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एकात्मता के पुजारी डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर – दत्तोपंत ठेंगड़ी

बंधुभाव होगा तो देश बचेगा-अम्बेडकरदत्तोपन्त ठेंगड़ी

कुछ वर्ष पूर्व वसन्त व्याख्यानमाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने सामाजिक समता और हिन्दू संगठन विषय पर बोलते हुए कहा था –

“यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है तो दुनिया में कुछ गलत नहीं है । महाराष्ट्र प्रान्त के तलजाई शिविर में उन्होंने घोषित किया था कि समतायुक्त और शोषणमुक्त हिन्दू समाज का निर्माण ही हमारा ध्येय है । अभी पिछले विजयादशमी महोत्सव में नागपुर में बताया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जितने अन्तर्जातीय विवाह हुए हैं, उतने अन्यत्र कहीं भी किसी भी सामाजिक संस्था के सदस्यों में नहीं हुए हैं । हम लोग प्रचार और विज्ञापनबाजी नहीं करते। इसीलिए लोगों को यह पता नहीं है । किन्तु यह बात समाज को ध्यान में रखनी चाहिए कि अस्पृश्यता हिन्दू समाज पर कर्ज रूप में लदी है और वह कर्ज समाज को चुकाना होगा । पूर्वाग्रह दूषित तथाकथित प्रगतिशील नेता चाहे जो कहें, संघ के तीनों सरसंघचालकों द्वारा समझायी गयी भूमिका, रामजन्मभूमि पर  ‘अछूत’ कहे जाने वाले बन्धु से विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा कराया गया शिलान्यास, नासिक के कालाराम मन्दिर में बाबा साहब के साथ में मन्दिर प्रवेश हेतु सत्याग्रह करने वाले बसु द्वारा राम ज्योति का प्रज्वलित करना और अब स्वयंसेवकों द्वारा महाराष्ट्र में “महात्मा फूले – डॉ. अम्बेडकर संदेश यात्रा”  का आयोजन, ये ऐसी घटनाएँ हैं जिनसे बाबा साहब अम्बेडकर संतुष्ट ही होते ।

सामाजिक समरसता निर्माण हुए बगैर सामाजिक समता नहीं स्थापित हो सकती, ऐसी धारणा पूज्य डॉ. हेडगेवार के समान ही पूज्य बाबासाहब की भी थी । उन्होंने २५ नवम्बर, १९४७ को दिल्ली में कहा था – हम सब भारतीय परस्पर सगे भाई हैं – ऐसी भावना अपेक्षित है । इसे ही ‘बंधुभाव’ कहा जाता है और आज उसी का अभाव है । जातियाँ आपसी ईर्ष्या और द्वेष बढ़ाती हैं । अत: यदि ‘राष्ट्र’ के उच्चासन तक हम पहुँचना चाहते है तो इस अवरोध को दूर करना होगा, तभी बन्धुभाव पनपेगा । बन्धुभाव ही नहीं रहेगा तो समता, स्वाधीनता सब अस्तित्वहीन हो जायेंगे ।“

बन्धुभाव की गारंटी

एक अन्य अवसर पर बाबसाहब ने कहा – “मेरा तत्त्वज्ञान राजनीति से नहीं, धर्म से उपजा है । भगवान बुद्ध के उपदेशों से मैंने वह ग्रहण किया है । उसमें स्वाधीनता और समता को स्थान है । किन्तु अपरिमित स्वाधीनता से समता का नाश होता है और विशुद्ध समता में स्वाधीनता का स्थान नहीं रहता । मेरे तत्त्वज्ञान में स्वाधीनता और समता का उल्लंघन न हो केवल इसलिए सुरक्षा के नाते विधान (कानून) के लिए जगह है। किन्तु कानून ही स्वाधीनता और समता की गारंटी है ऐसा मैं नहीं मानता । इसीलिए मेरे विचार में बन्धुभाव के लिए बड़ा ऊँचा स्थान है । स्वाधीनता और समता के उचित परिपालन में केवल ‘बन्धुभाव’ ही सुरक्षा की गारंटी हो सकता है । इसी बन्धुता का दूसरा नाम मानवता है और मानवता ही धर्म है ।“

हिन्दू संगठन के लिए संघ के उपक्रम के मूल में यही भावना निहित है यह सभी जानते हैं । ‘सर्वेषांऽविरोधेन’ काम करने की संघ की पद्धति है । संघ का काम बढ़ता देखकर कुछ लोगों के पेट में दर्द होता है । ये ऐसे कुछ समाजवादी प्रगतिशील कहलाने वाले महाराष्ट्र के नेता हैं जो कभी चार लोगों को भी अपने साथ लेकर नहीं चल सके । उनकी उस बाँझ महिला जैसी स्थिति है जिसे दूसरों के बच्चे होना बर्दाश्त नहीं होता । इस मनःस्थिति के कारण ही संघ का विरोध करना वे अपना एक मात्र कार्य मानते हैं । ऐसे लोगों को समझाना व्यर्थ है, क्योंकि सोते हुए को उठाया जा सकता है, सोने का नाटक करने वाले को नहीं उठाया जा सकता । इन प्रगतिशील महानुभावों का उद्देश्य विरोध के लिए विरोध करना मात्र है । समाचार-पत्र ही इनके एक मात्र शक्तिस्रोत हैं । उनके माध्यम से वे रणनीति के रूप से सतत् प्रयास करते रहे कि दलित समाज और संघ परस्पर विरोधी हैं – ऐसा आभास निर्माण किया जाये । इसीलिए इन लोगों ने यह प्रचार जोरों से किया कि नागपुर में संघ का मुख्यालय होने के कारण संघ को मानो चिढ़ाने के लिए ही बाबासाहब ने धर्मान्तरण के लिए नागपुर चुना। इससे जो गलतफहमी दलित और सवर्ण समाज में फैली, उसकी ओर बाबासाहब का ध्यान गया । इसलिए उन्होंने आरम्भ में ही कहा कि नागपुर का चुनाव भारत के मध्य में होने के कारण शास्त्रशुद्ध रीति से किया गया । उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि “जो लोग ऐसा आरोप लगा रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का केन्द्र होने के कारण उन्हें चिढ़ाने के लिए मैंने नागपुर का चुनाव किया, उनकी यह सोच असत्य और द्वेष-प्रेरित है ।“

संघ से सम्पर्क

बाबासाहब को संघ के विषय में पूरी जानकारी थी । १९३५ में वह पुणे में महाराष्ट्र के पहले संघ शिविर में आये थे । उसी समय उनकी डा. हेडगेवार से भी भेंट हुई थी । वकालत के लिए वे दापोली (महाराष्ट्र) गये थे, तब भी वे वहाँ की संघ शाखा में गये थे और संघ स्वयंसेवकों से दिल खोलकर संघ कार्य के बारे में चर्चा की थी । १९३७ की करहाड शाखा (महाराष्ट्र) के विजयादशमी उत्सव पर बाबासाहब का भाषण और उसमें संघ के विषय में प्रगट किये गये उनके विचार जिन्हें आज भी स्मरण हैं, ऐसे लोग आज भी वहाँ हैं । सितम्बर  १९४८ में श्री गुरुजी और बाबासाहब की दिल्ली में भेंट हुई थी। गांधीजी की हत्या के बाद सरकार ने द्वेष के कारण संघ पर प्रतिबंध लगाया था, उसे हटवाने के लिए पू. बाबासाहब, सरदार पटेल और श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कोशिश की थी । १९३९ में पूना संघ शिक्षा वर्ग में सायंकाल के कार्यक्रम हेतु बाबासाहब आये थे । डा. हेडगेवार भी वहीं थे । लगभग ५२५ पूर्ण गणवेशधारी स्वयंसेवक संघस्थान पर थे । बाबासाहब ने पूछा, ‘इनमें अस्पृश्य कितने हैं ?’ डा. हेडगेवार ने कहा, ‘अब आप पूछिए न?’ बाबासाहब ने कहा, “देखो, मैं पहले ही कहता था ।“  इस पर डा. हेडगेवार ने कहा, “यहाँ हम अस्पृश्य हैं ऐसा किसी को कभी लगने ही नहीं दिया जाता । अब यदि चाहें तो जो उपजातियाँ हैं, उनका नाम लेकर पूछिए ।“ तब बाबासाहब ने कहा – “वर्ग में जो चमार, महार, मांग, मेहतर हों वे एक-एक कदम आगे आयें ।“ ऐसा कहते ही कोई सौ से ऊपर स्वयंसेवक आगे आये ।

१९५३ में मा. मोरोपंत पिंगले, मा. बाबासाहब साठे और प्राध्यापक ठकार औरंगाबाद में बाबासाहब से मिले थे । तब उन्होंने उनसे संघ के बारे में ब्योरेवार जानकारी प्राप्त की । शाखाएँ कितनी हैं, संख्या कितनी रहती है आदि पूछा । वह जानकारी प्राप्त करने के बाद बाबासाहब मोरोपंत जी से कहने लगे, “मैंने तुम्हारी ओ.टी.सी. देखी थी । उसमें जो तुम्हारी शक्ति थी, उसमें इतने वर्षों में । जितनी होनी चाहिए थी उतनी प्रगति नहीं हुई । प्रगति की गति बड़ी धीमी दिखाई देती है । मेरा समाज इतने दिन प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं है ।“

धर्मान्तरण के पूर्व

धर्मान्तरण के कुछ दिन पूर्व मैंने उनसे पूछा था, बीते समय में कुछ अत्याचार हुए तो ठीक है, लेकिन अब हम कुछ तरुण लोग जो कुछ गुणदोष रहे होंगे, उनका प्रायश्चित करके नयी तरह से समाज रचना का प्रयास कर रहे हैं, यह बात आप के ध्यान में है क्या? ‘यू मीन आर. एस. एस.?  उन्हें यह पता था कि मैं संघ का प्रचारक हूँ उन्होंने कहा, ‘क्या तुम समझते हो मैंने इस बारे में विचार नहीं किया ?

आगे उन्होंने बताया संघ १९२५ में बना । आज तुम्हारी संख्या २७-२८ लाख है, ऐसा मानकर चलते हैं । इतने लोगों को एकत्र करने में आपको २७-२८ वर्ष लगे । तो इस हिसाब से सारे समाज को इकट्ठा करने में कितने साल लगेंगे । मैं जानता हूँ कि गणितीय और ज्योमितीय प्रगति एक जैसी नहीं होती । लेकिन मेढ़क कितना भी फूले, वह बैल तो नहीं बन सकता । इनमें जितना समय लगेगा उससे न तो परिस्थिति ही प्रतीक्षा करेगी, न ही मैं । मेरे सामने प्रश्न यह है कि मुझे जाने से पहले अपने समाज को एक निश्चित दिशा देनी चाहिए । क्योंकि यह समाज अब तक दलित शोषित पीड़ित रहा है; और उसमें जो नयी चेतना आ रही है उसमें व्यवस्था के प्रति रोष का होना स्वाभाविक है । इस प्रकार का जो समाज है वह कम्युनिज्म का लक्ष्य बन सकता है । मैं ऐसा होना उचित नहीं समझता । इसलिए राष्ट्र की दृष्टि से कोई न कोई दिशा देनी आवश्यक है, यह मैं मानता हूँ । आप संघ वाले भी राष्ट्र की दृष्टि से प्रयत्न करते हैं, किन्तु यह ध्यान रखें कि –

‘अनुसूचति जातियों और कम्युनिज्म के बीच अम्बेडकर अवरोध हैं तथा सवर्ण हिन्दुओं और कम्युनिज्म के बीच गोलवलकर अवरोध हैं ।’ यह शब्दश: उनका कथन है ।

राष्ट्रहित में परम साहसी अम्बेडकर

बाबासाहब पं. नेहरू की विदेश नीति के कटु आलोचक थे । उन्होंने कहा था, एक ओर मुस्लिम देश आसानी से पाकिस्तान के साथ मिलकर गुट बना सकते हैं और इस ओर चीन को ल्हासा पर कब्जा कर लेने देने से हमारे प्रधानमंत्री ने चीन को हमारी सीमा के पास तक आ भिड़ने में मदद की है । संविधान में धारा ३७० जोड़ने के बारे में भी बाबासाहब को इसके लिए सहमत करने की जिम्मेदारी पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला पर सौंपी थी । प्रत्यक्ष चर्चा में भाग लेना इस संकेतात्मक बन्धन के कारण संभव न होने से बाबासाहब ने ३७० धारा का विरोध करने का काम अपने मित्र मौलाना हसरत, मोहानी से करवाया।

भाषावार प्रान्त रचना देश के लिए घातक होगी, यह चेतावनी देने का कार्य केवल दो महापुरुषों ने ही किया था एक परम पूजनीय गुरुजी, दूसरे पूज्य डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर । राज्य के पुनर्गठन में उनकी अवधारणा की इकाइयाँ  (यूनिट्‌स) पं. दीनदयाल जी की जनपद अवधारणा से मेल खाती थी।

शूद्र भी क्षत्रिय थे यह उनके द्वारा प्रमाणित किये जाने पर अनेक लोग बेचैन हो उठे थे । राष्ट्रहित की ओर सच बात निर्भीकतापूर्वक प्रकट करने का साहस उनमें था । कांग्रेस, ब्रिटिश सरकार, मुस्लिम लीग, सनातनी, सवर्ण धर्माचार्य – इन सबके सामने तो उन्होंने निडर होकर अपना सत्य पक्ष रखा ही, लोकमान्य तिलक के आर्यों के भारत आगमन के निष्कर्ष को भी उन्होंने निडर होकर चुनौती दी थी और उसका खंडन किया था । इतना ही नहीं जिनको वे गुरु मानते रहे उन महात्मा फुले के ब्राह्मणों के ईरान से भारत में आने के सिद्धांत का भी उन्होंने खंडन किया था ।

अम्बेडकर की महानता

१४ अप्रैल, १९४२ को बाबासाहब के ५०वें जन्म दिवस पर शुभकामनाएँ देते हुए स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने लिखा था, “अम्बेडकर अपने व्यक्तित्व, विद्वता, संगठन कुशलता और नेतृत्व कुशलता के कारण ही देश के एक आधारभूत महापुरुष गिने जा सकेंगे । किन्तु अस्पृश्यता के उन्मूलन और लाखों अस्पृश्य बस्तुओं में साहसपूर्ण आत्म-विश्वास और चेतना जगाने में जो यश उन्हें मिला है उससे उनके द्वारा भारत की अमूल्य सेवा हुई है । यह उनका कार्य चिरंतन स्वरूप का, देशभक्ति पूर्ण और मानवतावादी है । अम्बेडकर जैसे महान् व्यक्ति का जन्म, तथाकथित अस्पृश्य जाति में हुआ यह बात अस्पृश्य वर्ग की निराशा मिटा कर कथित स्पृश्यजनों के थोथे व्यक्तित्व एवं बड़प्पन को चुनौती देने की प्रेरणा उन्हें दिये बगैर नहीं रहेगी । अम्बेडकर के प्रति आदर रखते हुए मैं उनके स्वस्थ दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ जिससे वे अपने समाज में बड़े प्रभावी परिवर्तनकारी अभियान चला सके ।“

बाबसाहब की नियुक्ति संविधान सभा द्वारा ध्वज समिति के सदस्य के रूप में होते ही हिन्दुत्वनिष्ठ नेताओं ने उनसे अनुरोध किया था कि वे भगवा ध्वज को राष्ट्र ध्वज के रूप में प्रस्तुत करें ।

११ सितम्बर, १९४९ को ‘संडे स्टैंडर्ड’ ने छापा कि भारत के कानून मन्त्री डॉ. अम्बेडकर उन लोगों में हैं जिन्होंने भारत की राजभाषा संस्कृत बनाने का प्रस्ताव रखा है । इस विषय में पूछने पर डॉ. अम्बेडकर ने पी.टी.आई. संवाददाता से कहा, “संस्कृत में क्या हर्ज है? भारत की राजभाषा संस्कृत होगी” यह संशोधन का मूल पाठ है ।

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