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दत्तोपन्त ‘आर्वीकर ‘|| मोरेश्वर जी || बाल भिड़े जी ||Dattopant Thengadi

वर्धा जिले के ‘आर्वी’ गांव में श्री दिनकर जी देशपांडे के घर हम बैठे थे। मा० दत्तोपन्त जी के बचपन के साथी इकट्ठे हुए थे। मा० ठेंगड़ी जी के बाल्यकाल का परिचय प्राप्त करने हेतु वहां गया था। मा० दत्तोपन्त के जन्मस्थान आर्वी में ही उनकी माध्यमिक शिक्षा हुई थी। विशेषतः वहां के पुस्तकालयाध्यक्ष ने उनको बहुश्रुत बताया।

आर्वी एक छोटा सा तहसील गांव है। मा० बापू जी ठेंगड़ी, माननीय दत्तोपन्तजी के पिताजी-वहां के यश-प्राप्त वकील थे। वकालत खूब अच्छी चल रही थी। श्री बापू जी भगवान दत्तात्रेय के भक्त थे। अत्यन्त उग्र प्रकृति के थे और माननीय दत्तोपन्त जी की माता जी जिन्हें सभी बाई कहते थे, मूर्तिमन्त वात्सल्य। घर में सभी पिताजी से डर कर रहते थे, वहीं माता जी का सहारा भी बहुत बड़ा था।

गांव के सभी घरों में मा० दत्तोपन्त जी का अपने घर जैसा ही सम्बन्ध था । गांव के सभी बच्चे आपके मित्र- परिवार में सम्मिलित थे। मैत्री करते समय रंग-रूप, जात-पांत, अमीरी-गरीबी यह भेद आपके पास नहीं थे। करमूरकर होटल में पकोड़े तलने बाला बकाराम आपका बचपन का साथी आज भी आपका अभिन्न- हृदय मित्र है। श्री बकाराम एक वनवासी परिवार से हैं और अब छोटे से होटल में काम करते हैं। ‘विलायत से भी दत्तोपन्त मुझे चिट्ठी लिखते हैं’ श्री बकाराम ने कहा ।

बकाराम १९४२ के आन्दोलन में १० महीने जेल काट चुके हैं। स्वतन्त्रता सेनानी होते हुए भी उनकी पेन्शन के लिये किसी ने ध्यान नहीं दिया। गांव में सभी काँग्रेस वालों की पेन्शन शुरू हो गई थी। जब श्री दत्तोपत्तजी को यह बात पता चली तो उन्होंने श्री बकाराम के लिये प्रयत्न किया। आज बकाराम को रु. ३००/ पेन्शन मिलती है। उन्हें पूछा गया ‘आपको पेन्शन किसने दिलाई’ ? महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री अन्तुले जी ने दिलाई क्या ? श्री बकाराम ने कहा “नहीं, अन्तुले ने नहीं दत्त ने दिलवाई” ।

श्री त्र्यम्बकराव गिरधर जी ने एक प्रसंग बताया। १९३१-३२ साल की घटना है। मा० अप्पा जी जोशी गाँव पधारे थे। आपने गांव के सभी बच्चों को बातचीत के लिये इकट्ठा बुलाया था। आपने बच्चों से पूछा ‘माताजी श्रेष्ठ हैं या पिताजी’ ? सभी बच्चों ने अपने विचार कारण सहित बताये। मा० ठेंगड़ी जी ने कहा ‘मां श्रेष्ठ है’ और फिर आधा घंटा आपने माता-माहात्म्य सुनाया। इन जैसे छोटे बच्चे का यह पांडित्यपूर्ण प्रवचन सुनकर सभी मुग्ध हो गये। मा० अप्पाजी ने कहा यह बच्चा बहुत ही बड़ा बनेगा ।
आर्वी नगर परिषद् के सेनेटरी इन्सपेक्टर पद पर अवकाश प्राप्त श्री मोतीसिह जी गौड़ बता रहे थे कि एक भाषण प्रतियोगिता थी जिसका विषय था ‘शिवाजी’। छोटे बड़े सभी बच्चे उसमें सम्मिलित थे। लेकिन प्रथम पुरस्कार तो छोटे दत्त (मा० दत्तोपन्त) को ही मिला। कुछ नकद इनाम भी। इनाम में मिले पैसे लेकर दत्त सीधे संघचालक जी के घर गया। संघचालक जी ने उसे कहा कि पैसे गुरु दक्षिणा के लिए अपने पास ही रख लो।

आर्वी के जिस नगरपालिका विद्यालय से मा० दत्तोपन्त जी ने मैट्रिक किया था उसी विद्यालय के सेवा निवृत्त मुख्याध्यापक श्री नेत्राम खिंवराज हरजाल जी ने कहा ‘लोकमान्य लायब्ररी का विदर्भ में उस समय पहला स्थान था। सन् १८६५ में स्थापित उस लायब्ररी में हजारों किताबें थीं। लेकिन मेट्रिक करने से पहले ही दत्तोपन्त पूरी लायब्रेरी पढ़ चुके थे। बड़ी-बड़ी किताबें भी आप एक एक दिन में पढ़ लेते थे ।

विदेश यात्रा की, लेकिन आज भी आर्वी के लोगों को दत्तोपन्त अपने से दूर गये ऐसे लगता नहीं है। मा० दत्तोपन्त जी को भी आर्वी आते ही ‘घर’ पहुंचने का आनन्द मिलता है। मा० दत्तोपन्त चाहे रात के बारह बजे पहुँचे हों आप किसी घर जाकर अपनी उस घर की भाभी से कहते ‘भाभी भूख लगी है’ और रात के १-२ बजे भाभी बड़े स्नेह से अपने इस लाडले देवर को गरम-गरम खाना खिलाते समय स्वयं को धन्य-धन्य मानती है।
श्री दिनकर राव जी देशपांडे कह रहे थे ‘दत्तोपन्त कितने ही बड़े क्यों न हों, सभी आर्वी आने पर अपने घर आपके आने के इन्तजार में रहते हैं।’

श्री बकाराम ने कहा ‘दत्तोपन्त इतने बड़े हैं, विलायत भी होकर आाये लेकिन अभी रास्ते में मिलते हैं तो कंधे पर हाथ रखकर बचपन के साथी की तरह चलते हैं। आर्वी आने से पहले मुझे पत्र लिखते हैं-आ रहा हूं। भला मनुष्य, जरा भी खोटा नहीं । देव मनुष्य ।

  • मोरेश्वर

सर्वश्री हरबाल मोहरील, पेंडके देशपाण्डे, गौड़ आदि मा० ठेंगड़ी जी के सभी बालमित्र आज फिर से अपने बचपन की यादों में खो गये थे। आपने मा. ठेंगड़ी जी का बाल्यकाल शब्दों में साकार कर दिया।

मा० दत्तोपन्त जी का बाल्यकाल मानो एक फास्ट ट्रेन थी। आप हमेशा पढ़ते रहते थे। ‘बोर हो गया’ यह आपके शब्दकोष में था ही नहीं। आत्यंतिक स्मरण शक्ति से छोटे बड़े सभी प्रभावित होते थे। हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक श्री शंकरराव देशमुख आपको प्रोत्साहन देते थे । कक्षा में आपका सदा प्रथम या किंचित दूसरा स्थान होता था। मराठी तो आपकी मातृभाषा है ही, लेकिन हिन्दी, इग्लिश तथा संस्कृत भी आप उसी तरह लिखते, पढ़ते तथा बोलते थे । वैसे आज की पोलिटिक्स की दृष्टि से मा० दत्तोपन्तजी एकदम (अनफिट) अयोग्य है । अन्दर एक बाहर दूसरा यह आपके स्वभाव में ही नहीं है । इस दुनिया का तथाकथित व्यवहार आपको पता नहीं है। घुटने तक की धोती, शर्ट तथा सफेद टोपी यह आपका उस समय का वेश रहता था। उसी के अनुसार अत्यन्त सीधा स्वभाव । इस सीधे स्वभाव के कारण इस व्यवहारी दुनिया में आपको काफी नुकसान उठाना पड़ा। कई घटनाएं सुनी। लेकिन पूरे विश्व की चिन्ता करने वाले मा० दत्तोपन्तजी को अपने परिवार की ओर ध्यान देने का समय कहाँ था ? ग्यारहवीं पास करते ही आप आर्वी छोड़कर नागपुर पहुँचे। वहां मॉरिस कॉलेज से बी. ए. करने के बाद आपने नागपुर में ही लाँ की परीक्षा भी पास करली । आप छुट्टियों में आर्वी जाते थे, तब मित्र परिवार में नये उत्साह का संचार होता था।

आप संघ के प्रचारक बने, इंटक कार्यकर्ता बने, भा० म० सं० स्थापन किया, संसद सदस्य बने ।

कामगार संघटना के आगे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा गौण

भारतीय मजदूर संघ का अखिल भारतीय अधिवेशन बम्बई में षणमुखानन्द हाल में हो रहा था। सन् १९७२ को घटना है। मजदूर संघ के अधिवेशन में दूसरी संघटनाओं के कामगार नेता बुलाकर उनके विचार सुनना यह कल्पना मा० दत्तोपन्तजी की ही है। विविध संगठनों के नेता आज तक भा० म० सं० के व्यासपीठ पर आये हैं । सन् १९७२ के इस अधिवेशन में विख्यात गोदी कामगार नेता श्री एस० आर० कुलकर्णी आये थे। उस समय उन्होंने बताया “श्री ठेंगड़ीजी थे इसलिये हम सब इकट्ठे आ सके ।”

२० अगस्त, १९६३ को ‘बम्बई बन्द’ कार्यक्रम था। उस समय एक मात्र कामरेड डांगे जी को छोड़कर बाकी सभी कामगार संगठन इक‌ट्ठे हुए थे। यह एक बहुत बड़ा आश्चर्य था लेकिन उनको वास्तव में एकत्र लाने का सम्पूर्ण श्रेय मा० ठेंगड़ी जी को ही मिलेगा। इस चमत्कार के निर्माता थे, मा० ठेंगड़ो जी ।

श्री एस० आर० कुलकर्णी ने जो घटना बतायी उस प्रसंग को मैंने अपनी आंखों से देखा है। उस समय की सभी घटनाऐं मैंने नजदीक से देखी है। ऐसे प्रसंग सभी कार्यकर्ताओं को प्रेरणा तथा मार्ग दर्शन देने वाले हैं। भा० म० सं० के इतिहास की यह एक महत्व की घटना है- विविध दृष्टि से ।

‘बम्बई बन्द’ का नारा लगाने वाला पत्रक श्री डांगे तथा लिमये जी ने प्रसारित किया। भा० म० सं० उस समय संख्याबल तथा महत्व, दोनों दृष्टि से दुर्बल था। बम्बई में तो नगण्य था । लेकिन कामगार क्षेत्र में बड़े जोश से आगे आने की उम्मीद थी । इसके लिये जरूरी था एकाध बार श्री डांगे जी को जबरदस्त धक्का देना । कम्यूनिस्टों को जरा सा धक्का दिये बिना प्रगति असम्भव थी।

श्री ठेगड़ी जी को कुछ वरिष्ठों ने सलाह दी कि आवश्यक मांगों को लेकर ‘बम्बई बन्द’ होने में कोई गलत बात नहीं है, लेकिन अगर आप आगे आना चाहते है तो आपको श्री डांगे जी को पृथक रखकर कार्यक्रम यशस्वी करना होगा ।

यहीं से ठेंगड़ीजी की भूमिका शुरू हुई । आप श्री मधुलिमये जी से मिले और आपने सहकार्य (साथ) देने की इच्छा प्रकट की। श्री लिमये से श्री दत्तोपन्त जी की इस प्रकार बातचीत हुई –

श्री लिमये – आपकी ताकत कितनी है ?

श्री ठेंगड़ी – कुछ भी नहीं ।

श्री लिमये – तो आपके सहकार्य से हमें क्या लाभ होगा ?

श्री ठेंगड़ी – श्री डांगेजी की मदद के बिना कार्यक्रम सफल हो सकता है।

श्री लिमये – कैसे ?

श्री ठेंगड़ी – हिन्द मजदूर पंचायत, हिन्द मजदूर सभा, भा० म० संघ, यू० टी० यू० सी० तथा अन्य कुछ स्थानीय संगठन एकत्र होकर यह कार्य कर सकते हैं।

श्री लिमये – सही है। लेकिन ये सब एकत्रित कैसे आ सकते हैं? इनमें से इन सब संस्थाओं के नेता एक दूसरे का मुंह देखना पसन्द नहीं करते ।

श्री ठेंगड़ी – ये मेरी जिम्मेदारी रही।

इस प्रकार की चर्चा के बाद श्री लिमये जी ने श्री ठेंगड़ी जी पर यह जिम्मेदारी सोंप दी ।

श्री एस० आर० कुलकर्णी, श्री मधु लिमये तथा श्री ठेंगड़ी आदि नेताओं ने मिलकर ‘बम्बई बन्द’ का आह्वान किया। श्री ठेंगड़ी जी के प्रयास से इस ‘बन्द’ को चारों ओर से समर्थन मिलने लगा। केवल डांगेजी ने शुरू में विरोध दिखाया, लेकिन फिर हवा का रुख देखकर श्री डांगे ने भी बन्द से एक दिन पहले समर्थन में पत्रक निकाला।
कम्यूनिस्टों के हाथ से आन्दोलन का नेतृत्व जाते देखकर ही श्री डांगे की हालत खस्ता हो गई थी। इस प्रकार सभी भारतीय संगठनों को एक मंच पर लाकर कम्यूनिस्टों को झटका देने वाले सूत्रधार थे मा० दत्तोपन्त जी ठेंगड़ी। एक नगण्य संगठन के नेता ।

स्वाभाविक ही बन्द यशस्वी हो गया। सायंकाल आजाद मैदान में कामगार सम्मेलन था। व्यासपीठ के नजदीक ही श्री ठेंगड़ी, कुलकर्णी, मधु लिमये आदि नेता खड़े थे। सभा के नियोजित अध्यक्ष श्री ना० ग० गोरे वहां पहुँचे। कामगार जत्थो में वहां पहुँच ही रहे थे। सफलता का विजय पर्व अब मनाया जाना था। सभी उत्साहित थे । पर एक नई समस्या सामने आई। श्री गोरेजी ने श्री ठेंगड़ोजी को देखकर श्री लिमये से पूछा कि ये सज्जन यहां कैसे ?

श्री लिमये ने पार्श्व भूमिका बताई और आज के इस सफल कार्यक्रम के सूत्र- धार श्री ठेंगड़ीजी हैं यह भी स्पष्ट किया ।

श्री गोरे – लेकिन ये संघ वाले हैं और मेरा नियम है कि मेरी अध्यक्षता में जो सभा होगी उसमें कोई भी आर० एस० एस० वाला भाषण नहीं दे सकता ।

श्री ठेंगड़ी – यह सत्य है कि मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक हूँ ।

श्री लिमये – (दुविधा में पड़े हुए) लेकिन नाना साहब इस सभा में श्री ठेंगड़ी जी की उपस्थिति अनिवार्य है।

श्री गोरे – तो ठीक है। इनका भाषण होने दीजिये में अध्यक्षता नहीं करूंगा ।

अब तक मैदान में हजारों कामगार इकट्ठे हो चुके थे। थोड़ी ही देर में सभा प्रारम्भ होने वाली थी। प्रमुख कार्यकर्ता नेताओं के पास एकत्रित हो रहे थे। प्रसंग बहुत ही कठिन था। श्री गोरेजी का नाम पहले ही छप चुका था। उनको कामगारों ने भी देख लिया था। उनके अध्यक्ष न रहने का कोई भी कारण बनाना व्यर्थ था और मा० ठेंगड़ीजी का भाषण होना भी उतना ही अनिवार्य था। दिन भर की सफलता को अब कालिख लगने का डर पैदा हो गया। लेकिन मा० दत्तोपन्तजी की दृष्टि में संस्था के हित के सामने व्यक्तिगत प्रतिष्ठा हमेशा ही नगण्य रही है इसलिये श्री ठेंगड़ीजी ने कहा ‘मैं मच पर नहीं चढूंगा और न भाषण दूंगा। नाना साहब ही अध्यक्षता करेंगे। मुझे उसमे कोई आपत्ति नहीं है।’

मा० ठेंगड़ीजी को आपत्ति हो या न हो लेकिन उनका भाषण नहीं होता तो कामगार जरूर नाराज हो जाते और अभी तक की सफलता पर पानी फिर जाता । आखिर श्री लिमये, कुलकर्णी ने रास्ता निकाला। उन्होंने कहा कि स्वागत भाषण
श्री ठेंगड़ीजी का होगा और अपने भाषण के अन्त में श्री ठेंगड़ीजी श्री गोरे को अध्यक्षता स्वीकार करने की प्रार्थना करेंगे। यह बात सभी को मंजूर हो गई। श्री गोरे के नियम में बाधा नही आाई और कामगारों में यह अनुचित बात नहीं फैली ।

यह प्रसंग अब पुराना हो गया है। इसका महत्व भी केवल ऐतिहासिक घटना जितना ही है लेकिन उस प्रसंग से लेकर धीरे-धीरे यह समय भी आया कि आपातकाल में लोक संघर्ष समिति के मा० दत्तोपन्त जी ठेंगड़ी सेक्रेटरी थे और श्री ना० ग० गोरे तथा मा० ठेंगड़ी जी ने उसमें मिलकर महान् कार्य किया ।

विरोधक भी नितान्त स्नेही

श्री दत्तोपन्तजी के वैयक्तिक सम्बन्ध सभी लोगों से आत्मीयता तथा निष्कपट स्नेह के हैं। आपके प्रतिस्पर्धी तथा पक्के विरोधक। (कार्य की दृष्टि से) व्यक्तिगत जीवन में आपके कितने निकटस्थ स्नेही रहते हैं इसका एक ही उदाहण पर्याप्त है।

सुप्रसिद्ध मार्क्सिस्ट नेता तथा सी० आई० टी० यू० के महामंत्री श्री पी० राममूति का ७५ वां जन्मदिन था उस दिन आपने अपने ४ अत्यन्त निकटस्थ स्नेही भोजन पर बुलाये थे। उनमें से तीन थे प्रख्यात मार्क्सवादी नेता सर्वश्री सुन्दरैया, वी० टी० रणदिवे, श्री एम० एस० नम्बूद्रीपाद तथा चौथे परम स्नेही थे श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी ।

● बाल भिडे़

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