स्वदेशी की विकास यात्रा – डॉ० महेश चंद्र शर्मा
स्वदेशी जागरण मंच की अपनी विकास यात्रा है और स्वदेशी अवधारणा की अपनी विकास यात्रा है दोनों की विकास यात्रा एक ही नहीं है। स्वदेशी शब्द से जो व्यक्त होता है, तो उसके अभी आध्यात्मिक अर्थों में ना जाए, जागतिक अर्थों में रहे तो, वह देश जिसके साथ हमारा स्व जुड़ा है, समाज जिस भूमि के साथ, जिस देश के साथ अपने स्व को जुड़ा हुआ महसूस करे वह स्वदेश है। और जिस देश, जिस भूमि के साथ समाज अपने को जुड़ा हुआ महसूस ना करें, उसे लगे कि मैं रह तो यहाँ रहा हूँ, परंतु यह मेरा देश नहीं है, यह मेरा नहीं है। मैं किसी पराई जगह पर रह रहा हूँ तो वह परदेश है।
इसी की जब थोड़ी व्याप्ति होती है तो जिसके साथ मेरी आत्मीयता है, उस आत्मीयता से जुड़ा हुआ देश, आत्मीयता के कई कारण होते हैं, उसमें देश की परिस्थिति हैं, देश की सामाजिकता है, देश की संस्कृति है, देश की राजनीति है। आधुनिक संदर्भ में स्वदेशी यह एक आंदोलन या विचार के रूप में कब व्यापक हुआ? कब प्रारंभ हुआ ऐसा नहीं कह रहा हूँ मैं, मुझे भी ठीक ठीक मालूम नहीं है कि स्वदेशी के शब्द का प्रारम्भ कहाँ से हुआ होगा। मालूम नहीं है, लेकिन व्यापक आंदोलन के रूप में यह कब विख्यात हुआ?
व्यापक आंदोलन के रूप में जब 1857 की आजादी का प्रथम समर समाप्त हो गया और उस प्रथम समर ने जो विदेशी आक्रांता था, उसको चौंकाया! विदेशी को यह लगा है कि जिनका यह स्वदेश है, वह अब जागने लगे हैं। तो उन्होंने अनेक रणनीतियां बुनी और उस रणनीति में उन्होंने पहली यह कोशिश की कि यहाँ की स्वदेशीयत को तोड़ा जाए। जो लोग इसे स्वदेश मानते हैं उन लोगों को ही तोड़ दिया जाए। स्वदेश मानने वाले लोग टूट जाएंगे तो स्वदेश भी टूट जाएगा।
तो यह तोड़ने की जो पहली कार्रवाई उन्होंने की उसकी शताब्दी है यह दो हजार पाँच।
1905 में इस हिंदुस्तान को तोड़ने के प्रथम प्रयत्न के रूप में बंग-भंग की योजना आई।1905 में 20 जुलाई को एक लंबी प्रक्रिया है, उस लंबी प्रक्रिया के बाद बंग-भंग की घोषणा की। बंग-भंग की घोषणा के खिलाफ़ जो आंदोलन हुआ, उसमें अंग्रेजों को यहाँ से भगाना है, ये हम को तोड़ने के लिए आए हैं, इसलिए केवल बंग-भंग समाप्त करो, इतना केवल आंदोलन का स्वरूप नहीं बना, इस आंदोलन का स्वरूप यह बना की बंग-भंग की घोषणा करने वाले अंग्रेजों को ही यहाँ से भगाओ, इसीलिए जो पहला आंदोलन इस पर चला वह एक प्रकार से नेगेटिव था, बायकॉट द विदेशी, विदेशी का बहिष्कार करो, विदेशी का बहिष्कार यानी क्या क्या करो? तो उसके स्कूल में मत जाओ, उसके कॉलेज में मत जाओ, उसके कोर्ट में मत जाओ, उसको टैक्स मत दो, जो फॉरेन रूल है उस फॉरेन रूल का बायकॉट करो। इट्स नेगेटिव। इसको पॉज़िटिव किया जाए तो क्या हो? तो फॉरेन रूल को बहिष्कार करना है तो किस को स्वीकार करना है? स्वदेशी को।
स्वदेशी, तो उसमें आया, जो सिम्बोलिकली सब को ध्यान में दिखाई दिया, बातें बहुत सी थी, परन्तु दिखाई दिया, क्या? विदेशी वस्तुओं का बायकॉट और स्वदेशी वस्तुओं का स्वीकार। स्वदेशी वस्तुओं को स्वीकार करो, विदेशी का बायकॉट करो। तो बहुत घटनाएं हैं कैसे बंगाल के कोई राजा कोई पूँजीपति इकट्ठे हुए, कपास की खेती करवाई, कपड़ा बुनना शुरू करवाया। तो स्वदेशी वस्तुओं को स्वीकार करो विदेशी का बहिष्कार करो उसमें से विदेशी कपड़ों की होली जलाने वाली बात भी हुई, तो 1905 में बंगभंग के खिलाफ़ जो आंदोलन शुरू हुआ उस आंदोलन के ऑफशूट के रूप में स्वदेशी एक आंदोलन की भूमिका में आया। तो जिन नामों से आया, उसमें पहला नाम था बायकॉट, बहिष्कार। दूसरा नाम था स्वदेशी और तीसरी जो बड़ी उद्घोषणा मालिका है इसकी, वह है वंदे मातरम्। बायकॉट, स्वदेशी,और वंदेमातरम यह त्रयी है, जिसने आजादी के आंदोलन को आगे बढ़ाया। स्वदेशी के इस काल के पुरोधा श्री अरविंद थे, लोकमान्य तिलक थे, विपिन चन्द्र पाल थे, लाला लाजपत राय थे इसमें सहकारी की भूमिका में रविन्द्र नाथ टैगोर थे, ऐसे और हो सकते हैं, मेने केवल प्रमुख नाम लिये हैं।और इसी आन्दोलन को अगली पीढ़ी में जिनके नाम मैंने लिए उससे अगले पीढ़ी में ले जाने का काम जिस महापुरुष ने किया, उसमें बड़ा नाम है महात्मा गान्धी जी का। यह जो पहले मेंने नाम लिए हैं, वह सब गांधी जी से पहले के नाम है। महात्मा गांधी उनके बाद में आए। महात्मा गांधी ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया और इसमें उन्होंने एक पॉज़िटिव सिम्बल, प्रतीक जोड़ दिया,देट इज ‘खादी’ ‘चरखा’। तो स्वदेशी वस्तुओं का, स्वदेशी अर्थव्यवस्था के नियमन का सिंबल बन गया चरखा और खादी। और इस तरह से स्वदेशी का आंदोलन आगे बढ़ते हुए अंग्रेजी राज की भारत से समाप्ति तक पहुंचा। अंग्रेज राज की भारत से समाप्ति के बाद, बाद ऐसा लगा, कि अब जब स्वदेशी शासन आ गया, स्वदेशी शासन आ गया, स्वदेशी संविधान आ गया, स्वदेशी सरकार आ गई, स्वदेशी कानून आ गया तो ‘स्वदेशी सरकार’ ‘स्वदेशी कानून,’ ‘स्वदेशी संविधान’ तो फिर स्वदेशी आन्दोलन अप्रासंगिक है, उसकी कोई जरूरत नहीं। तो आंदोलन के रूप में स्वदेशी एक प्रकार से तिरोहित हो गया क्योंकि स्वदेशी शासन आ गया, लेकिन देश में एक धारा चलती रही हमेशा आंदोलन नहीं था तब भी चलती और देश में एक बड़ा वर्ग था, जिसका यह आग्रह रहा कि विदेशी चला जाना मात्र स्वदेशी नहीं है। विदेशी का नेगेशन, विदेशी की नकारात्मकता मात्र स्वदेशी नहीं है। स्वदेशी पॉज़िटिव हैं, स्वदेशी अलग है। और इसलिए यह बात चली थी कि जैसे भारत का संविधान है, भारत का संविधान विदेशी कुछ संविधानों की जोड़ तोड़ से बना हुआ डॉक्यूमेंट है। भारत के संविधान में भारतीयता यह खोजने लायक चीज है। ऐसा कहने वालों का एक वर्ग रहा है। दूसरा अंग्रेज तो चला गया लेकिन जो अंग्रेजियत है, वह अंग्रेजियत बनी रही और उसका परिणाम आज तक भी यह है कि मानसिक तौर पर, मानसिक तौर पर विदेशी वस्तुएं, विदेशी वस्तु यानी अच्छी वस्तुऐं, स्वदेशी वस्तुएं यानी खराब वस्तुऐं। समाज में एक वर्ग है, वह कहता है भाई ये जापानी घड़ी है, ये चीनी है, यह योरोप से लाया हूँ, माने कोई स्टेंडर्ड की चीज है। विदेश से लाया हूँ इसलिए स्टेंडर्ड की चीज है। और यहीं से खरीदी है गली-मोहल्ले से तो घटिया चीज है। तो स्वदेशी के बारे में हीन ग्रंथि और विदेशी के बारे में अहम ग्रंथि, यह भारत में आजादी के आने के बाद भी बनी रही और इसलिए देश में इसके खिलाफ़ कुछ आंदोलन चलाते रहे जैसे परम पूजनीय श्री गुरुजी थे, संघ के द्वितीय सरसंघचालक तो वे इस बात का ध्यान रखते थे कि मैं जिस घर में जा रहा हूं वह वहां जो साबुन रखा है वह स्वदेशी है कि विदेशी है जो कपड़ा पहन रखा है वह स्वदेशी है या विदेशी है आपके घर में कोई शुभ मुहूर्त में कोई कार्यक्रम होने वाला है आपकी निमंत्रण पत्रिका है वह स्वदेशी भाषा में है कि विदेशी भाषा में है इस प्रकार का आग्रह रखने वाले लोग थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है रामकृष्ण मिशन है सर्वोदय है आर्य समाज है और भारत की आध्यात्मिक परंपरा से निकले हुए अनेक आंदोलन है जो गाहे-बगाहे इस मुद्दे को रखते थे कि भाई देसी वस्तुओं का व्यवहार करना चाहिए, विदेशी का नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके कारण से मानसिक रूप से हमारी गुलामी बरकरार रहती है। इस प्रकार से विलुप्त सरस्वती की तरह स्वदेशी का आंदोलन, आजाद भारत में स्वदेशी के नाम दिखता नहीं था परंतु स्वदेशी भावना से यह अंदर ही अंदर प्रवाहित था। यह प्रवाह अब ऊपर आ गया।
यह प्रवाह ऊपर आ गया 1990 के दशक में। 1990 के दशक में यह प्रवाह ऊपर आ गया।
1947 48 में जो प्रवाह नीचे चला गया था वह लगभग 5 दशकों बाद वापस ऊपर आ गया इस वापस ऊपर आने के लिए एक तात्कालिक घटना जिम्मेदार है उस घटना का थोड़ा सा वर्णन मैं करूंगा। घटना यह हुई की अंग्रेजों को या यूरोपियंस को केवल अंग्रेजों को नहीं तो अंग्रेजों को या यूरोपियंस को केवल भारत से नहीं एशिया से अफ्रीका से लैटिन अमेरिका से द्वितीय महायुद्ध के बाद जाना पड़ा कारण चाहे जो हो हर एक देश का अलग-अलग कारण रहा है स्थिति यह बनी की द्वितीय महायुद्ध के बाद जो यूरोपियन साम्राज्य था अफ्रीका में लैटिन अमेरिका में और एशिया में उनको जाना पड़ा चले गए वह लोग तो विदेशी चला गया और इन तीनों महाद्वीपों में स्वदेशी शासन की स्थापना हो गई यह जब चला गया यूरोपीय यह चला गया यानी इसने क्या खोया? क्या खो दिया इसने? तो उसने यहां का राज खोया। राज कोने में क्या खोया क्योंकि राज करने के हिसाब से भारतवर्ष उनके लिए कोई सुख कर देश नहीं था वे ठंडे मुल्क के लोग हिंदुस्तान गर्म देश यहां पर रहना ही मुश्किल उनका कभी शिमला भागते थे कभी देहरादून भागते थे कभी नैनीताल भागते थे राजधानी बदलते रहते थे तो यहां राज्य क्यों कर रहे थे वे?
तो यहां राज वे इसलिए कर रहे थे कि यह जो भारत भूमि है एशियाई भूमि है प्राकृतिक संपदाओं से संपन्न भूमि है जो विश्व का कुल खनिज पदार्थ है जो विश्व का कल जैविक संपदा का स्टॉक है विश्व का कुल वानस्पतिक संपदा का स्टॉक है तू चाहे वानस्पतिक संपदा है चाहे खनिज संपदा है चाहे जैविक संपदा है इन सब संपदाओं का अगर यह एशिया है अफ्रीका है लैटिन अमेरिका है यूरोप नहीं है यह यहां की प्राकृतिक संपदा है दूसरा यहां पर जिस प्रकार की खेती जिस प्रकार के उद्योग जिस प्रकार के कल कारखाने जिस प्रकार का जीवन जिया गया तो भारतवर्ष को कहा गया कि ‘इट्स ए वेल्थी सोसाइटी’ यह सोने की चिड़िया है यह संपन्न देश है और यहां पर बड़ी भारी आबादी है यूरोप के देश जितनी कल्पना भी नहीं करते थे उतनी बड़ी भारी आबादी यहां उन्हें प्राप्त हुई इसलिए यह बड़ा भारी बाजार है तो उनको भारतवर्ष का बाजार चाहिए था उनको भारतवर्ष का प्राकृतिक संसाधन चाहिए था और उनको भारतवर्ष का सोना अर्थात वेल्थ चाहिए था यह तीनों प्राप्त करने के लिए यहां राज करना जरूरी था यदि राज नहीं प्राप्त करते तो यह तीनों प्राप्त करना संभव नहीं था यह तीनों प्राप्त करने के लिए राज करना जरूरी था और राज को टिकाये रखने के लिए यहां की संस्कृति यहां का समाज यहां की अर्थव्यवस्था इन तीनों को तोड़ना जरूरी था।
लक्ष्य था यहां की प्राकृतिक संपदा प्राप्त करना यहां का बाजार प्राप्त करना यहां की संपत्ति प्राप्त करना और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए यहां पर राज करना जरूरी था और राज को ठिकाने के लिए हम हमें गुलाम बनाना जरूरी था और हमें गुलाम बनाने के लिए हमारा सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक आधार तोड़ना जरूरी था, इसलिए उन्होंने वह काम किया। तो आजादी हमें प्राप्त हुई लेकिन उन्होंने क्या खोया? तो उन्होंने एक बड़ा भारी उपभोक्ता बाजार खोया उन्होंने प्राकृतिक संपदा का बड़ा भारी भंडार खोया और उन्होंने एक वेल्थी सोसाइटी, एक संपन्न समाज पर अपना अधिकार खोया। यह खोने के कारण उन पर क्या असर हुआ यह खोने के कारण उन पर यह असर हुआ कि उनकी इकोनॉमी को चलना मुश्किल हो गया उनकी इकोनामी चलेगी कैसे क्योंकि उनकी इकोनामी का आधार ही लूट था यदि थर्ड वर्ल्ड के देशों में उनका राज था और राज्य के माध्यम से वे यहां की संपदा लूट रहे थे वह संपदा उनको ना मिले तो उनकी इकोनॉमी चले कैसे तो किसी प्रकार 40 साल उन्होंने अपनी इकोनॉमी को चलाया और उन्होंने एक प्रयत्न किया उपक्रम किया और उसे प्रयत्न के माध्यम से उन्होंने कोशिश कि हमने बाजार खाया है हमको वह वापस मिल जाए, हमने वह वहां की वेल्थ पर अधिकार खोया है, वह अधिकार हमको वापस मिल जाए और हमने जो प्राकृतिक संपदा है उसको खाया है वह मिल जाए तो अब उनका प्रयत्न यह हो गया कि राज करने वाली आफत अपन क्यों लें? वही करें। तो उन्होंने कहा हे भारत वालों प्रधानमंत्री तुम ही बनो! राष्ट्रपति तुम ही रहो! एमएलए एमपी तुम ही रहो! तुम तो एक काम करो कि तुम जो यह अपना मार्केट है यह हमको दे दो। तुम्हें कोई कष्ट करने की जरूरत नहीं है। तुम क्यों फैक्ट्री चलाओ? तुम क्यों कंपनी चलाओ? यह हम करेंगे ना तुम्हारे लिए। तो तुम तो अपना बाजार हमें दे दो, आपकी जितनी भी जरूरत है उन जरूरत का माल आपको हम दे देंगे। जितनी सेवाएं हैं आपका स्कूल चला लेंगे, आपका बीमा कर देंगे, आपका बैंक चला देंगे आपका अस्पताल चला देंगे, आपका सारा उत्पादन हम कर देंगे, आपकी सारी सेवाएं हम दे देंगे यह हमें करने दो। आपका राज आप करो, राज को हमें देने की जरूरत नहीं है। और यह जो प्राकृतिक संसाधन है इसका आप उपयोग ही नहीं कर सकते। आप इसका उपयोग नहीं कर सकते लेकिन हम कर सकते हैं, वह हमें दे दो। यह उन्होंने पाना चाहा परंतु यह उन्हें मिले कैसे? क्योंकि मांगने से तो कोई देता नहीं है। मिले कैसे तब उन्होंने प्रयत्न किया और उस? प्रयत्न के परिणाम स्वरूप तीन बातें बोली आप सबको मालूम है उन्होंने कहा कि विश्व के उपभोक्ता से अन्याय हो रहा है उपभोक्ता क्या है तो उन्होंने कहा कि उपभोक्ता की कोई नेशनलिटी नहीं होती उपभोक्ता deserves best जो कंज्यूमर है वह श्रेष्ठतम पानी का अधिकारी है विश्व में जो श्रेष्ठतम उत्पाद है विश्व के श्रेष्ठतम उत्पाद को पाने का हक है, उपभोक्ता को। और यदि इसके इस हक को कोई रोकना है तो वह उससे अन्य करता है।
तो उन्होंने कहा कि हमारे यहां यूरोप में अच्छा साबुन है अच्छा लिपस्टिक है अच्छा बिस्किट है अच्छा ट्रॉफी है अच्छा तेल है अच्छा रेजर है सब कुछ अच्छा-अच्छा रखा हुआ है और भारत के लोग बेचारे यहां का गली का गंदा और घटिया साबुन खरीदने के लिए बाध्य होते हैं घटिया तेल जो चेहरे को लगा हो तो जलन पैदा करता है खराब रेजर की चमड़ी छिल लेता है ऐसे रेजर खरीदने के लिए बाध्य होते हैं और देखो कितने अच्छे हमारे पास पड़े हुए हैं बेकार पड़े हुए हैं तो विश्व के उपभोक्ता से न्याय होना चाहिए फिर कहा कि कैसे होगा तो बोले कि ‘वी मस्ट ग्लोबलाइज अवर मार्केट’ और दूसरी बात बोली की है जो यह जो नदी है नाल है पर्वत है पहाड़ है जंगल है वनस्पति है जीव संपदा है यह भगवान ने संपूर्ण मानवता के लिए बनाई है या किसी एक देश के लिए बनाई है यह क्या बात हुई की प्राकृतिक खनिज संपदा पर जंगल पर जानवरों पर किसी एक देश का अधिकार हो जाए यह गलत बात है यह अमानवीय है इसलिए यह संपूर्ण मानवता की संपदा है क्या करना चाहिए तो उन्होंने कहा कि आप अपने देश पर राज तो करो लेकिन ‘वी मस्ट ग्लोबलाइज अवर नेचुरल रिसोर्सेस’ हमको अपनी प्राकृतिक संपदा का भूमंडलीकरण कर देना चाहिए और तीसरी बात उन्होंने बताई कि देखो 40 साल हो गए हैं तुम लोग अपने आप को आजाद मुल्क कहते हो, लेकिन तुम हो तो अभी भी पिछड़े ही, यह बड़ा दुष्चक्र है। आज भी हम अपने बच्चों को, अपने बच्चों की पढ़ाई की फीस देते हैं और फीस देकर उन्हें पढ़ाते हैं कि तुम पिछड़े हो और जो तुम पर जो राज कर गए गोरे वे विकसित हैं।
अपने बच्चों की पढ़ाई की फीस देते है और फीस देकर उन्हें पढ़वाते हैं की तुम पिछड़े हो और जो तुम पर राज़ कर गए कल के लुटेरे वो विकसित है। मास्टर को तनख्वाह देते है, किस बात की, कि तुम बच्चो को पढ़ाओ, की तुम पिछड़े हो। फीस देकर बच्चों को हम यह पढ़वाते हैं, तनख्वाह देकर मास्टरो से पढ़वाते हैं। दिमाग में भूत बिठा दिया है हमारे, कि हम पिछड़े हैं। तो उन्होँने कहा कि तुम पिछड़े हो, तुम्हारा विकास ही नहीं होता! कैसे होगा विकास? तो बोले कि विकास तब होगा जब तुम कॉम्पिट करोगे! डेवलपमेंट जो है, विकास की कुंजी तो स्पर्धा है। इसलिए कॉम्पिट करो! किससे कॉम्पिट करो, तो कहा कि ‘कॉम्पिट विथ अस’, हमसे कॉम्पिट करो! आप कौन हैं जी? वी आर एम० एन० सी० बड़ी बड़ी जो मल्टीनेशनल कम्पनीज़ जो एक देश नहीं देश देश का व्यापार संभालती है। ऐसे देश देश का व्यापार सम्भालने वाली बड़ी कम्पनियां है, उनसे कॉम्पिट करोगे तो विकसित हो जाओगे। क्या करना चाहिए फिर? कहा ‘वी मस्ट ग्लोबलाइज़ आवर ईकोनॉमी’, वी मस्ट ग्लोबलाईज आवर मार्केट, वी शुड ग्लोबलाइज़ आवर नचुरल रिसोर्सेज, ये कौन करेगा? हू विल डू दिस? ऑरगन कौन है इसका? तो उन्होंने एक ऑर्गन बनाया, संगठन बनाया,औजार बनाया, जिसका नाम है डब्ल्यू०टी०ओ०, वर्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन। यह कहानी शुरु कब हुई? तो जब 1986 में गेट उरुग्वै राउंड वार्ता शुरू हुई और 1994 में 8 साल बाद इस गेट वार्ता में से डब्ल्यू०टी०ओ० निकला और इस डब्ल्यू०टी०ओ० की जो चर्चा चल रही थी, यह 1994 में साईन हुये। इस चर्चा पर भी, जब चर्चा डंकेल साहब लाये थे उस वक्त अनेक देशों के विद्वान चौंक गये, कि ये ग्लोबलाइजेशन वाली बात कौन कर रहा है? हूँ इस दिस स्पोक्समैन ऑफ ग्लोबलाइजेशन? तो ध्यान में आया की ये ग्लोबलाइजेशन के बात वो कर रहे हैं जो अभी 40 साल पहले तक यूरोप के लोग एशिया और अफ्रीका में राज़ कर रहे थे। तो ग्लोबलाइज़ेशन इस नारे का नियोक्ता कौन है? प्रवर्तक कौन है? यह जानना बहुत जरूरी है, वो भूमंडलीकरण शब्द कहने से कुछ प्रकट नहीं होता है। भूमंडलीकरण कहने वाला कौन है? तो कहने वाला वो है जिसका द्वितीय महायुद्ध के पहले यहाँ पर राज था।
तो लोक चौके और उनको लगा की ये गडबड हो रही है। तो उन्होंने इस गडबड को डिफाइन किया, परिभाषित किया और परिभाषित करते हुए कहा दिस ग्लोबलाइज़ेशन इस नथ्थिंग बट इट्स एन इनवेजन ऑन साउथ साउथ बाई नॉर्थ नॉर्थ। ये भूमंडलीकरण कुछ नहीं है यह उत्तरी गोलार्ध का दक्षिणी गोलार्द्ध पर आक्रमण है। यह उत्तरी गोलार्ध यानी जिसमें अमेरिका आता है, यूरोप आता है और दक्षिणी गोलार्द्ध यानी लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, एशिया आता है। तो कहा कि यह जो भूमंडलीकरण है यह भूमंडलीकरण और कुछ नहीं है, यह उत्तरी गोलार्द्ध का दक्षिणी गोलार्द्ध पर आक्रमण है। क्या करना चाहिए? तो एक और ग्लोबलाइजेशन वालों ने डब्ल्यूटीओ का निर्माण किया दूसरी ओर इसके खिलाफ़ जो लोग काम करते थे उन्होंने एक नारा लगाया, संस्था बनाई उसका नाम था साउथ-साउथ कोपरेशन। तो उसका नाम था साउथ-साउथ कोऑपरेशन। क्या मतलब? कि ग्लोब का जो साउथ है जिसमें लैटिन अमेरिका है, अफ्रीका है, एशिया है, इनको आपस में सहयोग करना चाहिए। कोपरेशन करना चाहिए। वॉट फोर? क्या करना है? किस लिए करना है? क्योंकि उत्तर वालों ने आक्रमण कर दिया है। तो उत्तर वालों के खिलाफ़ वी मस्ट ऑर्गनाइज़र आवर सेल्फ और उन्होंने कहा कि वे मस्ट क्रीएट साउथ साउथ कोऑपरेशन। तो इसके पहले अध्यक्ष थे जूलियस न्येरेरे और उसके महामंत्री थे हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह। लेकिन 1994 आते आते परिणाम ये हुआ की साउथ साउथ कोऑपरेशन यह इंस्टीट्यूशनेलाईज नहीं हुआ, इसकी कोई संस्था नहीं बनी और ग्लोबलाइजेशन यह इंस्टीट्यूशनेलाईज हो गया, डब्ल्यूटीओ के नाम की संस्था बन गयी। 1990 से लेकर 94 तक हिंदुस्तान में डब्ल्यूटीओ के खिलाफ़ डब्ल्यूटीओ पर, हस्ताक्षर मत करो, डब्ल्यूटीओ यह आक्रमण है, यह भूमंडलीकरण नया साम्राज्यवाद है, इस पर हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए तो यह 1990 में दिल्ली में एक छोटे स्वाध्याय मंडल से शुरू हुआ। प्रचार का काम शुरू हुआ। साहित्य बनाने का काम शुरू हुआ। उसकी अनेक छोटी बड़ी बैठकें देश भर में होती चली गयी। उस वक्त हमारे देश में जब दुनिया में भूमंडलीकरण एक निर्णायक स्थिति में आ रहा था, तब हम भारत में अपने देश में दो मुद्दों से जूझ रहे थे, जो बड़े प्रबल थे, हमारे सार्वजनिक जीवन पर हावी थे। एक मुद्दा था राम जन्मभूमि का आंदोलन। यह एक प्रकार का स्वदेशी आंदोलन था। मध्ययुगीन भारतीय आक्रमण के प्रतिकार में और आधुनिक काल में उस आक्रमण को इन दि नेम आफ़ सेक्युलरिज्म, पुस्ट करने की जो स्थिति उत्पन्न हुई थी, उसके खिलाफ़ रामजन्मभूमि का आंदोलन चल रहा था और दूसरा हिंदुस्तान का जो जातीय समीकरण है उस में मंडल कमीशन, सामाजिक न्याय तो संक्षेप में कहते हैं कि भारतवर्ष मंडल और मंदिर के आंदोलन में व्यस्त था। ऐसी व्यस्तता में जिनकी हम यहाँ फोटो लगाते हैं, श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के
इनिशिएशन पर, उनकी पहल पर ये देश भर के स्वदेशी प्रेरित कार्यकर्ताओं की बैठकें शुरू हुई। साहित्य निर्माण शुरू हुआ। इस मण्डल-मंदिर आंदोलन के चलते हुए इन्फॉर्मली ये काम चलता रहा। और ये काम फॉर्मलाइज हुआ 1993 में, दिल्ली में पहला अधिवेशन हुआ जिसमें श्री एम जी बोकरें ये जागरण मंच के संयोजक, विधिवत घोषित हुए और जस्टिस कृष्णा अय्यर ने उस अधिवेशन का उद्घाटन किया और स्वदेशी जागरण मंच एक फॉरमल मूवमेंट के रूप में प्रारंभ हो गया। एक साल विगरस आंदोलन हुआ। स्वदेशी जागरण मंच के बैनर पर नहीं, भारतीय मजदूर संघ ने व्यापक प्रदर्शन किए, भारतीय किसान संघ ने व्यापक प्रदर्शन किये, देश में जितनी भी विचारधारायें है, दिल्ली में गाँधीयन’स ने एकत्र होकर प्रदर्शन किया। पॉलिटिकल पार्टीज़ में बीजेपी ने रामलीला मैदान में बड़ा भारी प्रदर्शन किया। ये सब प्रदर्शन 93 के है। तो चाहे इस देश का सोशलिस्ट कम्युनिस्ट वामपंथी विचार के लोग थे चाहे संघ बीजेपी के राष्ट्रवादी विचार के लोग थे, चाहे सर्वोदय के गाँधीयन लोग थे, देश की सब विचार शक्ति ने एकत्र होकर इस बात का विरोध किया की यह आने वाला ग्लोबलाइज़ेशन यह इन्वेजन है, ये आक्रमण है और इसलिए भारत की सरकार को डब्ल्यूटीओ की सदस्यता स्वीकार नहीं करनी चाहिए, हमको वहाँ लड़ना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य था की उस वक्त जो देश की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति थी, उस देश की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति के मोर्चे पर जो हमारी सेना लड़ रही थी, वो आक्रमणकारी के प्रतिकार करने के बजाय आक्रमणकारी की सेना में शामिल हो गए। हमने डब्ल्यूटीओ पर हस्ताक्षर कर दिए और हर प्रकार के विरोध के बावजूद डब्ल्यूटीओ स्थापित हो गया 1994 में।और तब फिर स्वदेशी जागरण मंच के सामने एक सवाल खड़ा हो गया और वह सवाल खड़ा यह हो गया की अब ये जो 1947 से लेकर 1990 तक विलुप्त सरस्वती थी, यह 1990 में ऊपर तो आ गई, पर आगे जगह, स्पेस ही नहीं है कहा पर बहे अभी यह? डब्ल्यूटीओ पर साइन हो गए। भारतवर्ष, जो विदेशी कल तक राज़ करते थे उनके द्वारा स्थापित संगठन का हिस्सा बन गया। भारत की संसद ने अपने ऊपर एक ऐसा निकाय स्वीकार कर लिया जो उसको कानून बनाने के लिए निर्देशित करता है। ऐसी स्थिति में अब इस आंदोलन का क्या हो? तब यह संकल्प व्यक्त हुआ कि नहीं, यह युद्ध हारा नहीं गया है वरन अब इस नए युद्ध का श्रीगणेश हुआ है। और दत्तोपंत ठेंगड़ी कहते थे ‘अब हम युद्ध के मैदान में खड़े हैं’ युद्ध जारी है। तो 1994 में डब्ल्यूटीओ पर हस्ताक्षर होने के बाद, स्वदेशी जागरण मंच के सामने दो विकल्प थे, या तो अपने को वाईन्ड-अप कर लें, आपने कहा था कि डब्ल्यूटीओ साईन मत करो, उसके लिए आंदोलन चलाया था, जन जागरण किया था, लोगों को उठाया था, ये सब किया था पर हस्ताक्षर हो गये, डब्ल्यूटीओ बन गया। भारत तो हिस्सा बन गया। तो हमारा आंदोलन विफल हो गया। विफल हो गया तो विफल लोग जो करते है, वो हम भी करें। तो हुआ कि नहीं, ये आन्दोलन विफल नहीं हुआ, इतिहास में ऐसी कोई घटना-दुर्घटना नहीं है की जो घटित
हो गयी तो फिर वो अनडन नही की जा सके। तो डब्ल्यूटीओ स्थापित हो गया है। भारत उसका हिस्सा बन गया है। देश के जन को इस खतरे से निरंतर सजग बनाये रखना, देश की व्यवस्था को इससे लड़ने के लिए निरंतर उकसाए रखना, ताकत देना और देश को ऐसे मोड़ तक पहुंचाना, कि इस खतरे से वह इस प्रकार और इतनी देर तक लड़े, कि जब तक विजय हासिल ना हो तब तक लड़ता ही जाए और अब ये आंदोलन 1990 में हम लोग सोचते थे की हमारे आंदोलन का लक्ष्य है डब्ल्यूटीओ को भारतवर्ष में प्रवेश न करने दें। 1994 के बाद इस दुश्मन घर में आ गया तो सरेंडर नहीं करेंगे। इससे हम लड़ते रहेंगे और ये लड़ाई का क्रम आगे चलता रहा। और आपको मालूम है कि अनेक प्रकारों से हम लोगों ने जागरण यात्रा की, हम लोगों ने संघर्ष यात्रा की, हम लोगों ने पदयात्रा की, हम लोगो ने अनेक विषयों से, अनेक विषयों के माध्यम से इस आंदोलन को आगे बढ़ाया और उसका एक परिणाम हुआ। उसका परिणाम ये हुआ की जब इस देश में 1997 में प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार बनी, अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय प्रधानमंत्री बनें, तो उस विजय, उस विजय में तीन बातें महत्वपूर्ण थी। एक बात महत्वपूर्ण थी कि देश कांग्रेस के राज़ से थक चुका था। कॉन्ग्रेस बदनाम हो चुकी थी। एक परिवार से ग्रस्त हो चुकी थी। दूसरी, राम जन्मभूमि के आंदोलन में देश के भीतर का जो एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का चैतन्य है, उसे बढ़ा दिया था और तीसरी, स्वदेशी का जो आंदोलन हुआ, वो स्वदेशी के आंदोलन ने नरसिंहा राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी को आर्थिक रूप से देश को दिवालिया कर देने के लिए कटघरे में खड़ा कर दिया था। इन कारणों से 1997 में एक परिवर्तन आया और उस परिवर्तन के कारण जो डब्ल्यूटीओ के खिलाफ़ आंदोलन था, उस पर भी एक परिणाम हुआ, एक असर हुआ। इस असर के परिणाम स्वरूप 1994 में मरक्केश में डब्ल्यूटीओ पर साइन हो गए। उसके बाद पहली मिनिस्टीरीअल कॉन्फ्रेन्स सिंगापुर में हुई, उसने ओर समझौता हो कर उसका विस्तार हो गया। उसके बाद की कॉन्फ्रेंस जिनेवा में हुई, उसका ओर विस्तार हो गया। उसके बाद ये सत्ता बदली और सत्ता बदलने के साथ ही सीऐटल में डब्ल्यूटीओ की अगली कॉन्फ्रेन्स हुई और भारत सहित विश्व के विकासशील कहे जाने वाले लोगों ने डब्ल्यूटीओ को मेमोरेंडम दिया और उन्होंने कहा हमने आपकी मराकेस में सुनी, हमने आपकी सिंगापुर में सुनी, हमने आपकी जेनेवा में सुनी, अब आपको हमारी सुननी होगी। स्वदेशी आंदोलन का यह परिणाम हुआ, ना केवल भारत में स्वदेशी, जो विश्व भर में आंदोलन हुआ, तो उसमें विकासशील देशों ने कहा, हमारी सुननी होगी। जब विकासशील देशों ने कहा हमारी सुननी होगी, तो वो जो साम्राज्यवादी है, इंपिरियलिस्टिक है, उनका प्रथम व्यवहार प्रथम प्रतिक्रिया क्या हुयी? कि ये गुलाम है इनको डांट के रखो। समाप्त करो इनको, तो सिएटल में उन्होंने स्नैप किया। क्लिंटन ने घोषणा की, इसी सम्मेलन में सिएटल में, डब्ल्यूटीओ के समझौते का विस्तार करना होगा और आपको श्रम एवं पर्यावरण मानको के समझौते पर साइन करने पड़ेंगे, यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपकी अर्थव्यवस्थाओं को प्रतिबंध कर दिया जाएगा। डब्ल्यूटीओ के भीतर का साम्राज्यवाद सिएटल में नंगा हो गया।सौभाग्य से, ये जो 1994 के बाद भी आंदोलन जारी रहा, तो इस डॉट का, स्नबींग का उल्टा असर हुआ। विकासशील देश एकजुट हो गए। यूरोपऔर अमेरिका के खिलाफ खड़े हो गए। पहली बार सीएटल में डब्ल्यूटीओ बिना कोई समझौता हुए, विफल मंत्री-परिषद की बैठक करके उठा। उसके बाद दोहा में मिला। दोहा में फिर वही हुआ। हालांकि दोहा में न्यू प्रोग्राम करके एक समझौता हो गया, लेकिन विकासशील देशों ने और विशेषकर भारत ने अच्छी फाइट ली दोहा में। और दोहा के बाद केनकुन में हुआ। कैनकुन में भी जो हम लोगों ने कहा था, ‘नो न्यू निगोशिएशंस बट निगोशिएशन’ तो डब्ल्यूटीओ के मंच पर स्वदेशी के आंदोलन का एक असर ये दिखाई देने लगा। ये तो डब्ल्यूके का मंच पर हुआ पर देश के भीतर क्या हुआ? देश के भीतर जो डब्ल्यूटीओ का दबाव है, डब्ल्यूबीओ की सहकारी संस्थाएँ वर्ल्ड बैंक है, आईएमएफ है, इनके दबाव और इन विश्व की अर्थव्यवस्था पर जो नियंत्रण रखती है ऐसी एम एन सी’ज है, आज यूरोपीय और अमेरिका के देशों की जो सरकारे आज अमेरिका का राष्ट्रपति, अमेरिकन राष्ट्रपति कम है, वो अमेरिका की एम एन सी’स का दलाल ज्यादा है। वो जब किसी देश में, भारत में आते हैं, मान लीजिये, तो भारत में आएँगे बुश या क्लिंटन तो वो जो बात अखबार में आती है वो सच नहीं होती है, सारी। वो अखबार में तो बात करते हैं कि साहब आण्विक शक्ति का परिसीमन कैसे होगा? और उठते उठते कहते है की आप लोग एनरॉन में क्या करने वाले वाले है? तो भारतवर्ष के भीतर जो इकॉनमी की मैनस्ट्रीम है वह डॉक्टर मनमोहन सिंह ने जिस ट्रैक पर लाई थी, उसी ट्रैक पर वो आज तक चल रही है, तो चाहे मनमोहन सिंह थे, चाहे चिदंबरम थे, चाहे जसवंत सिंह थे, यसवंत सिन्हा थे और चाहे आज पुनः चिदम्बरम है, तो विश्व की अर्थव्यवस्था पर एम एन सी’ज दबाव बढ़ रहा है। और डब्ल्यूटीओ का बल पाकर वे एम एन सी’ज स्वदेशी अर्थव्यवस्थाओं को अपने दबाव में करने की कोशिश कर रही है। और इसलिए स्वदेशी जागरण मंच, प्रारंभ हुआ एक तात्कालिक घटना से, तात्कालिक घटना के स्वदेशी आज हम जिस युग में रह रहे है, आज केवल एम एन सी’ज़ को गाली देने से स्वदेशी आ जाएगी क्या? तो नहीं आयेगी। तो आवश्यक होगा कि स्वदेशी की पॉज़िटिव चीजें शुरू की जाए। स्वदेशी मेले शुरू हो गये। गोवंश के आधार पर अर्थव्यवस्था का विकास कैसे हो, इसके प्रयोग शुरू हो गए। जैविक खाद के आधर पर खेती कैसे हो इसके प्रयोग शुरू हो गए, जो हमारे नैचरल, हमारी जो प्राकृतिक संपदा है हमारी प्राकृतिक संपदा हमारी अर्थव्यवस्था का अधिष्ठान बने, हमारी प्राकृतिक संपदा हमारी अर्थव्यवस्था का अधिष्ठान बने, या विश्व की एम एन सी’ज हमारे विकास का अधिष्ठान बने, विश्व के टेक्नोलॉजी और अर्थव्यवस्था के प्रवाह में से हमें विकास प्राप्त करना है या हमें अपनी प्रतिभा, अपने रिसोर्स उसमें से विकास प्राप्त करना है तो स्वदेशी की एक युगीन अवधारणा उसका विकास क्रमश हैं हम लोग कर रहे हैं। और अंतत: हमें जहाँ पहुंचना है, वह एक सनातन स्वदेशी है। सर्वकालिक स्वदेशी है। तो तात्कालिक स्वदेशी, युगीन स्वदेशी, सर्व कालिक या सनातन स्वदेशी ये हमारी एक हुई यात्रा है। और होने वाली यात्रा है। मैं अपनी प्रस्तावना को समाप्त करता हूँ।
साभार संदर्भ |
दिनांक १५-१८ मई 2005 को स्वदेशी विचार वर्ग में दिया गया बौद्धिक वर्ग। |