उद्योग एवं कृषि सम्बन्धी चर्चाओं में विद्यार्थी के नाते बैठने पर कुछ बातें ध्यान में आयीं। प्रत्येक कार्यकर्ता को अपने प्रकल्प पर पूरा ध्यान व शक्ति केन्द्रित करते हुए भी राष्ट्रीय नियोजन के परिप्रेक्ष्य में ही अपने प्रकल्प का विचार करना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर बृहत् या समष्टि नियोजन (मैक्रो-प्लानिंग) तथा स्थानीय स्तर पर लघु या सूक्ष्म नियोजन (माइक्रो प्लानिंग) इन दोनों को देखने वाला द्विफोकसी चश्मा धारण करना होगा । हमारी वर्तमान आर्थिक अवस्था में स्थानीय क्षमता, स्थानीय संसाधनों, स्थानीय कच्चा माल एवं स्थानीय शिल्प व प्रतिभा अर्थात् स्थानीय टेकनॉलॉजी के आधार पर ही औद्योगिक उत्पादन का प्रयास करना होगा ।
कल की चर्चा से लगा कि हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की दृष्टि से बहुत अधिक क्षमता विद्यमान है किन्तु अभी भी उनकी पूरी खोज व प्रकटीकरण सम्भव नहीं हो सका । इसके लिये ग्रामीण क्षेत्रों में विकास से सम्बन्धित प्रत्येक विभाग में अखण्ड प्रयोगशीलता की आवश्यकता है और यह प्रयोगशीलता ग्रामीणजनों का स्वभाव बनाना जरूरी है। कल दो-तीन उदाहरण ऐसे भी सामने आये कि ऊपर से अनाड़ी दिखने वाला देहाती भी बिल्कुल नये तरीके का आविष्कार कर सकता है। इससे स्पष्ट है कि प्रयोगशीलता को स्वभाव बनाने से प्रेरणा बदल जाती है और आज जिनको हम अनाड़ी कहते हैं, वही लोग अपने-अपने स्तर पर टैक्नॉलॉजिस्ट का काम भी कर सकेंगे ।
हम लोग जिस अखाड़े से आये हैं उस अखाड़े की रीतिनीति व आदर्शों को ध्यान में रखकर इन रचनात्मक कामों के क्षेत्र में हमने प्रवेश किया है। कार्य की सिद्धि हमें अभीष्ट है। कार्य सिद्धि के लिये भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है:
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च प्रथग्विधम् । विविधाश्च पृथक्चेष्टा देवं चैवात्र पञ्चमम् ।।
(अध्याय १८, श्लोक १४)
अर्थात् अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा व दैवयोग-इन पांच तत्वों के अनुकूल होने पर कार्यसिद्धि होती है। मानव कल्याण व राष्ट्रसेवा का सच्चा संकल्प हमारे मन में होने के कारण हम दैवयोग नामक तत्व की अधिक चिन्ता नहीं करेंगे। यदि संकल्प सच्चा है और शेष चार तत्व अनुकूल है तो देवयोग भी अनुकूल ही रहेगा। जहां तक अधिष्ठान का सम्बन्ध है, यह भी १९२५ की विजयादशमी को निश्चित हो चुका था। उसी पर अडिग रहकर समस्त चुनौतियों व बाधाओं का सामना करते हुए अपनी सक्रियता व गति- विधियों को आवश्यकतानुसार बढ़ाने का हम लोगों ने प्रण लिया हुआ है।
दूसरे तत्व “करणम्” यानी साधन सामग्री के विषय में सोचने की आवश्यकता है, क्योंकि इसमें सब बातें हमारे ही ऊपर नहीं तो बाह्य परिस्थिति पर भी निर्भर हैं। जिस परिस्थिति में जो भी साधन उपलब्ध हैं, उन्हीं के आधार पर हमें अपना काम करना है। इसमें पहली बात आती है, सरकार की। मैंने कल ही कहा था कि अपने काम के लिए हम सरकारी पैसे पर निर्भर करना पसन्द नहीं करते। किन्तु, सरकार की नीतियाँ राष्ट्र निर्माण के रचनात्मक कार्यों के लिये अनुकूल हो-यह हम अवश्य चाहेंगे।
किसानों को शिकायत है कि सरकार की नीति के कारण ही उन्हें अपने उत्पादन का उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता। वे चाहते हैं कि सरकारी नीति में परिवर्तन हो और भारी उद्योगों को प्राथमिकता देकर उनके विकास को प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक सहायता देने की वर्तमान नीति के बजाय, अपने देश की परिस्थिति को ध्यान में रखकर
कृषि व ग्रामीण क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता दी जाय। कृषि में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के मूल्यों में उत्पादन-बिन्दु पर ही सहायता-कटौती की जाय ।
साधन-सामग्री में दूसरा नम्बर पैसे का आता है। मैंने पहले ही कहा कि हम विदेशी धन न लें और भारतीय धनपतियों से भी नम्बर दो का पैसा कदापि स्वीकार न करें। उनमें देशभक्ति की सुप्त भावना व उदात्त जीवन मूल्यों की प्रेरणा को जगाया जा सका तो मुझे विश्वास है कि हमारे धनपति इस समय भी उसी प्रकार आर्थिक सहायता देने के लिये आगे बढ़ेंगे, जिस प्रकार वे स्वतंत्रता के काल खण्ड में आगे आये थे ।
देश के विकास कार्य में योजना आयोग की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है, किन्तु उसे सरकार की ओर से उचित प्रतिष्ठा नहीं मिलती है। दूसरे, जैसा कि पंडित दीनदयाल जी ने बड़े विस्तारपूर्वक बताया था, यदि योजना की पद्धति नीचे से ऊपर जाने वाली रहे तो योजना-आयोग हमारे सभी रचनात्मक कार्यों के लिए उपकारक बन सकता है।
लेकिन सरकारी अनुकूलता से अधिक महत्व को चीज है जन-जागृति । जन-प्रेरणा के बिना रचनात्मक कार्य नहीं चल सकते। अतः उसे जगाना बहुत आवश्यक है। इस प्रकार पांचों तत्वों में से कुछ को हम अपने बलबूते पर प्राप्त कर सकते हैं और कुछ के लिए बाह्य माध्यमों की सहायता की आवश्यकता रहती है। ‘रचनात्मक कार्यकर्ता शब्द प्रयोग भले ही नया हो, किन्तु ऐसे कार्यकर्ताओं की परम्परा बहुत पुरानी है। रचनात्मक कार्यकर्ता अर्थात् सत्ता या धन आदि प्रलोभनों से स्वयं को अलग रख चुपचाप निःस्वार्थ सेवा करने वाला व्यक्ति । श्री समर्थ रामदास के मार्गदर्शन में जिन असंख्य कार्यकर्ताओं ने पर्दे के पीछे रहकर छत्रपति शिवाजी के प्रादुर्भाव की
भूमिका तैयार की, उन्हें आज की भाषा में रचनात्मक कार्यकर्ता ही कहना होगा। रचना-त्मक कार्यकर्ता की गुण सम्पदा कैसी होनी चाहिए ? उसे किन विधि-निषेधों का पालन करना चाहिए, इसका विशद वर्णन ‘दास बोध’ में मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचन्द्र जी के लिए एक ओर “आपहि बने दास की नाई ओर दूसरी ओर “सबहिं नचावहिं राम गोसाई” कहकर रचनात्मक कार्यकर्ता का चित्र ही प्रस्तुत कर दिया है। स्वयं दास के समान बनते हुए भी सब को काम में प्रवृत्त करना- यही रचनात्मक कार्यकर्ता का लक्ष्य है। गीता के अनुसार रचनात्मक कार्यकर्त्ता को समाज के सामने अपने आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए ।
अपने देश की आज यही सबसे बड़ी आवश्यकता है। सत्ता, धन और पद से अलग रहकर अपने नैतिक बल के सहारे समाज का संतुलन बनाने वाले रचनात्मक कार्यकर्ताओं की हजारों वर्ष से चली आ रही परम्परा अब खंडित हो गयी दिखती है जिसके कारण चारों ओर चरित्र एवं आस्था का संकट छाया हुआ है। पूरा समाज जीवन भ्रष्टाचार में डूब गया है। लोगों में भविष्य के प्रति भारी निराशा छा गयी है। लेकिन इसमें निराश होने की कोई बात नहीं है। जिस प्रकार प्रलय का पूर्वाभास पाकर भगवान मनु ने अपनी नौका में सम्पूर्ण जीव-सृष्टि के बीजों को जमा करके मानव सभ्यता को बीज-नाश से बचाया था, मानों उसी प्रकार १९२५ में संघ रूपी नौका का जन्म हो गया, जिसमें राष्ट्र जीवन के लिए आवश्यक सभी गुणों एवं रचनाओं के नमूने विद्यमान है। यह नौका हमारी वर्तमान प्रलय-स्थिति में भी रक्षा करेगी-इसमें कोई सन्देह नहीं ।
साभार संदर्भ |
दीनदयाल शोध-संस्थान द्वारा दिनांक 4,5,6 अक्तुबर 1983 को “विकास – अवधारणा एवं मूलवर्ती प्रयोग” विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया था। इस अखिल भारतीय कार्यशाला में श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी के दो बौद्धिक वर्ग प्राप्त हुये। जो दीनदयाल शोध-संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका मंथन के जून 1984 के अंक में प्रकाशित किये गये। |