एक-एक अंग प्रत्यंग अपना कट रहा है और इस तरह से धीरे-धीरे in Phases हम मर रहे हैं, इसकी भी तुलना में अधिक दुख:दायक बात, कष्टदायक बात माने अपना धर्म छोड़ना, यह उनकी श्रद्धा थी, धारणा थी और इसके कारण उन्होंने इस तरह अपना आत्मबलिदान करना स्वीकार किया। माने उनको आत्मबलिदान में सुख का अनुभव हुआ, यह जो अलग-अलग धारणाएं हम देखते हैं, इन में से वास्तव में सुख का रास्ता कौनसा तो हम समझ सकते हैं। क्या मार्गदर्शन हो सकता है?
हमारे यहाँ श्रेष्ठ मार्गदर्शक सिद्धांत इन बातों के लिए जो दिया गया, वह दिया धर्म का सिद्धांत है। कहा कि धर्म है, वह व्यक्ति जीवन को सुखी बनाता है। वह समाज जीवन को सुखी बनाता है। वह विश्व जीवन को सुखी बनाता है। संपूर्ण विश्व की धारणा यह धर्म करता है, समाज जीवन की धारणा करता है, व्यक्ति जीवन की धारणा करता है और निश्चित रूप से जिसमें कोई गड़बड़ नहीं, जिसमें कोई अपवाद नहीं, व्यक्ति और समाज को निश्चित रूप से चिरंतन सुख का, अखंड सुख का, घनीभूत सुख का अनुभव कराने का सामर्थ्य धर्म में ही है, और किसी में नहीं। यह बात हमारे सामने रखी गयी। और इस धर्म में मनुष्य के जीवन का लक्ष्य क्या रहे ?…………………………….
धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है, वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है ‘परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।’
राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, Prerequisite है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा।
तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए, इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित नहीं होते हुये, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
(सुख की अवधारणा, भाग-दो, बौद्धिक वर्ग जयपुर दिनांक 15.06.1974)
कल हमने यह देखा कि व्यक्ति की इच्छा सुख के लिए है। फिर यह भी देखा कि यह सुख क्षणिक ना हो, तात्कालिक ना हो, तो घनीभूत हो, अखंड हो, चिरंतन हो यही वांछनीय है। इसी तरह के घनीभूत, अखंड, चिरंतन, सुख को हमारे यहां पर ‘मोक्ष’ यह संज्ञा दी है। और फिर इसकी प्राप्ति कैसे हो इस दृष्टि से हमारे द्रष्टाओ ने बहुत कुछ सोच विचार करते हुए कुछ वैश्विक नियमों का, Universal Laws का दर्शन करते हुए मनुष्य जीवन का लक्ष्य निश्चित किया; जिसे चतुर्विध पुरुषार्थ कहा गया है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जिसके अंतर्गत, धर्म यह सब सुख का आधार है। इसी के अनुकूल, इसी से नियंत्रित अर्थ और काम का विचार और उसके फलस्वरूप घनीभूत सुख की प्राप्ति अर्थात मोक्ष इस तरह की रचना बताई गई और धर्म के अंतर्गत यदि जीवन चलता है; तो व्यक्ति और समाज को सुख प्राप्त हो सकता है। यह विचार, इतनी बातें कल हमने देखी।
अब यह जो धर्म है; उसके विषय में मोटे तौर पर हम सब जानते हैं। यह धर्म व्यक्ति जीवन की, समाज जीवन की, मानव जीवन की, विश्व जीवन की धारणा करता है। इसी के कारण सभी का अभ्युदय होता है, यह कहा गया है कि-
“(भूतानां………………. यहां लेखक ने खाली छोड़ा है)
भूत मात्र का उत्कर्ष हो, यह धर्म बताया गया है। उत्कर्ष के साथ जो धर्म है, यह संज्ञा प्राप्त होती है ऐसा कहा गया और इस तरह से हर व्यक्ति सुख किस तरह से प्राप्त करें; यह सब ‘धर्म’ के अंतर्गत बताया गया। यह साक्षात्कार के आधार पर कहा गया कि हर एक व्यक्ति, सभी प्रकार के सुख प्राप्त कर सकता है, जब वह अपने जीवन में अखंड, अविरत यह कर्म करता है। जो कर्म उसकी रूचि के, प्रकृति के, गुण-धर्म के अनुसार हो। जो कर्म करने में उसे आनंद प्राप्त होता हो, जो कर्म करने से उसके व्यक्तित्व का विकास होता हो और इस तरह का सारा कर्म करते हुए, क्योंकि उसको इसमें आनंद है, क्योंकि वह उसके गुणधर्म, प्रवृति, प्रकृति के अनुकूल है, इसलिये कर्म भी अधिकतम होगा और इसलिए सेवा और उत्पादन भी अधिकतम होगा और यह सारा अपना विचार करते हुए इसका जो विकसित फल है, वह समाज पुरुष के चरण के ऊपर, भगवान के चरणों के ऊपर, समर्पण करता है। यह दोनों बातें जब होती है तो उसमें से फिर उसके विकास और सुख का रास्ता खुलता है। ऐसा धर्म ने बताया है। एक तो अपनी रुचि, प्रवृत्ति, प्रकृति, गुण धर्म के अनुसार कर्म करें; जिससे काम और आराम दोनों एक हो जाए। जो काम है, वही आनंद हो जाए। आनंद के लिए, आराम के लिए अलग समय निकालने की आवश्यकता नहीं हो।
जिसके कारण काम भी अधिकतम होगा और सेवा और उत्पादन भी अधिकतम होगा। और साथ ही साथ समाज के प्रति इतनी एकात्मता की भावना मन में हो कि सभी कुछ कर्मफल यह समाज के प्रति, भगवान के प्रति करते रहें। यह भावना रहे। दोनों का जब संयोग होता है, तो उसमें से फिर सुख प्राप्त होता है। ऐसा अपने यहां कहा गया है। तो गुण धर्म के अनुसार कर्म करना और फिर जो कर्मफल उसे भगवान के चरणों में अर्पण करना इस प्रक्रिया में से मनुष्य मोक्ष की ओर जाता है ऐसा अपने यहां कहा गया है। जो भगवान की पूजा करनी है वह भी अपने कर्म से करो ऐसा कहा गया है।
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: ॥श्रीमद्भगवत गीता १८.४६॥
अर्थात प्रकृति गत कर्म करते रहने से वही भगवान की पूजा होती है भगवान की यह पूजा है; ऐसा समझकर ही कर्म करना है यह भी अपने यहां बताया गया है कहा गया है कि-
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: ।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥श्रीमद्भगवत गीता १८.४५॥
अपने-अपने कर्म में अविरत रहने से मनुष्य स्वयं सिद्धि प्राप्त करता है; ऐसा कहा गया है, किंतु यह अपनी इच्छा मात्र से होता नहीं है, हम ने मन ही मन सोचा कि हम अपने गुण कर्म के अनुसार कर्म करते रहेंगे, यह जो काम है वह भगवान की पूजा है ऐसा कहेंगे, तो केवल हमारे कहने से ऐसा होता नहीं है।
तो हर एक व्यक्ति इस तरह से अपना जीवन व्यतीत कर सके, अपना कर्म कर सके, उस दृष्टि से समाज की रचना भी उसके अनुकूल होने की आवश्यकता है। समाज की रचना इस तरह की रहेगी, जिसमें कि समाज की कुल मिलाकर जो आवश्यकता है, उसकी पूर्ति भी मनुष्य के कर्म के द्वारा हो और साथ ही साथ मनुष्य अपने गुण कर्म के अनुसार कर्म भी कर सके। समर्पण भाव से भी कर्म कर सके, दोनों का संगम जहां होता है, वही आदर्श समाज योजना है, ऐसा कहा जाता है। इस दृष्टि से धर्माधिष्ठित समाज रचना जो हिंदुओं की हमेशा रही है, उस समाज रचना में हर एक व्यक्ति; इस तरह समर्पण भाव से; अपने अपने गुण कर्म के अनुसार कार्य करें। वह उस तरह का कार्य कर सके उसके अनुकूल ऐसी समाज रचना रहे।
अब इस तरह समाज रचना में क्या विशेषताएं बताई जा सकती है? सर्व प्रमुख बात तो यही है कि समान कर्म करने वाले कर्मी अथवा लोग, अपना कर्म-गत समूह बनाएं। यह कर्म-गत जो समूह या व्यक्ति-समूह होगा, यह व्यक्ति-समूह स्वायत्त रहे, स्वशासित रहे, सेल्फ गवर्न रहे, इस तरह समान कार्य करने वाले जितने भी समूह है, जिनका सभी का राष्ट्र समर्पित होने के कारण, आपस में सहयोग रहे, परस्पर सहयोग। तो सभी अपने अपने व्यक्ति समूह में समूह की उन्नति कर सकें। यानी व्यक्ति-समूह के अलग-अलग व्यक्ति, परस्पर सहयोग रखें, राष्ट्र के विभिन्न व्यक्ति-समूह, परस्पर सहयोग रखें और इसी तरह की रचना विभिन्न देशों में हो सके तो फिर विभिन्न देश एक दूसरे के सहयोग से उन्नति कर सकें। इस तरह की एक कल्पना अपने धर्म की रही है। अभी इस समाज रचना के डिटेल्स में जाने की आवश्यकता नहीं है। मोटे तौर पर इतना हमने ध्यान रखा तो पर्याप्त है।
तो हर एक व्यक्ति अपना पूर्ण सुख प्राप्त कर सके, इस दृष्टि से; अनुकूल समाज रचना के लिए काम करना, यह अपने धर्म की विशेषता रही है। इस तरह की अनुकूल समाज रचना अपने देश की रही है, किंतु हम जानते हैं कि आज इस तरह की समाज अपने देश में उपलब्ध नहीं है। तो इस तरह की समाज रचना अपने देश में पुन: स्थापित करना,अर्थात एसी यह समाज रचना लाने के कारण हर एक व्यक्ति के लिये अपने देश में, घनीभूत सुख का अनुभव करने का द्वार खोल देना, सुख का रास्ता हर एक के लिए प्रशस्त कर देना, इसी का नाम धर्म की स्थापना होता है।
हम जब कहते हैं कि धर्म की प्रतिष्ठा के लिए भगवान अवतार धारण करते हैं, तो उसका मतलब यही है कि इस तरह की समाज रचना की पुनर्स्थापना के लिए भगवान अवतार ग्रहण करते हैं। जिस तरह समाज रचना के अंतर्गत हर एक व्यक्ति का घनीभूत, चिरंतन सुख का रास्ता प्रशस्त हो सकता है। इस तरह की समाज रचना का विवरण अपने शास्त्रों में है। इस तरह की समाज रचना का विवरण हम देख सकते हैं। और नई पद्धति के अनुसार जो, नई बातें आई है, उनको ख्याल में रखते हुए जो भी उस में उचित परिवर्तन करना है, उसके साथ फिर समाज रचना का विचार कर सकते हैं। तो इस तरह से धर्म की स्थापना, यह जो शब्द पहले से अपने यहां परंपरागत चलता आया है। उसका यह मतलब होता है कि हर एक व्यक्ति के घनीभूत चिरंतन सुख के लिए मार्ग प्रशस्त हो। इस तरह की समाज रचना होनी चाहिए। हमारे इतिहास में इस तरह की समाज रचना प्रत्यक्ष उन्होंने बनाई और फिर अन्य देशों के लिए यह एक मॉडल तैयार किया और फिर कहा-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः॥२/२०॥ मनुस्मृति॥
कि अपने-अपने देश में और हर एक ने कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह पूछने के लिए बाहर के देशों के लोगों ने यहां आना चाहिए और यहां शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, यहां के लोगों से। ऐसा यहां जगद्गुरुत्व का कार्य अपने देश का है। अपने समाज का है। यह बात उन्होंने कही।
तो यह भारत का मिशन है ऐसा योगी अरविंद ने कहा है। हर एक समाज का अपना-अपना एक मिशन होता है, हमारे समाज का, हमारे राष्ट्र का यह मिशन है कि संपूर्ण जगत को हम एक मॉडल प्रस्तुत करें, जगत के सामने कहा कि इस तरह की समाज रचना होने के कारण मनुष्य सुख की प्राप्ति कर सकता है। अब यह जो धर्म की स्थापना है, इसमें दोनों बातें हैं। एक है, ऑब्जेक्टिवली यानी वस्तुनिष्ठ दृष्टि से देखा जाए तो समाज रचना ऐसी रहे कि हर एक व्यक्ति को घनीभूत सुख की प्राप्ति करने में सुविधा रह सकती है। और फिर सब्जेक्टिव माने आत्मनिष्ठ दृष्टि से हर एक व्यक्ति ऐसा रहे जो व्यक्ति धर्म-प्रवण है और धर्म-प्रवण होने के कारण इस तरह से समाज रचना में और इस समाज रचना के अनुकूल व्यवहार करते हुए सुख की ओर बढ़ता है। तो धर्म-प्रवण व्यक्तियों का निर्माण और धर्म-प्रवण व्यक्तियों का संगठन, जिसके कारण नई समाज रचना, जो सुख कारी है, वह निर्माण हो सकती है। माने ऑब्जेक्टिवली या वस्तुनिष्ठ दृष्टि से एक आदर्श समाज रचना और सब्जेक्टिवली अर्थात आत्मनिष्ठ दृष्टि से इस समाज रचना के अंतर्गत चलने वाला माने धर्म-प्रवण इस तरह का व्यक्ति यह दोनों मिलकर, यह धर्म की स्थापना होती है।
अब इस समय यह बात स्पष्ट है कि धर्म के अनुकूल समाज रचना, न तो अपने यहां है, और न बाहर कहीं है। अब यह हमारा तो स्वभाविक कर्तव्य हो जाता है कि इस तरह से धर्माधिष्ठित समाज रचना होनी चाहिए। क्योंकि जैसे कहा है कि धर्माधिष्ठित समाज रचना कैसी हो? उसका कोई ब्लूप्रिंट क्या हो? उसकी विशेषताएं क्या हो? यह सब हम एक और वस्तुनिष्ठता की दृष्टि से ऑब्जेक्टिवली विचार करते हैं, वहां दूसरी और हम यह भी नहीं भूल सकते है, कि इसमें मसाला, इंटे, पत्थर, चूना, सीमेंट है, इस तरह की समाज रचना के लिए यानी व्यक्ति, व्यक्ति अगर धर्म-प्रवण न रहे तो आपने किसी भी तरह की समाज रचना बनाई हो, वह चल नहीं सकती। तो धर्म-प्रवण व्यक्ति; हर एक रहे और फिर वह धर्म-प्रवण व्यक्ति अपना सुख का रास्ता प्रशस्त कर सके, इस तरह की समाज रचना रहे, दोनों काम ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव, आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ का मेल बिठाने से धर्म की स्थापना होती है। तो इस धर्म आधारित समाज रचना का मसाला, विशिष्ट मसाला होता है। उसकी ईन्ट या पत्थर या चूना या सीमेंट यदि ठीक होगा, तो वह याने व्यक्ति का निर्माण तो इस दृष्टि से कल जैसे कहा कि हर व्यक्ति को धर्म-प्रवण बनाने का पहले विचार होना चाहिए। और इस तरह से विचार करते हुए इस कार्य पद्धति का निर्माण हुआ। इस कार्य पद्धति में वही संस्कार दिए जाते हैं जो संस्कार हर एक को धर्म-प्रवण बनाते हैं। हर दिन संस्कार हमारे हृदय पर अंकित किए जाते हैं। वह हमें आदर्श समाज के, आदर्श अवयव के रूप में रहने के लिए सक्षम बनाते हैं। तो इस तरह से संस्कार की रचना यह जो की जा रही है, जिसे हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्य पद्धति कहते हैं। इसमें जो संस्कारों की रचना है उसके द्वारा व्यक्ति वह क्षमता प्राप्त करता है कि एक आदर्श समाज के आदर्श अवयव के रूप में रहने की ओर, इसलिए हम लोगों ने अपने कार्य के बारे में कहा कि हमारा जो यह कार्य है वह ‘त्वदीयाय कार्याय’ है। हमारा कार्य नहीं, व्यक्ति का कार्य नहीं, तो यह भगवान का कार्य है; ऐसा हमने कहा है। हमारा इतिहास यह हमें बताता है कि इसी कार्य के लिए भगवान अवतार धारण करते हैं। जिस समय धर्म नष्ट होता है; धर्म पीछे हट जाता है, अधर्म की शक्तियां बढ़ती है, समाज का संतुलन बिगड़ जाता है, समाज में दुख: का ही प्रादुर्भाव होता है, उस समय भगवान अवतार ग्रहण करते हैं और समाज की पुनर्रचना करते हैं। और समाज की पुनर्रचना करते हुए सभी के सुख का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। यह जो बात है इसी के लिए हमने कहा कि-
‘त्वदीयाय कर्याय बद्धा कटीयम’
यह जो हम कटिबद्ध हुए हैं, यह आपके कार्य के लिए कटिबद्ध हुए हैं। ऐसा भगवान से हमने कहा है। अब अपने कार्य का स्वरूप। यह बात स्पष्ट है तो जहां कल हमने कहा कि हम अपनी इच्छा क्या है यह देखें, सब क्या चाहते हैं यह सोचें, तो हर एक व्यक्ति सुख चाहता है। अब सुख का रास्ता क्या है? तो धर्म ने बताया कि धर्म के मार्ग पर चलना यह सुख का रास्ता है। सब अपनी इच्छा से उस मार्ग पर नहीं चल सकते, उस मार्ग पर चलने के लिए अनुकूल समाज बनना चाहिए। वह समाज रचना हमारी है नहीं, इसका मतलब यही है कि आज की समाज व्यवस्था, जो भी व्यवस्था है, हर देश में बहुत थोड़ा अपवादात्मक उदाहरण अगर छोड़ दें तो साधारण व्यक्ति वास्तव में अपने सुख का मार्ग देख नहीं सकता, यह बात स्पष्ट है। जब तक धर्म आधारित समाज रचना नहीं होती, जब तक धर्म की स्थापना नहीं होती, तब तक लोग अपना चिरंतन सुख प्राप्त नहीं कर सकते, यह बात स्पष्ट है। और इस दृष्टि से हमने अपने सामने एक ध्येय भी रखा है कि हमें वह समाज रचना लानी है जो धर्म आधारित हो और इसलिए ‘त्वदीयाय कार्याय’ यह ऐसा कहा। लेकिन इसका मतलब यह होता है कि यह जो कार्य है, वह सब लोगों को सुख की ओर ले जाने का, ऐसा हमेशा का नित्य-धर्म का कार्य है। यह कार्य आज का नहीं, नित्य-धर्म का कार्य यही है, कि सब अपने-अपने सुख के मार्ग पर चलते रहें लेकिन, क्योंकि वह रास्ता आज बंद है, आधुनिक समाज रचना में, आज की समाज रचना में धर्म के अनुकूल चलना यह संभव नहीं। अपना-अपना विचार कर, सुख का मार्ग देखना है तो इस तरह की धर्माधिष्ठित समाज रचना का निर्माण करना होगा।
यह एक तो भगवान का कार्य समझकर हम लोग करें, यह आपद-धर्म है, आपद-कर्म है, बहुत आवश्यक है, यह केवल व्यक्ति के सुख के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानवता के सुख के लिए आवश्यक है, कि धर्माधिष्ठित समाज रचना लाने के लिए, माने भगवान का कार्य करने के लिए हम तत्पर रहें और इस दृष्टि से यह जो धर्माधिष्ठीत समाज रचना का इंफ्रास्ट्रक्चर, माने अपना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है यह बात हम समझे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य का स्वरूप क्या है? तो यह कार्य का स्वरूप है कि जो हमारे धर्म की प्रतिज्ञा है, इसके अनुसार चलेंगे तो हर एक को चिरंतन सुख प्राप्त होगा। माने इसमें कोई कंप्रोमाइज नहीं है, यह निश्चित आश्वासन है की हर एक को; प्राणी मात्र को, चिरंतन सुख की प्राप्ति होगी, धर्म के द्वारा यह आश्वासन है, किंतु उसके लिए जो समाज रचना चाहिए, वह समाज रचना आज नहीं है, वह समाज रचना निर्माण करनी है, उस समाज रचना के निर्माण के लिए यह पर्याप्त नहीं है कि चार पंडित लोग इकट्ठा आ जाए, समाज का कोई एक नक्शा बनाएं इतना मात्र पर्याप्त नहीं है। तो जब तक धर्म-प्रवणता के संस्कार ग्रहण किए हुए व्यक्ति एकत्र नहीं आते, अनुशासन बद्ध नहीं होते, तब तक वह और जो इन्फ्राट्रक्चर है, यह नहीं बनता, वह जो इन्फ्राट्रक्चर बनाने का काम है, अर्थात अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य चल रहा है, यह कार्य का जो अपना स्वरूप है यह समझने की आवश्यकता है। यह छोटा कार्य नहीं, तो संपूर्ण मानवता को मार्गदर्शन करने का कार्य है। आज दिखने में लोग इसका अंदाजा नहीं लगा सकते, इतना ही सोचते हैं कि हम दक्ष-आरम कर रहे हैं। यह नहीं सोच सकते कि दक्ष-आरम के माध्यम से कौन से संस्कार ग्रहण कर रहे हैं? यह संस्कार हमें किस तरह धर्म-प्रवण बनाते हैं? इसके कारण आदर्श समाज रचना हमारे देश में कैसे हम कर सकते हैं? इस आदर्श समाज रचना को देखते हुए बाकी देशों ने भी उसके अनुकूल अपनी समाज रचना बनानी चाहिए, यह मार्गदर्शन हमारा राष्ट्र शेष मानवता को कर सकता है, इसका लंबा विचार है। प्राय: सारा विचार हमारे सामने रहता नहीं है और इसी के कारण जब हम कहते हैं-
‘त्वदीयाय कर्याय बद्धा कटीयम’
तो इसका पूरा अर्थ विदाउट इंप्लीकेशंस, इसके जितने भी इंप्लीकेशंस है उसके साथ यह पूरा अर्थ हम नहीं समझते, तो समझना चाहिए कि आज संपूर्ण जगत में जो दुख: दिख रहा है, सुख का अभाव दिख रहा है, इस परिस्थिति को बदलने की दृष्टि से एक सुख पूर्ण समाज रचना हम हमारे देश में पहले करेंगे और उस समाज रचना को देखकर बाकी देश अपने-अपने समाज की रचना बनाएंगे, यह अपेक्षा पूर्ण करेंगे। इस तरह का एक विस्तृत लंबा कार्य, एक ऐसा विशाल कार्य हमारे सामने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। अब यह आपद-धर्म जरूर है, यह बात स्पष्ट है कि आज हम अपने-अपने गुण कर्म के अनुसार कर्म करते हुए सुख की प्राप्ति करें, यह आज की समाज रचना में संभव नहीं है और आज अपना जो कार्य है वह आपद-धर्म का कार्य है और हमें गौरव का अनुभव होना चाहिए कि इस तरह भगवान के कार्य में सहयोगी बनने का सुअवसर, सद्भाग्य हम सब लोगों को प्राप्त है।
हर परिस्थिति को देखने का अलग-अलग दृष्टिकोण होता है। जो बहादुर है वह Difficulty को Opportunity समझता है और जो कायर है वह Opportunity को Difficulty समझता है और स्थिति एक ही है। लेकिन जो बहादुर है वह Difficulty को Opportunity समझता है कि इसके कारण मेरे पराक्रम का परिचय दे सकता हूं। अब जो कायर है वह समझता है, मर गए अब तो क्या होगा? इतनी विपरीत परिस्थिति आ गई अब तो हम खत्म हो गए, माने हम परिस्थिति को किस ढंग से लेते हैं या परिस्थिति को चैलेंज समझकर हम उसके सामने खड़े होते हैं या कोई एक बड़ी महान आपत्ति है, तो एक कायर के समान हिम्मत हार कर बैठ जाते हैं? यह हमारी प्रकृति पर अवलंबित रहेगा, लेकिन यह एक चैलेंज है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने चैलेंज को स्वीकार किया है। और यह कहा है कि यह काम भी हम करके दिखाएंगे और इस कार्य के लिए आवश्यक समाज का, समाज रचना का इंफ्रास्ट्रक्चर यह बनाने का कार्य शुरू कर दिया है। उसके परिणाम स्वरूप जगह-जगह पर शाखाएं, जगह-जगह पर स्वयंसेवक जो धर्म-प्रवणता के संस्कार ग्रहण किए हुए हैं। और इस कारण आदर्श समाज रचना के आदर्श अवयव के रूप में अब रहने की क्षमता जिन्होंने धारण की है, प्राप्त की है। इस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर आज हम देखते हैं। जहां अपने कार्य की महत्ता का हम स्मरण करते हैं, यह भगवान का कार्य है, इसका स्मरण करते हैं, कि यह ईश्वरीय कार्य है, धर्म स्थापना का कार्य है। यह ध्यान में ना रखने के कारण, इधर-उधर की छोटी बातों में ही मन उलझ कर रह जाता है। इसके कारण कार्य की महत्ता आंखों से ओझल हो जाती है। इसका ईश्वरीय स्वरूप आंखों से ओझल हो जाता है। और फिर यद्यपि हम शाखा में आते ही हैं, दक्ष-आरम करते ही हैं, शाखा का काम करते ही है, तो भी तरह-तरह के संदेह अपने मन में निर्माण हो जाते हैं। सोचते हैं कि परिस्थिति कितनी विपरीत है? विरोधी शक्तियां इतनी तेजी से आगे बढ़ रही है? कुल मिलाकर कम तो नहीं हो रही, क्या होगा? इस तरह का एक विचार पैदा होता है। यह संदेह जो मन में निर्माण होता है, मैं समझता हूं अपने कार्य का ईश्वरीय स्वरूप न समझने के कारण मन में संदेह निर्माण होता है।
हमारा कार्य ईश्वरीय है; तो भी हमारे मन में संदेह निर्माण होता है। जिस तरह के कार्य के लिए भगवान ने अवतार ग्रहण किया है, इस तरह का अपना कार्य है, ऐसा हम जानते हैं फिर भी सोचते हैं की अधर्म की शक्तियां बढ़ रही है, हमारी शाखायें उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही है, तो क्या होगा? इसका मतलब है कि हर दिन ‘त्वदीयाय कार्याय’ यह हम कहते तो जरूर है, लेकिन कहने के लिए ही कहते हैं। इसका जो सही मतलब है, वह हम हृदय में धारण नहीं करते। सही मतलब हृदय में धारण करने से कोई संदेह मन में रह नहीं सकता, कोई निराशा की भावना मन में रह नहीं सकती, यदि हम हृदय से ‘त्वदीयाय कार्याय’ यह भगवान का कार्य है, इसके लिए हम कटिबद्ध है। तो मतलब होता है भगवान हमारे सेनापति है’, उनके नेतृत्व में सेना चल रही है या दूसरी परिभाषा में कहा जाए तो इसका मतलब यह होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस नाम का यह जो कार्य है इसमें प्रथम स्वयंसेवक के नाते अगर कोई स्वयंसेवक होगा तो वह भगवान ही है। इसलिए हम कहते हैं ‘त्वदीयाय कार्याय’ यह आपका कार्य है। माने हमारी कुल मिलाकर जो शक्ति होगी, कुल स्वयंसेवकों की, लेकिन उससे प्लस वन है, एक और एडिशन हमें करनी है। किसी ने अगर पूछा कि संघ की कुल मिलाकर शक्ति कितनी है तो हम कहेंगे कि हमारे 15 लाख स्वयंसेवक है, 25 लाख स्वयंसेवक है, 50 लाख स्वयंसेवक है, पर उसमें प्लस वन स्वयंसेवक है, वह है भगवान। यह विश्वास, यह श्रद्धा अगर हमारे मन में रहती है तो हमारी निराशा की, संशय की जो अवस्था है वह सारी समाप्त हो जाती है। हम यह सोचे कि क्या हमारी मन स्थिति ऐसी है? हम यह सोचते हैं क्या? और यदि हम ऐसा नहीं सोचते हो तो हर दिन यह ‘त्वदीयाय कार्याय’ कहना बेमतलब का हो जाता है। विश्वास के साथ, दृढ़ श्रद्धा के साथ कि यह धर्म स्थापना का कार्य है, भगवान ने भी इसके लिए बार-बार अवतार लिया है, वह कार्य है। यह कार्य हम उसके नेतृत्व में, उसके सेनापतित्व में हमारी यह सेना का पथक है, इस तरह के दृढ़ विश्वास के साथ अगर हम चलते हैं, बराबर अपनी भी शक्ति बढ़ती है और भगवान की शक्तियां हमारे साथ है, इसका साक्षातकार हो सकता है। संदेह है, निराशा है, यह सब बातें हट जाती है। लोग सोचते हैं कि हमारी शक्ति सीमित है, यह बात सही है और शक्ति सीमित नहीं है, यह बात भी सही है। यह हमारी मनस्थिति क्या है, इस पर अवलंबित है। अगर हमारी मनस्थिति है, मैं हूं, मेरा नाम डीबी ठेंगडी है, मैं फलाने कुल का हूं और मेरी शक्ति कितनी है? मैं तो अपने को अलग समझ रहा हूं, पृथक समझ रहा हूं, स्वतंत्र समझ रहा हूं, तो इसके कारण मेरी शक्ति है वह तो साढे तीन हाथ के शरीर की शक्ति है, लेकिन मैं यदि ऐसा समझता हूं कि मैं प्रथक नहीं हूं, अलग नहीं हूं, तो यह जो ईश्वरीय कार्य का महान स्रोत है, उसका बिंदु मात्र मैं हूं, तो फिर मेरी शक्ति बढ़ जाती है क्योंकि फिर इस कार्य की शक्ति याने मेरी शक्ति हो जाती है। जिस समय मैं अपने को भूल जाता हूं, उस समय मेरी कमजोरियां, दुर्बलतायें हट जाती है और इस कार्य की जो शक्ति है, वह मेरे द्वारा प्रकट होती है, मेरे द्वारा आविष्कृत होती है।
मान लीजिए कि उदाहरण के लिए हम महासागर में हाथ में मिट्टी का बर्तन लेकर के गए। वह मिट्टी का बर्तन हमने पानी में पकड़कर ऐसा रखा तो उस मिट्टी के बर्तन के कारण महासागर के दो हिस्से हो जाते हैं। आप विचार कीजिए यह जो मिट्टी का बर्तन हमने पकड़ कर रखा है इसके कारण महासागर के दो हिस्से हो गए। एक हिस्सा वह जो मेरे मिट्टी के बर्तन के अंदर है और दूसरा वह जो मिट्टी के बर्तन के बाहर है अर्थात महासागर है। वह दूसरा हिस्सा है। लेकिन मान लीजिए यह मिट्टी का बर्तन टूट जाता है तो क्या होगा? एक तरफ तो यह कहा जाएगा कि यह बर्तन टूट गया, इसके अंदर का जो पानी था, अब वह संपूर्ण महासागर के पानी के साथ एकात्म हो गया। एक दृष्टि से कहा जाएगा कि यह तो आत्महत्या है और दूसरी दृष्टि से कहा जाएगा कि यह आत्मविकास है,आत्मविस्तार है, क्योंकि अब तक मिट्टी के अंदर सीमित ऐसा पानी था। अब उसके बंधन टूट गए, उसकी सीमाएं हट गई, अब वह संपूर्ण महासागर के पानी के साथ एकात्म हो गया, मानो वह उसका विस्तार हुआ है, विकास हुआ है, ऐसा कहा जाएगा। वैसे ही यह जो मेरा अहम है ‘मैं’ यह जो मेरी भावना है, अहम् की, पृथकत्व की भावना है। यह मेरे अंदर जब तक है, तब तक वह मिट्टी के बर्तन और उसमें जो सीमित शक्ति है, वही मेरी शक्ति है, लेकिन अहम का बंधन यदि टूट जाता है, ‘मैं’ संसार के साथ एकात्म होता है। तो यह मिट्टी का बर्तन फूट जाता है और फिर यह जो कार्य की शक्ति है, चारों ओर फैली हुई शक्ति है, भगवान की शक्ति है इसके साथ एकात्म हो जाते हैं, तो फिर हम में से हर एक के द्वारा वह शक्ति प्रकट होती है, जो कार्य की शक्ति है, भगवान की शक्ति है, हमारी शक्ति कितनी है यह बहुत ज्यादा मनस्थिति पर अवलंबित है। हम कितनी श्रद्धा के साथ समझते हैं ‘त्वदीयाय कार्याय’ और कितनी भक्ति के साथ उस कार्य के साथ एकात्म हो जाते हैं, स्वयं अपने को भूलकर, इस पर हमारी शक्ति अवलंबित है। जैसे एक बल्ब है, बार-बार बल्ब का उदाहरण दिया जाता है। हजार कैंडल पावर का भी बल्ब हो लेकिन हमने अपने हाथ में पकड़ रखा है तो वह लाइट नहीं देगा। क्योंकि जब तक बल्ब मेरे हाथ में है, जब तक है पृथक है, स्वतंत्र है, इसलिये पावर हाउस से उसका कोई संबंध नहीं है। लेकिन जैसे ही बल्ब का पावर हाउस के साथ संबंध हो जाता है तो एक हजार कैंडल पावर का प्रकाश हमें मिलता है। वैसे ही जब तक हम अपने को अलग रखते हैं, जब तक अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, अहंकार है, ऐसा हम समझते हैं, पावर हाउस से अपने को अलग रखते हैं तब तक हमारे अंदर कोई प्रकाश नहीं, कोई शक्ति नहीं। जैसे ही हम पावर हाउस के साथ कनेक्टेड हो जाएंगे, उसकी सारी शक्ति हमें मिल जाएगी। यह जो अपने को भूल जाने की, कार्य के साथ एकात्म होने की, भगवान के साथ एकात्म होने की जो घटना है, इसी को मुक्ति कहा है। जहां विभक्ति नहीं, पृथकत्व नहीं, अलगाव नहीं, इसी को भक्ति, ऐसा कहा है। जितनी भक्ति की मात्रा ज्यादा होगी, उतनी हमारी शक्ति ज्यादा रहेगी। किसी मसीहा ने कहा है कि एक हृदय के सिंहासन पर दो बातें एक साथ नहीं रह सकती कि वहां भगवान भी बैठा हो और शैतान भी बैठा हो। जिस हृदय के सिंहासन पर शैतान बैठा हो वहां भगवान नहीं बैठता। तो भगवान को हृदय से आसन पर बिठाना है तो शैतान को हटाना होगा। मैं कोई अलग हूं, मेरा कोई स्वतंत्र अस्तित्व है, इस बात को हटाना होगा। तब भगवान की शक्ति उसके द्वारा प्रकट हो सकती है। अपने यहां भक्ति का बहुत महत्व बताया गया है। भक्ति का मतलब हम समझ ले। भक्ति का मतलब होता है, जब विभक्तता समाप्त हो जाती है वही भक्ति है। कार्य के साथ भक्ति माने कार्य के साथ एकात्मता, भगवान के साथ भक्ति माने भगवान के साथ एकात्मता, जितनी मात्रा में हम विभक्ति भूल जाएंगे, जितनी मात्रा में हम अहम भूल जाएंगे, उतनी मात्रा में यह कार्य की शक्ति हमारे द्वारा प्रकट होगी।
हमेशा उदाहरण आता है सर्किल का, कई बार यह उदाहरण दिया गया है। की एक सर्किल है जिसमें अलग-अलग रंग भरे गए हैं। एक हरा है, एक लाल है। अब जैसे लाल रंग का दायरा बड़ा होगा, हरे रंग का दायरा छोटा हो जाएगा। अगर हरे रंग का दायरा बड़ा होगा तो लाल रंग का दायरा छोटा हो जाएगा। उसी तरह से हमारे मन का यह जो सर्किल है यह कांस्टेंट है,स्थिर है, यह बड़ा छोटा नहीं होता। अब उसमें दोनों है, अहम भी है और भगवान भी है। अब अहम का दायरा बड़ा होगा तो भगवान का दायरा छोटा होगा। भगवान का दायरा बड़ा होगा तो अहम का छोटा होगा। किसी श्रेष्ठ कवि ने ऐसा कहा है की
‘जब मैं था तब हरि नहीं,
अब हरि है मैं नाही।
प्रेम गली अति सांकरी,
तामे दो न समाही।।
‘जब मैं था तब हरि नहीं’ जब अहंकार की भावना थी, तब भगवान का साक्षात्कार नहीं था। ‘अब हरि है,मैं नाही’ अब भगवान है तो, मैं अपना अहंकार भूल गया हूं। इसलिए कहा ‘प्रेम गली अति सांकरी’ अर्थात यह प्रेम की गली इतनी संकड़ी है संकीर्ण है जिसमें at a time दो नहीं रह सकते, एक ही रहेगा। या तो मैं रहूंगा या भगवान रहेगा। माने इस तरह से भक्ति का भाव जब जागृत होता है, हमारे बंधन टूट जाते हैं, कमजोरियां समाप्त हो जाती है, अब व्यक्ति के नाते हमारी जो शक्ति है उसकी बजाए कार्य के नाते, भगवान के कार्य के नाते, जो शक्ति है, वह हमारे द्वारा प्रकट होती है और इस दृष्टि से आज आपद-धर्म के रूप में जो कार्य अपने को करना है, वह धर्म संस्थापना का कार्य है।
धर्म संस्थापना का कार्य करते समय, हम हमारी मनोवृति क्या रखते हैं? यह सबसे महत्व की बात है, इसलिए कहा गया कि हमें आदर्श स्वयंसेवक होना है। आदर्श स्वयंसेवक होना है, याने पूर्ण भक्ति का विकास करते हुए कार्य के साथ एकात्म होते हुए और जैसे अपने परम पूजनीय श्री गुरुजी ने एक संदेश में कहा “मैं नहीं, तू ही” यह वृत्ति धारण करते हुए, मैं नहीं, जो कुछ भी है, वह मेरा कार्य है, यह संघ कार्य है, यह ईश्वरीय कार्य है यह वृत्ति धारण करते हुए हम चले तो हमें आश्चर्य होगा कि कितनी शक्तियां हमारे द्वारा प्रकट होती है। यह आदर्श स्वयंसेवक हम किस तरह विकसित कर सकते हैं? इसका विचार करने की आवश्यकता है। यह आदर्श स्वयंसेवक तो हमारे सामने तरह तरह से रखा गया है। कई उदाहरण हमारे सामने रखे गए। कई बार हमारे बौद्धिक वर्ग में हमारे सामने हनुमान जी का उदाहरण रखते हैं, कहते हैं कि श्रेष्ठ पुरुष थे, बहुत बुद्धिमान थे। इनका जो वर्णन किया गया है वह है-
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥ (श्रीरामरक्षास्तोत्रम्- ३३)
एक के बाद एक उनके गुणों का वर्णन आता है कि वे बड़ी तेजी से भ्रमण करते थे वायु वेग से जाते थे और मनोवेग से जाते थे, फिर यह भी कहा कि “बुद्धिमतां वरिष्ठं” बुद्धिमान लोगों में श्रेष्ठ थे फिर यह भी कहा कि-
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥
नेतृत्व के गुण भी धारण करते थे, लेकिन सबसे बड़ा गुण आखिर में बताया कि ‘श्री राम दूतम’ यह सारा होते हुए भी श्रीराम के दास थे। याने सभी गुणों के रहते हुए यदि यह भक्ति, यह दासत्व जो है, यह आदर्श स्वयंसेवकत्व का लक्षण हमारे सामने रखा।
अब दूसरी तरह से विचार करें तो हम और कार्य अलग-अलग नहीं। हम ही कार्य हैं, कार्य ही हम हैं। हमारा स्वतंत्र अस्तित्व नहीं।
हनुमान जी के बारे में एक ऐसा ही प्रसंग आता है ऐसा बहुत उद्बोधक संवाद है कि श्री रामचंद्र जी आते हैं, यह उठते हैं तो राम कहते हैं कि यह जो सारी फॉर्मेलिटीज है इसकी क्या आवश्यकता है? आखिर हम और तुम कोई अलग अलग थोड़े ही हैं? तो उस समय यह जवाब देते हैं-
देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि, जीवबुद्ध्या त्वदंशकः ।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः ।।
शरीर के नाते विचार किया तो आप भगवान हैं मैं आपका दास हूं, ‘जीवबुद्ध्या त्वदंशकः’ जीव की दृष्टि से विचार किया तो आप संपूर्ण है मैं उसका अंश हूं, ‘आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं’ आत्मबुद्धि से यदि विचार किया तो मैं और आप एक ही है। हम विचार करें कि क्या हम संघ के बारे में ऐसा सोचते हैं? कि देह की दृष्टि से यह संघ है तो मैं संघ का स्वयंसेवक हूं, जीव की दृष्टि से यह संघ है तो उसका मैं एक अंश हूं और आत्म बुद्धि से यदि विचार किया तो संघ यह मैं हूं और मैं ही संघ हूँ और कुछ नहीं। क्या हम इस दृष्टि से विचार करते हैं? यह सोचने की आवश्यकता है। यह जो मनुष्य की भक्ति है, यह जो मनुष्य की एकात्मता अपने ध्येय के साथ होती है, जिसके कारण ईश्वरीय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, इसके विषय में किसी एक ने एक समीकरण के रूप में कहा है कि किस तरह व्यक्ति का विकास होता है। उन्होंने कहा कि आप इस तरह का समीकरण रखें। आप इस सारे संसार के दो हिस्से बनाएं। एक ‘मैं’ और एक दूसरा मैं को छोड़कर बाकी जो बचा शेष। तो उन्होंने कहा कि non self/self. मैं के अलावा जो कुछ भी है/ मैं, अर्थात Non-Self divided by Self (नॉनसेल्फ डिवाइडेड बाय सेल्फ)। फिर कहा कि Increase the Non-self and Decrease the Self (इनक्रीस द नोन सेल्फ एंड डिक्रीज द सेल्फ) यह जो नॉनसेल्फ है इसकी मात्रा बढ़ाते जाओ और यह जो सेल्फ है उसकी मात्रा घटात जाओ, आप ईश्वरत्व तक पहुंचे जाएंगे। ऐसा मानो समीकरण के रूप में कहा है। जितना-जितना हम अहम को भूल कर जाते हैं और जितना-जितना हम कार्य के साथ एकात्म होते हैं, उतनी-उतनी हमारी शक्तियां बढ़ती है। तो लोगों के मन में संदेह रहता है कि पूर्ण भक्ति आने के बाद हमारी शक्तियां कैसे बढ़ेगी? जो ज्ञानी, पंडित, विद्वान ऐसे लोग हैं वे शायद सोचेंगे कि हमारा स्वयंसेवक जो ज्यादा बुद्धिमान नहीं है, इसलिये आप केवल भक्ति के बारे में कहते हैं। इसमें सारी बुद्धिमानी आ सकती है, कार्य के लिए आवश्यक वह सारी बुद्धिमानी कैसे आ सकती है? भक्ति कारण ज्ञान का उदय होता है। भक्ति यदि पूर्ण और सही रहेगी तो ज्ञान का उदय होता है। हमारे यहां अनुभव के आधार पर कहा गया है-
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः प्रकाशन्ते महात्मन इति॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/२३॥
कि जिसके हृदय में भक्ति ओतप्रोत है उसके लिए ज्ञान प्रकाशता है, मानो knowledge flesh upon him. उसको अलग-अलग ज्ञान ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं। नॉलेज उसके लिए प्रकाशता है। मानो फ्लैश अपऑन हिम। पूर्ण भक्ति के फलस्वरूप ज्ञान का निर्माण होता है, इसलिए कहा है कि भक्ति की स्वभाविक परिणीति ज्ञान में होती है और ज्ञान की स्वभाविक परिणीति भक्ति में होती है, वरना वह ज्ञान निरर्थक है, व्यर्थ है, निकृष्ट है ऐसा किसी ने कहा है।
तरह-तरह की शक्तियां बढ़ती है और यह सारी शक्ति कार्य की, हर एक स्वयंसेवक के द्वारा विभिन्न प्रकार से प्रकट होती है, किंतु इस तरह की कार्य के साथ एकात्मता चाहिये।
तो इसका मतलब हम कहां से निकले, कि हर एक की इच्छाएं क्या है? सुख की इच्छा है। आज की परिस्थिति में यह बातें हो नहीं सकती। संपूर्ण प्राणी मात्र के सुख का मार्ग प्रशस्त करना, जो केवल धर्म का कार्य है। इसके लिए अनुकूल समाज रचना करना, यह ईश्वरीय कार्य है। और इस ईश्वरीय कार्य के लिए हम कटिबद्ध है, इसलिए इस कार्य को करते हुए, एक तरफ हम यह दृढ़ विश्वास रखें, श्रद्धा रखें कि हमारा प्रथम स्वयंसेवक ईश्वर है। और साथ ही साथ कार्य के साथ इतनी भक्ति रखें कि जिसके कारण ‘मैं’ समाप्त हो जाता है। भगवान या समाज का कार्य या संघ कार्य यही केवल बचता है। इस तरह की एकात्म शक्ति यदि हर एक के हृदय में आई, तो हमारे कार्य के सामने दुनिया की कोई भी अधर्म की शक्ति खड़ी नहीं हो सकती, लेकिन वह आत्मार्पण पूर्ण होना चाहिए। हमारे यहां इस तरह के आत्मार्पण के, एकात्मता के, भक्ति के कई उदाहरण है। हम अपना विचार करें और उसके अनुसार अपने जीवन को ढालने का प्रयत्न करें, तो हमारी स्वयं की शक्ति बढ़ रही है और फिर भगवान की शक्ति हमारे साथ है, इसका हमें अनुभव हमारे सामने आएगा। कितना आत्मार्पण चाहिए, कितना स्वयं कष्ट सहते हुए, कितना यह आत्मार्पण के लिए भक्ति चाहिए, इसका एक बहुत अच्छा संवाद हमारे जो भक्ति मार्गी लोग हैं, वह हमें बताते हैं। आत्मार्पण का उदाहरण राधा-मुरली संवाद में आता है। उसमें यह कहा गया कि राधा जी के मन में कुछ ईर्ष्या का भाव बांसुरी के बारे में निर्माण होता है। सोचती है कि मैं तो शरीर धारिणी हूं, कितनी सेवा करती हूं? तो भी भगवान का प्रेम मुरली से कुछ ज्यादा है, क्योंकि ज्यादा समय बांसुरी को वे होठों पर धारण करते हैं। तो कौन सा विशेष क्वालिफिकेशन इसमें है, जिसके कारण ज्यादा प्रेम, भगवान का इससे है? यह बात उसके मन में आयी, इसलिए उसने पूछा कि ऐसी क्या बात है कि भगवान तुझसे ज्यादा प्रेम करते हैं? उसने उत्तर दिया वह हम में से प्रत्येक के लिए मननीय, चिंतनीय है।
मुरली कहती है कि ‘प्रथम तज दियो सुंदर बांस झाड़ी रे।‘ तो सर्वप्रथम मैंने अपने परिवार को छोड़ दिया यह आता है। जहां भक्ति का उदय होता है, आदमी अपने परिवार को, प्रियजनों को, सबको छोड़ देता है। हमारे इतिहास में भी ऐसे उदाहरण है कि भक्ति कारण प्रियजनों को छोड़ा है। कहा है कि
भरत अपनी जननी तजे,पिता तजे प्रह्लाद।
विभिषण अपना भाई तजे, श्री रामचंद्र के काज॥
तो जो प्रियजन थे उन सब को हमने छोड़ दिया, ‘प्रथम तज दियो सुंदर बांस झाड़ी रे।‘ अपने परिवार वालों को मैंने छोड़ा। कोई कहेगा परिवार वालों के साथ मेरा झगड़ा था, इसलिए छोड़ा? ऐसी बात नहीं, ‘सुंदर’ इस विशेषण का प्रयोग किया यह बांस झाड़ी जो सुंदर थी, उसको मैंने छोड़ दिया। ‘प्रथम तज दियो सुंदर बांस झाड़ी रे।‘ ‘तन कटवायो,मन कटवायो’ आप सब जानते हैं कि बांस को काटवाने के बाद भी भगवान का चित्र जो आपने देखा हुआ है ऐसा नहीं है कि पूरा बांस लेकर अपने होठों पर खड़े हैं, ऐसा नहीं है। तो उसको काटना पड़ता है। तो उसने कहा कि मैंने स्वयं अपने शरीर को कटवाया केवल शरीर को नहीं तो मन को भी कटवाया क्योंकि मन को नहीं कटवाते तो शरीर को कैसे कटवाते? तो तन कटवायो और मन को भी कटवायो और फिर ‘ग्रंथिन-ग्रंथिन में छिदवायो’, माने जो गांठें रहती है, आप जानते हैं कि उसको भी कटवाना पड़ता है। अध्यात्म में ग्रंथियां रहती है, अपने बारे में अभिमान, अपने कुल के बारे में अभिमान, सप्त ग्रंथियां अपने बारे में रहती है। यह जो सारी ग्रंथियां है, इसको मैंने कटवाया। ‘तन कटवायो,मन कटवायो’ ‘ग्रंथिन-ग्रंथिन में छिदवायो’। फिर ‘जैसो बजावत है श्याम, वैसो सुर सुनवायो’,’यही कारण निज अधरन पर रखत मुरारी’, इसके कारण भगवान का इतना प्यार है। हम अपने कार्य के बारे में इसी तरह से सोचें। यह श्रेष्ठ कार्य है, भगवान का कार्य है। और इसके प्रति हम अपने को इतना आत्मसमर्पण करदें कि विभक्ति समाप्त होती है, अलगाव समाप्त होता है, और हम और कार्य दोनों एक ही है।
कि हम “(त्वमेव न संशया…………. लेखक ने खाली छोड़ा है )
हम और अपना कार्य दो अलग-अलग बात नहीं है, जब यह मन की अवस्था होती है तो हमारे द्वारा वही सारी शक्तियां प्रकट होगी जो भगवान की शक्तियां है। जिसका कार्य के लिए हमारा निर्माण हुआ है और जिस कार्य के कारण पहले हमारे देश का, हमारा उदाहरण देकर बाकी देशों में धर्म आधारित समाज रचना निर्माण होती है और जिस समाज रचना के अंतर्गत सभी प्राणी मात्र अखंड चिरंतन इस तरह के सुख का अनुभव करते हैं। यह हम अनुभव कर सकेंगे, इसका साक्षातकार हम कर सकेंगे।
सादर साभार |
दिनांक 14.06.1974 तथा 15.06.1974 को जयपुर राजस्थान में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग द्वितीय वर्ष में श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी के दो बौद्धिक वर्ग प्राप्त हुये जो बिना किसी संपादन के यहां प्रस्तुत है। |