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आश्रित और आश्रयदाता की भूमिका ही गलत है || दत्तोपंत ठेंगड़ी || Dattopant Thengadi

आज के हिन्दुत्वनिष्ठ नेताओं के विषय में गलतफहमियां पैदा करने का बीड़ा उठाए हुए स्वयंभू प्रगतिशील लोग कहते थे कि बाबासाहब तो सामाजिक क्रांति के पक्षधर थे लेकिन ये हिन्दुत्वनिष्ठ लोग यथास्थितिवादी और पुनरुत्थानवादी (Status quoist and revivalist) हैं। रा.स्व. संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार कहा करते थे, ‘हमारा उद्धार करने के लिए भगवान अवतार लेंगे यह धारणा गलत है। भगवान ने तो साधुओं की रक्षा और दुष्टों के विनाश का आश्वासन दिया है। तब क्या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ का ही विचार करने वाले लोग साधु कहे जा सकते हैं? भगवान पहले तो अवतार लेंगे ही नहीं और यदि लिया भी तो वह आप जैसे व्यक्तिगत स्वार्थ को हो सर्वोपरि मानने वाले दुर्जनों का ही नाश करेंगे।’ क्या इस भूमिका को यथास्थितिवादी कहा जा सकेगा ?

यह भी उल्लेखनीय है कि रा.स्व. संघ के अपने केवल सात वर्ष के कार्यकाल में ही १९३२ के नागपुर के विजयादशमी महोत्सव में डा. हेडगेवार ने घोषित किया था, ‘संघ क्षेत्र में जातिभेद तथा अस्पृश्यता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है।’ इस घोषणा की सत्यता की प्रतीति सन् १९३४ के वर्धा जिले के संघ शिविर में महात्मा गांधी को भी हुई थी।

जाति के विषय में बाबासाहब कहा करते थे “So long as castes remain, Hindu religion cannot be made a missionary religion and shuddhi will be both a folly, a futility. So long as the castes remained, there would be no ‘Sangthan’ and so long as there is no ‘Sangthan’ the Hindus would remain weak and meek. Caste has made ‘Sangthan’ & cooperation, even for a good cause, impossible. There is no Hindu consciousness. In every Hindu, the consciousness that exists is the consciousness of castes.” ( जब तक जातियां बनी रहेंगी, हिन्दू धर्म सेवा धर्म (मिशनरी) नहीं बन सकता और शुद्धि भी निरर्थक व नुकसानदेह ही रहेगी। जब तक जातियां हैं संगठन नहीं बन सकता और संगठन के अभाव में हिन्दू दुर्बल और दब्बू ही बने रहेंगे। जातियों की वजह से अच्छे काम के लिए भी संगठन और सहयोग दूभर हो गया है। कोई ‘हिन्दू चेतना’ जैसी चीज ही नहीं है। हर हिन्दू में भी जो चेतना होती है यह उसकी जाति-चेतना मात्र होती है।)”

बाबा साहब ने २१ सितम्बर, १९२८ को बहिष्कृत भारत के अपने ‘हिन्दुओं का धर्मशास्त्र’ शीर्षक सम्पादकीय में लिखा कि “अतिप्राचीन काल के वैभव सम्पत्र राष्ट्रों में हिन्दू राष्ट्र भी एक है। इसके साथ के मिस्र, सीरिया, रोम, ग्रीस आदि का अस्तित्व भी नहीं है। किन्तु हिन्दू राष्ट्र आज तक जीवित रहा इसलिए यह बलवान है यह कहना भी आत्मश्लाघा मात्र होगी। हिन्दू राष्ट्र की पराजय व उसके पतन का प्रमुख कारण उसका भेदभाव मूलक (धर्मशास्त्र भी) है यह मानना पड़ेगा।”

इसी तर्क परम्परा में श्री गुरुजी कहते हैं “जैसे ही एकता की जीवनधारा हमारे देश की राजनीति की नस-नस में बहने लगेगी वैसे ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के सभी अंग-प्रत्यंग देश के समग्र रूप से कल्याण के लिए अपने आप सक्रिय रूप से सबसे सामंजस्य रखते हुए काम करने लगेंगे। ऐसा जीवंत और वर्धमान समाज हमारी पुरानी रचनाओं और प्रथाओं में केवल उन्हें ही बनाए रखेगा जो हमारे प्रगति पथ पर संचालन करने हेतु आवश्यक और उपयोगी होगा। जो अपनी उपयोगिता की दृष्टि से कालबाह्य हो गया हो उसे फेंक दो और उसके स्थान पर नई रचनाएं विकसित करो। मरणोन्मुख प्राचीन पद्धतियों के लिए किसी को आंसू बहाने की आवश्यकता नहीं है, साथ ही नई रचनाओं का स्वागत करने में भी किसी को जी नहीं चुराना चाहिए। प्रत्येक जीवित और वर्धमान जीव संस्था की यह प्रकृति ही है। जैसे पेड़ बढ़ता है, पके पत्ते और सूखी टहनियां गिरकर नए विकास हेतु रास्ता बनाती हैं। एक बात अवश्य ध्यान देनी चाहिए कि एकता का जीवनरस हमारे सम्पूर्ण सामाजिक ढांचे में प्रवाहित होता रहे। प्रत्येक व्यवस्था अथवा रचना उस एकता की जीवनधारा का जिस मात्रा में पोषण करेगी, जिएगी, इसलिए किसी व्यवस्था का भविष्य क्या होगा इस पर आज बहस करनी व्यर्थ है। समय की सबसे बड़ी मांग यह है कि हम समाज में निहित एकता की भावना और समाज में जीवन के लिए उसकी आवश्यकता की अनुभूति पुनः जाग्रत करें। बाकी सभी बातें अपने आप सुलझ जाएंगी।”

हिन्दुत्वनिष्ठ लोगों पर प्रायः मुसलमानों के संदर्भ में साम्प्रदायिक होने का आरोप किया जाता है। इस सम्बंध में बाबा साहब की भूमिका और हिन्दुत्वनिष्ठ लोगों को भूमिका का तुलनात्मक अध्ययन करना समीचीन होगा। मुस्लिम समस्या के सम्बंध में बाबा साहब के विचारों का सम्यक् दर्शन कराने वाला ग्रंथ, ‘थाट्स आन पाकिस्तान’ है, उसे मूलतः ही पढ़ा जाना चाहिए।

जब सावरकर जी रत्नागिरि में नजरबंद थे तब शौकत अली उनसे मिले थे। उस समय सावरकर जी ने उनसे कहा था कि मुसलमान यदि अपना अलग संगठन बनाना छोड़ दें तो हम भी हिन्दू संगठन का अपना काम छोड़ देंगे। डा. अम्बेडकर के समता संघ को भेजे गए पत्र में सावरकर जी ने लिखा था, ‘इतना ही नहीं तो मुसलमान अपनी ‘इस्लामियत’, ईसाई अपनी ‘ईसाइयत’ छोड़ दें तो हम भी अपना हिन्दुत्व मानवता में समाविष्ट कर देंगे। मानवमात्र को एक मानना श्रेष्ठ है। मुझे भी यह प्रिय है। किसी को अपने घर में ताला न लगाना पड़े यह नियम तो आदर्श है। लेकिन जब तक हमें मालूम है कि दुनिया में चोर हैं, हम इस आदर्श नियम को ताक पर रखकर अपने घरों में ताला लगाते रहेंगे। इसी तरह जब दुनिया के अन्य लोग अपने-अपने राष्ट्र और धर्म का विस्तार करने में लगे हुए हैं तब तक मुझे भी हिन्दू के रूप में ही जीना चाहिए और राष्ट्र को हिन्दुत्व का ताला भी लगाना चाहिए।’

बाबासाहेब भी इस्लाम के सम्बंध में यही बात कहते हैं, ‘इस्लामी भाईचारा यह विश्वव्यापी भाईचारा नहीं है। वह मुसलमानों के प्रति भ्रातृत्व है। उनका भ्रातृत्व उन्हीं तक उनके समाज तक ही सीमित है। जो इस समाज के बाहर हैं उनके प्रति मुसलमान घृणा और शत्रुता रखते हैं। एक सच्चा मुसलमान कभी भी भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना भाई मानने को तैयार नहीं होगा। इसी कारण मौलाना मोहम्मद अली ने एक महान् भारतीय और सच्चा मुसलमान होने के बावजूद मृत्यु के बाद यरूशलम की कब्र में दफनाया जाना पसंद किया।’

सेना में मुसलमानों को स्थान देने के प्रश्न पर बाबासाहब कहते हैं, -Should these Musalmans be without and against or should they be within and against? (ये मुसलमान हम से अलग होकर हमारे खिलाफ खड़े होंगे उस समय क्या हम चाहेंगे कि वे हमारे भीतर घुसकर भी हमारी खिलाफत करके हमारा घात करें ?)

सावरकर जी ने हिन्दुत्व ग्रंथ के अंत में लिखा है, “हिन्दुस्थान में अन्य धर्म के लोग जब तक इस राष्ट्र को प्राथमिकता नहीं देते अथवा संसार के अन्य समाज मानवता को ही प्रधानता नहीं देते तब तक हे हिन्दुओ ! तुम्हें जहां तक संभव हो अपनी जाति के सामाजिक जीवन को ज्ञानबंधुओं के सुदृढ़ बंधनों में बांधे रखना होगा।”

धर्म, जाति और वंश के आधार पर समस्त भेदों को संविधान में समाप्त करने पर सावरकर जी ने बाबासाहब को बधाई का तार भेजा था। उसमें उन्होंने लिखा, “हमारे भारतीय राष्ट्र के यथार्थ स्वरूप को सिद्ध करने पर मैं आपको बधाई देता हूं। समस्त भेदभावों को समाप्त करने वाली इस संविधान की धारा का अक्षरशः पालन किया जाएगा ऐसी में आशा करता हूं।”

भारतीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एम. एस. बेग और रा.स्व. संघ के सरसंघचालक पू. बालासाहब देवरस ने यह सुझाव दिया था कि अल्पसंख्यक आयोग के स्थान पर राष्ट्रीय एकात्मता के लिए मानवाधिकार आयोग की स्थापना की जानी चाहिए। न्यायमूर्ति बेग के इस सुझाव के ५४ वर्ष पहले ही उस विषम परिस्थिति में भी यही विचार प्रकट करते हुए उन्होंने कहा था- ‘यह देश भिन्न जाति और पंथों में बंटा हुआ है और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए आवश्यक संवैधानिक प्रबंध किए बगैर एकसंघ स्वयंशासित समाज के रूप में नहीं खड़ा हो सकेगा। इस विषय में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु अल्पसंख्यकों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि आज यद्यपि हम भिन्न- भिन्न जाति-पंथों के टुकड़ों में बंटे हुए हैं फिर भी हमारा लक्ष्य एक संघ अखंड भारत ही है। इस ध्येय को बाधा पहुंचाने वाली कोई भी मांग अल्पसंख्यकों द्वारा जाने-अनजाने में नहीं करनी चाहिए।’

(To say this country is divided by castes and creed and that it cannot be one united self governing community unless adequate safeguards for protection of minorities are made as part of constitution, is a position to which there can be no objection. But minorities must bear in mind that although we are today divided by sects and atomised by castes, our ideal is a united India. No demand from minority should willingly or unwillingly sacrifice this ideal).

बाबासाहब मुस्लिम तुष्टीकरण के विरुद्ध थे। इसीलिए उन्होंने लखनऊ पैक्ट और नेहरू कमेटी की रपट की भी निन्दा की थी। ‘नेहरू आयोग की रपट और हिन्दुस्थान का भविष्य’ शीर्षक से १९ जनवरी, १९२९, के बहिष्कृत भारत के लेख में उन्होंने लिखा था, ‘जिस योजना से हिन्दुओं का अहित होता हो वह योजना किस काम की?’ यह प्रश्न करते हुए उन्होंने लिखा-‘हम इस रपट का विरोध इसलिए नहीं करते कि वह अस्पृश्यों के अधिकारों का हनन करती है अपितु इसलिए कि उससे हिन्दुओं को खतरा है और सारा हिन्दुस्थान उससे भविष्य में मुसीबत में पड़ सकता है।’

आज सेक्युलरिज्म के नाम पर हिन्दुत्वनिष्ठों के खिलाफ सब जगह बवंडर है। इस विषय में बाबा साहब ने स्पष्ट रूप से कहा था- ‘इस (सेक्युलर राज्य) का यह अर्थ नहीं है कि लोगों की धार्मिक भावना का हम विचार ही नहीं करेंगे। सेक्युलर राज्य का केवल यही अर्थ है कि संसद एक समुदाय के धर्म को शेष समुदायों पर थोपने में सक्षम नहीं होगी। संविधान केवल इसी सीमा को मानता है। सेक्युलरिज्म का अर्थ धर्म का उच्छेदन नहीं है।’ (Secular State does not mean that we shall not take into consideration the religious sentiments of the people. All that’s a secular state means is that this parliament shall not be competent to impose particular religion upon rest of the people. That is the only limitation that the constitution recognises. Secularism does not mean abolition of religion).

गांधी जी के ‘हरिजन’ शब्द पर बाबासाहब को आपत्ति थी। इस सन्दर्भ में पूज्य गुरुजी से कहा था, ‘हमें हिन्दू समाज से जानबूझकर अलग रखा जा रहा है, इस प्रकार की धारणा अस्पृश्य समाज में हरिजन शब्द से पनप सकती है। यह हिन्दू समाज के लिए भविष्य में घातक सिद्ध हो सकता है।’ लेकिन गांधी जी नहीं माने। इसी मनोभूमिका के चलते गांधीजी ने ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की थी। इसमें उनका उद्देश्य यद्यपि अच्छा था अपितु वैचारिक दृष्टि से यह गलत ही सिद्ध हुआ। अस्पृश्य लोगों के अंतर्मन में आश्रित और आश्रयदाता अथवा जिनका उद्धार किया जाना है और उद्धार करने वाले ऐसे दो वर्ग होने की बात घर कर गई। इसलिए ‘हरिजन सेवक संघ’ के बारे में बाबा साहब ने कहा था कि उसका उद्देश्य ‘दया दिखाकर अछूतों को खत्म करना है’- (To kill the untouchables with kindness.)

गुरुजी का स्पष्ट मत था कि ‘आश्रित और आश्रयदाता’ की भूमिका ही अशास्त्रीय है। उनकी दृष्टि में अस्पृश्यता यह केवल अस्पृश्य लोगों की ही समस्या नहीं है। तथाकथित सवर्णों के मन में जो संकुचित भाव है वही इसकी जड़ है। इसलिए जब तक सवर्ण लोगों के मन की अस्पृश्यता नहीं समाप्त हो जाती तब तक यह समस्या पूर्णतया हल होने वाली नहीं है। नवजाग्रत अस्पृश्यों के विद्रोह की भावना समझी जा सकती है। लेकिन इस समस्या का समाधान भावात्मक धरातल पर पारिवारिक सम्बंधों के विकास से ही हो सकता है।

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