दिनांक 26 दिसंबर 1972 जयपुर
किसी ने ऐसा कहा है कि Diagnosis is half the cure अर्थात रोग का सही निदान होना, रोग का आधा ठीक होना है। अतः हमारे समक्ष जो विभिन्न समस्याएं हैं। पहले उनका निदान कर लिया जाए, इसके बाद इन समस्याओं को हल करने के लिए क्या उपाय योजना हो सकती है, इसका विचार किया जा सकता है। आज हमारे सामने अनेक समस्याएं हैं। मुख्य समस्या यह है कि हमें अपने राष्ट्र का निर्माण करना है अर्थात आज अपना राष्ट्र जिस स्थिति में है, वहां से उसे अच्छी अवस्था तक हमें पहुंचाना है। हमें प्रगति करनी है। राष्ट्र-निर्माण की इस प्रक्रिया के लिए लोगों ने भिन्न-भिन्न नामों का प्रयोग किया है। कोई इसको प्रोग्रेसिव, कोई रेडिकल और कोई रिवॉल्यूशनरी कहते हैं। इसके और भी भिन्न-भिन्न नाम है, इनमें किसी भी शब्द का कोई विशेष अर्थ नहीं है। जिसको जो शब्द पसंद है, वह उसी शब्द का प्रयोग करता है, किंतु मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि हमें अपने राष्ट्र का निर्माण करना है। खंडित ही क्यों नहीं हो; आज भारत का एक हिस्सा अपने ही हाथ में है, अतः हम स्वयं अपने भाग्य-विधाता बन सकते हैं, ऐसी आज यह अपनी परिस्थिति है। अतः, अब हम विचार करें कि हमें अब किस दिशा में जाना है। यह जो सारे शब्द है प्रोग्रेसिव, रेडिकल, रिवॉल्यूशनरी इत्यादि इनके कंटेंट्स क्या है? अंतर विषय क्या है? यह प्रश्न सामने आता है, किंतु इसके पहले मन में यह विचार आता है कि क्या हमारे समक्ष किसी देश का मॉडल है कि जिस देश वासियों ने अपने राष्ट्र का निर्माण किया है? और जिससे लोग सुखी और समृद्ध हो गए हैं? यदि हमारे सामने ऐसा कोई मॉडल हो तो बहुत अच्छा हो। इस दृष्टि से हम भिन्न-भिन्न मॉडलों की खोज करें।
आज जो दुनिया के बड़े समृद्ध और अग्रसर राष्ट्र हैं, उनके उदाहरण हमारे सामने हैं। इनमें अमेरिका और रूस का नाम आता है। आजकल चीन का नाम भी इसी श्रेणी में आने लगा है। यदि हमें एक बार यह पता चल जाए कि अमुक देश की नकल करने से हमारा कल्याण होगा तो फिर हमारी उलझन या समस्या का हल निकल आता है। इन भिन्न-भिन्न देशों में जो आज चल रहा है क्या हमको उसका अनुकरण करने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से हम इसका विचार करें। क्या इनमे से कोई राष्ट्र ऐसा है जो सुख की प्राप्ति कर चुका है या कर रहा है? इसका विचार करने पर हमारे सामने कुछ विचित्र बातें आती है। इनमें सबसे धनी राष्ट्र अमेरिका है, इस कारण सबसे सुखी राष्ट्र भी वही होना चाहिए, किंतु वहाँ अन्य दिशाओं में जितनी प्रगति है, उतना ही वहाँ सुख का अभाव है, यह खटकने वाली बात है। यह दोनों परस्पर विरोधी बातें वहां है। एक ओर वहां बहुत प्रगति है। उनकी टेक्नोलॉजी बहुत बढ़ गई है। अब थोड़े दिनों में वहां सारा काम यंत्रों से ही होगा। यहां तक कि संतति निर्माण का कार्य भी मनुष्य के बिना हो सकेगा, ऐसा कुछ अनुमान शास्त्रज्ञों ने लगाया है। यहां तक वे प्रगति की ओर जा रहे हैं। वह चंद्रमा पर भी पहुंच गए हैं। इस प्रकार यद्यपि अमेरिका धनी और तकनीकी दृष्टि से उन्नत राष्ट्र है किंतु वहाँ समाज में सुख का अभाव है। कुछ विगत वर्षों के आंकड़ों के अनुसार सबसे अधिक आत्महत्या और सबसे अधिक पागलपन का प्रमाण अमेरिका में मिलता है। Neurasthenia जो स्नायु दोष के कारण होता है, तथा रक्तचाप और हृदय रोग का सबसे अधिक प्रमाण भी वहीं पर है। इस प्रकार वहां एक और तो यह प्रगति हो रही है और दूसरी और सुख के अभाव की ये बाते हैं। फिर सबसे अधिक असंतोष भी आज अमेरिका में ही दिखाई देता है। अपने यहां तो विश्वविद्यालयों में जो गड़बड़ हुई उसके कारण ही हम दुखी हैं, किंतु अमेरिका में तो इससे भी अधिक गड़बड़ हुई है। वहां तो लोगों ने स्टैंनगन इत्यादि हाथ में लेकर विद्रोह किए हैं। अमेरिका में नई आने वाली पीढ़ी यह घोषित कर रही है कि वह वर्तमान व्यवस्था से असंतुष्ट है। मेरे एक मित्र अमेरिका गए थे। वह वहां के कई विद्यार्थी नेताओं से मिले और उनसे पूछा कि आप क्या चाहते हैं? विद्यार्थी नेताओं ने कहा कि यह जो वर्तमान व्यवस्था है वह नष्ट होनी चाहिए। यह इस प्रकार की जो सोसाइटी है, वह समाप्त होनी चाहिए। तब उन्होंने दूसरा प्रश्न पूछा कि आप यह बताइए कि आप किस प्रकार की सोसाइटी चाहते हैं? तो उन विद्यार्थी नेताओं ने कहा कि हम किस प्रकार की सोसाइटी चाहते हैं, इसका कोई स्पष्ट चित्र हमारे सामने नहीं है, लेकिन यह जो वर्तमान सोसाइटी है वह नष्ट होनी चाहिए, इतना हम जानते हैं। इस प्रकार यह दोनों परस्पर विरोधी बातें हमारे सामने है कि एक और अमेरिका के लोग चंद्रमा पर आक्रमण कर रहे हैं और दूसरी ओर समाज के मन में असंतोष है और विद्रोह की भावना है। यह जो हिप्पी कल्ट है यह भी एक प्रकार से अमेरिका में कितना मानसिक असंतोष है, इसका बैरोमीटर ही है। अब हमारे यहां हिप्पी आ रहे हैं तो क्या अपने यहां के लोग यह समझते हैं कि इस सारे असंतोष का कारण भौतिक अभाव है? क्योंकि अपने देश में खाने पीने को नहीं मिलता इसलिए अपने यहां के लोग तो शायद यही समझते हैं कि सभी प्रकार के असंतोष का कारण भौतिक अभाव होता है। अत: भौतिक वस्तुओं के अभाव के कारण ही वहां पर भी यह असंतोष होगा। अपने यहां गरीबी के कारण अनेकों समस्याएं हैं, किंतु ऐसा लगता है कि अमेरिका में अमीरी के कारण बहुत सी समस्याएं हैं। अमेरिका में भी असंतोष है। उनकी भी अनेक समस्याएं हैं। यह जो हिप्पी लोग यहां आ रहे हैं, यह कोई गरीब होने के कारण यहां नहीं आ रहे हैं, बल्कि बड़े-बड़े श्रीमानों के लड़के इन हिप्पियों में आते हैं। किंतु वर्तमान व्यवस्था से उनको संतोष नहीं है। अमेरिका में हमको यह बात दिखाई देती है। यह बात सही है कि अमेरिका तकनीकी दृष्टि से बहुत उन्नत होता जा रहा है लेकिन इसके कारण पूरे पश्चिमी जगत में समस्याएं भी निर्माण हो रही है। उन्होंने तकनीकी शास्त्र पर भरोसा रखते हुए हर दिशा में प्रगति की है किंतु उन्होंने इसका विचार नहीं किया कि इसके कुल मिलाकर क्या परिणाम होंगे?
इसके कारण दो प्रकार की क्षतियाँ हो रही है, ऐसा वहां के शास्त्रज्ञों के ध्यान में आया है। इसमें एक तो यह है कि जो कुछ भी भगवान के दिए हुए साधन है उनका उपयोग कितना करना? और कैसे करना? यदि हम अपने सुख के लिए आज ही इनका सारा उपभोग कर लेंगे तो आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा, इसका विचार नहीं करते हुए उन्होंने इनका उपयोग किया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इसके कारण जो प्राकृतिक ईंधन है, वह जो खनिज ईंधन है वह 200 वर्ष से अधिक टिकने वाला नहीं है। जिस गति से अभी उसका उपभोग हो रहा है उस गति से 200 वर्ष बाद हम खनिज ईंधन पर अवलंबित नहीं रह सकते, वह समाप्त हो जाएगा। यह जो थोरियम और यूरेनियम है जिसके कारण आणविक ऊर्जा और विद्युत है इसकी भी यूनिफॉर्म सप्लाई (Uniform Supply) अनिश्चित काल तक नहीं हो सकती। इसकी भी अपनी एक मर्यादा है। आज जिस गति से इनका उपभोग हो रहा है इसके कारण आगे आने वाली पीढ़ियों को बहुत दुख का अनुभव करना पड़ेगा। इस प्रकार इनके अविवेकपूर्ण उपभोग के कारण यह प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है, यह बात वहां के शास्त्रज्ञ सोच रहे हैं।
वहां के शास्त्रज्ञों ने दूसरी बात यह भी अनुभव की है कि आज की टेक्नोलॉजी के कारण दुख का निर्माण हो रहा है। आप ने गत वर्ष पढ़ा होगा कि हर जगह प्रदूषण की समस्या आ रही है। हर वस्तु दूषित हो रही है। वायु दूषित है। जल दूषित है। अब हम भूमि को भी फ़र्टिलाइज़र से, जिसे पूरा विचार नहीं करते हुए निर्माण किए गए हैं, दूषित करने जा रहे हैं। हर जगह प्रदूषण हो रहा है। और यह प्रदूषण इतना भीषण है कि अमेरिका में सभी लोगों के सामने चाहे वह उद्योगपति हो, चाहे वह श्रमिक हो, यही एक प्रश्न है कि हम वायुमंडल को कैसे शुद्ध रखें, शुद्ध करें? इसके कारण संयुक्त राष्ट्र संघ जिसमें कि पाश्चात्य राष्ट्रों का नेतृत्व है, के तत्वावधान में गत 5-6 माह पूर्व स्टॉकहोम में एक वर्ल्ड इकोलॉजिकल कॉन्फ्रेंस हुई (United Nations Conference on Human Environment, 5-16, June 1972 in Stockholm) अर्थात वायुमंडल शास्त्रज्ञों का एक विश्व सम्मेलन हुआ। इसमें सभी शास्त्रज्ञों ने यह चिंता प्रकट की संपूर्ण वायुमंडल में और जल में मनुष्य और पशु जीवन के लिए कुछ घातक तत्वों का संचार हो रहा है। उन्होंने जो भारत के वायुमंडल संबंधी आंकड़े बताएं, उसमें यह बताया कि कानपुर, मुंबई, कोलकाता आदि के वायुमंडल में 3000 ऐसे रासायनिक पदार्थ विद्यमान है जो मानव स्वास्थ्य के लिए घातक है। इसके कारण अब वहां यह विचार चल रहा है कि टेक्नोलॉजी बदलनी चाहिए और यह प्रदूषण कम करना चाहिए, अन्यथा यह प्रदूषण मनुष्य और पशुओं के जीवन के लिए घातक सिद्ध होगा। अतः अब वहां इसका नए सिरे से विचार हो रहा है। विनर (Weiner) नामक एक अच्छे वैज्ञानिक है। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि “हम टेक्नोलॉजी के पीछे बहुत अधिक जा रहे हैं हमने कंप्यूटर इत्यादि का निर्माण किया है Technical Know-how का महत्व ही सबसे अधिक है, ऐसा हमने सोचा है। Technical Know-how का अर्थ उन्होंने यह बताया है कि वह ज्ञान जो हमें यह बताता है कि निर्धारित लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाए, लेकिन उन्होंने यह कहा कि हम सब बातें Technical Know-how पर नहीं छोड़ सकते, क्योंकि यदि हम सब बातें इसी पर छोड़ देंगे तो मानव जाति का क्या होगा, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर पश्चिम के अनुभव के आधार पर उन्होंने यह कहा कि Technical Know how का जितना महत्व है, उससे भी अधिक महत्व की बात दूसरी है और वह है Technical know-what अर्थात कौनसे उद्देश्य प्राप्त करने हैं, इसका निर्णय तो हम पहले करें। निर्धारित उद्देश्यों को कैसे प्राप्त करना यह तो बाद का विचार है, किंतु कौनसे उद्देश्य प्राप्त करने हैं? इसका निर्णय तो हम पहले करें। हम इसका निर्णय मशीनरी और टेक्नोलॉजी पर नहीं छोड़ सकते। हम कौन से उद्देश्य प्राप्त करना चाहते हैं, इसका निर्णय तो मनुष्य ने स्वयं अपने अनुभव के आधार पर करना है। जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी का विकास होगा वैसे-वैसे टेक्नोलॉजी मनुष्य पर शासन करेगी, यह स्थिति अच्छी नहीं। मनुष्य के लिए टेक्नोलॉजी है, टेक्नोलॉजी के लिए मनुष्य नहीं। इस कारण मनुष्य अपने जीवन में क्या चाहता है पहले यह तय होना चाहिए और फिर उसके अनुकूल टेक्नोलॉजी का विकास किया जाए, यह एक बात उन्होंने कही। उन्होंने दूसरी बात यह कही कि यदि हमने पहले Technical know what याने किन उद्देश्यों को प्राप्त करना है, यह तय नहीं किया और जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी का स्वभाविक तौर पर विकास होता गया, वैसे-वैसे ही हम बहते गए तो बड़ी दुरावस्था होगी। उन्होंने कहा कि यद्यपि हमें कुछ बातें तो मिलेगी किंतु हमें इसका बहुत अधिक मूल्य देना पड़ेगा। इसके लिए उन्होंने एक उदाहरण दिया कि मंकीज पो (Monkey’s paw) नामक एक बड़ी अच्छी कहानी है। जिसका मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार है। मंकीज पो एक ऐसी वस्तु है कि जब वह आपके हाथ में आ जाता है तो उससे आप जो वस्तु चाहेंगे वह आपको मिलेगी। एक बूढ़े मनुष्य के हाथ में वह बंदर का पंजा आ जाता है, वह उस को हाथ में पकड़ कर अपनी इच्छा बताता है कि मुझे आज 200 पौंड मिलने चाहिए। अब एक मनुष्य उसको 200 पौंड देने आया और उस बूढ़े से बोला कि जिस कारखाने में तुम्हारा लड़का काम करता है, उसके मैनेजर ने यह 200 पौंड तुम्हें देने के लिए मुझे भेजा है। यह सुनकर उस बूढ़े को बड़ा आनंद हुआ कि मैं 200 पौंड चाहता था, वह मुझे मिल गए। देखो बंदर के पंजे का कितना सामर्थ्य है, कि जो वस्तु मैं चाहता हूँ, वह मुझे मिल गई। लेकिन बाद में उसने पूछा कि यह 200 पौंड क्यों भेजे हैं? तो उस व्यक्ति ने बड़े दुख के साथ कहा कि आपका लड़का मशीनरी का काम करते-करते बीच में कट गया और उसकी मृत्यु हो गई। श्रमिक क्षतिपूर्ति की प्रथम किस्त के यह 200 पौंड मैनेजर ने भेजे हैं। यह सुनने पर उसे बड़ा दुख हुआ, यानी बंदर का पंजा एक ऐसी वस्तु थी कि उससे आप जो कुछ इच्छा करेंगे वह पूरी होगी किंतु उसका कितना मूल्य देना पड़ेगा यह निश्चित नहीं। वैज्ञानिक विनर ने इस प्रकार कहा कि “यदि हम मनुष्य जीवन के क्या उद्देश्य हैं? इसका विचार न करते हुए केवल तकनीकी प्रगति के पीछे पड़े रहे तो यह टेक्नोलॉजी उस बंदर के पंजे जैसी हमारी हालत कर देगी। उन्होंने यह विचार हमारे सामने रखा है। कहने का अर्थ यह है कि एक देश जो आज दुनिया का नंबर एक का देश माना जाता है और जो चंद्रमा पर पहुंच गया है ऐसा उन्नत देश अपने लोगों को सुखी नहीं कर सका यह दिखाई देता है।
अब नंबर दो का देश रूस हमारे सामने आता है। आजकल वह हमारा मित्र भी बन गया है, इसलिए वहां की परिस्थिति के बारे में हमारे यहां बहुत कुछ जानकारी है वहां भी कोई सुख समाधान है, ऐसा नहीं दिखाई देता। हम जानते हैं कि 1917 ईस्वी में रूस में एक नया प्रयोग प्रारंभ हुआ जिसे साम्यवाद, कम्युनिज्म कहा जाता है। उस समय जो साम्यवादी सिद्धांत सामने रखे गये और जो घोषणायें की गई, उनमें हर बात में वे निरंतर परिवर्तन लाते जा रहे हैं, ऐसा दिखाई देता है। इसके लिए कोई बहुत विस्तृत विवरण की आवश्यकता नहीं है। इस विषय में संक्षेप में विचार करना पर्याप्त होगा। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि कोई निजी संपत्ति नहीं होगी, किंतु अब वहां निजी संपत्ति आ गई है, और वह बढ़ती जा रही है। रूस के संविधान की धारा क्रमांक 10 में यह लिखा है कि निजी संपत्ति का अधिकार रहेगा, लेकिन इतनी संपत्ति रहेगी जितनी पारिश्रमिक के अंतर के कारण निर्माण होती है। और वह वंशानुगत भी हो सकेगी। इस प्रकार रुस में अब निजी संपत्ति आई भी है और वह बढ़ने भी लगी है। दूसरी बात उन्होंने यह कही थी कि हम सब को समान पैसा देंगे, लेकिन वहां सबको समान पैसा नहीं मिल रहा है। रूस में जो अंतिम आंकड़े हैं उसमें न्यूनतम और अधिकतम आय का अंतर 1 और 80 के अनुपात का है जबकि पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूनतम और अधिकतम आय का जो अंतिम अंक आया है वह 1 और 14 के अनुपात का है। रूस में यह असमानता ओर भी बढ़ती जा रही है। चीन जो रूस को गाली दे रहा है, उसका प्रमुख कारण यही है कि रूस ने समाजवाद के इस घोषित सिद्धांत को कि ‘हर एक को उसकी आवश्यकता के अनुसार दिया जाएगा’ छोड़ दिया और अब वहां हर एक को उसकी योग्यता और उत्पादन इत्यादि के अनुसार दिया जाता है। ना कि उसकी आवश्यकता के अनुसार। यह समाजवाद के साथ गद्दारी है। यह सबसे पहली गाली है, जो चीन ने रूस को दी है। तीसरी बात यह कही गई है कि वर्ग विहीन समाज की रचना होगी। रूस में और बाहर भी किसी भी साम्यवादी देश में वर्ग विहीन समाज की रचना नहीं हुई है। जिस प्रकार जिलास (Milovan Djilas) ने अपनी ‘द न्यू क्लास’ (The New Class) नामक पुस्तक में कहा कि “पुराने वर्ग तो समाप्त हो गए किंतु नए वर्गों का निर्माण हुआ है और यह नए वर्ग है, शासक और शासित, यह वर्ग बहुत अधिक सजीव और सक्रिय है, यह वर्ग नष्ट नहीं हुए।“
चौथी बात यह कही गई थी कि यह जो परिवार का संगठन है, इसे नष्ट करेंगे और कम्यूनों की स्थापना करेंगे। रूस में तो यह कम्यून असफल हो गए। वहां अब परिवार की संरचना आ गई है और वह पूरी तरह आई है। इस प्रकार रूस में तो सुप्रस्थापित पारिवारिक संरचना आई है।
फिर उन्होंने पांचवी बात यह कही कि हम राष्ट्रवाद इत्यादि को नहीं मानते किंतु सब लोग जानते हैं कि गत महायुद्ध के समय रूस में राष्ट्रवाद के आधार पर ही लोगों को युद्ध के लिए प्रोत्साहित किया गया और तब से अब तक न केवल रूस में अपितु सभी साम्यवादी देशों में राष्ट्रवाद बहुत प्रबल हुआ है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद की तुलना में राष्ट्रवाद अधिक प्रबल होने के कारण साम्यवादी देश परस्पर लड़ रहे हैं। इस प्रकार का दृश्य भी दुनिया ने देखा है। चीन और रूस का संघर्ष भी वास्तव में राष्ट्रीय विस्तार का ही संघर्ष है। ऐसे और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। फिर यह कहा गया कि लाभ, पूंजी और प्रतियोगिता यह तीनों विशुद्ध पूंजीवादी विशेषताएं हैं, किंतु आज लाभ की प्रेरणा और प्रतियोगिता इन दोनों का प्रवेश रूस में हुआ है। मांग एवं आपूर्ति का सिद्धांत जो कि पूंजीवादी सिद्धांत है, उसका भी प्रवेश हुआ हुआ है।
इस प्रकार रूस एक-एक बात से पीछे हटता जा रहा है। और इतना होने के बाद भी यह अनुभव नहीं आता कि रूसी जन जीवन में कोई बड़ा सुख हो या बड़ी शांति हो। एक ओर उनकी भी तकनीकी प्रगति हो रही है, वे चंद्रमा पर पहुंच गए हैं लेकिन दूसरी ओर वह अभावग्रस्त भी हैं। वह यहां तक अभावग्रस्त है कि स्वयं अपने लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त अनाज भी उत्पन्न नहीं कर सकते। उनको पूंजीवादी देशों से अनाज लाना पड़ रहा है। फिर यदि वास्तव में रूस की अवस्था देखी जाए तो उसके भिन्न-भिन्न गणतंत्रों में जो भिन्न-भिन्न गैर रूसी और अश्वेत रूसी लोग रहते हैं, उनमें आज पर्याप्त असंतोष है। जो भी रूस में जाकर आएगा उसको सामान्य अवलोकन से ही यह बात ध्यान में आ सकती है। आज कठिनाई यह है कि साम्यवादी देश ही रूस का अनुकरण नहीं कर रहे हैं। रूस की औद्योगिक व्यवस्था का जो मॉडल है, उसका अनुकरण रूस के अधीन काम करने वाले चेकोस्लोवाकिया, हंगरी आदि देश भी नहीं कर रहे हैं। बाकी सब व्यवस्था में भी वह रूस से दूर हटते जा रहे हैं। जब रूस ने इन सब साम्यवादी देशों को कहा कि जो हमारा मॉडल है, वही लेना चाहिए तो उन देशों ने कहा कि यह नहीं हो सकता, हम आपसे साम्यवाद तो अवश्य ले रहे हैं, लेकिन उसे हमें अपनी परंपराओं और संस्कृति में ढाल कर ही लेना पड़ेगा, नहीं तो हमारा काम नहीं बनेगा।
इस प्रकार हर एक देश ने अपना-अपना मॉडल खड़ा करने का प्रयत्न किया। जहां यूरोप के साम्यवादी देश भी जो सीधे रूस के प्रभाव में है, ऐसा अनुभव नहीं कर रहे कि हम रूसी मॉडल के कारण अपना उद्धार कर सकते हैं, तो अन्य देश इसके द्वारा कहां तक अपना अभीष्ट प्राप्त कर सकेंगे यह एक विचारणीय प्रश्न है। फिर हमारे सामने चीन का नया उदाहरण है, लेकिन चीन की भी जो आज जो कुछ अवस्था है उसमें असंतोष है यह तो सर्वथा स्पष्ट है। चीन में सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर करोड़ों लोग मारे गए हैं और ऐसी कितनी ही बातें हो रही है यह हम लोग देख रहे हैं। तो यह तो अखंड असंतोष है। यह कहा गया है कि ‘इंकलाब जिंदाबाद’ ‘लोंग लीव रिवॉल्यूशन’ यानी परिवर्तन अमर रहे अतः वहां स्थायित्व नहीं आ रहा है, अखंड परिवर्तन की ही बातें चल रही है ऐसा दिखाई देता है। इस प्रकार जहां भी हम देखते हैं वहां ऐसा कोई मॉडल हमारे सामने नहीं दिखता, जिसका हम अनुकरण कर सके। यदि हमें किसी न किसी का अनुकरण ही करना है या शिष्य ही बनना है तो फिर किसी ऐसे देश का या ऐसी ही विचारधारा का अनुसरण करना चाहिए या शिष्य बनना चाहिए कि जिस के कारण कल हमारा कुछ लाभ हो। कहीं ऐसा न हों कि हम दूसरे का शिष्यत्व भी ले लें या मानसिक दासता भी स्वीकार करें और जो प्राप्त होना है वह भी प्राप्त नहीं हो, ऐसी बात ना हो जाए, अन्यथा यह तो गुनाह बेलज्जत ऐसी बात हो जाएगी। अतः इस दृष्टि से जब हम विभिन्न देशों का विचार करते हैं तो कोई मॉडल हमारे सामने नहीं आता।
अब हम स्वयं अपने बारे में विचार करें तो आज तो ऐसा दिखाई देता है कि हमारी परिस्थिति बहुत ही खराब है। हम एक पिछड़े हुए राष्ट्र हैं, इसके कारण हमारे मन में हीनता का भाव निर्माण हो सकता है। मन में यह एक बात आ सकती है कि अपना जितना है, वह सब खराब है, क्योंकि धर्म, संस्कृति, परंपरा आदि जो-जो हमारी अपनी हैं, वे यदि अच्छी होती तो हमारा इतना पतन क्यों हो जाता? यानी इसका अर्थ यह है कि हमारा जो कुछ है वह सब खराब है, यह बात मन में स्पष्ट रूप से आ सकती है। अब जब हमें अपने मन में यह लगता है कि हमारी परंपरा में कुछ भी अच्छा नहीं और पराया कोई मॉडल भी हमारे सामने नहीं तब तो हमारे सामने और भी अंधकार है। इस परिस्थिति में हम आगे का मार्ग कैसे देख सकते हैं, लेकिन दुनिया में कुछ विचित्र बातें भी है। जैसे मैंने कई विरोधाभास वाले उदाहरण बताएं हैं। जैसे एक और रूस का चंद्रमा पर पहुंचना और दूसरी ओर अपने लिए अनाज भी पर्याप्त उत्पन्न न कर सकना, इसी प्रकार अमेरिका का एक ओर चन्द्रमा पर पहुंचना और दूसरी और वहां के विद्यार्थियों द्वारा विद्रोह करना, जिस प्रकार यह विरोधाभास वाली बातें हैं, उसी प्रकार कुछ विरोधाभास वाली बातें अपने यहां भी है। हमारी जिन परंपराओं को गई-गुजरी समझा जाता है, उन परंपराओं का और आज की आकांक्षाओं का यदि हमने विचार किया तो हमें उन में भी ऐसा ही विरोधाभास दिखाई देता है। अब हम यदि उदाहरण के लिए विचार करें तो जितनी भी यह वामपंथी और अन्य भान्ति-भान्ति की विचारधारा है उनके अनेक नाम है। पश्चिम की और हमारी पद्धति में एक महत्वपूर्ण अंतर है। इस कारण यदि किसी पाश्चात्य दार्शनिक के विचार में थोड़ा सा भी परिवर्तन होता है, तो वह कहता है कि मेरी पृथक दर्शन की शाखा है, स्कूल ऑफ थॉट है, जबकि हमारे यहां हर एक ने अपना-अपना विचार तो रखा, किंतु किसी ने भी यह नहीं कहा कि यह मेरा नया विचार है। हर एक ने यह कहा कि ‘इदं परंपरा प्राप्तं’ यानी यह तो परंपरा से प्राप्त है, पहले से चलता आया है, हर एक ने कहा कि वेद में इसका आधार मिलता है, किंतु पश्चिम में यदि थोड़ा सा भी अंतर हो गया तो कहते हैं कि मैं नई दर्शन शाखा दे रहा हूँ, स्कूल ऑफ थॉट दे रहा हूँ। अतः आज तरह-तरह के वाद दिखाई देते हैं। लेकिन इन सारे वादों का जो अंतिम विचार है, उसमें कुछ बातें सामान्य है। यह सामान्य बातें कौन सी है? इनमें दो तीन बातों का हम यहां विचार करेंगे। इनमें एक बात तो यह है कि जितनी भी वामपंथी विचारधारा हैं, उनका एक फैशनेबल शब्द है ‘इक्वलिटी’ यानी समानता। ऐसा माना जाता है कि यह उनकी सब बातों का आधार है। वह कहते हैं कि सब समान होने चाहिए। आप चाहे समाजवाद को ले चाहे साम्यवाद को ले, चाहे अराजकतावाद को लें, चाहे और कोई 10 नाम लीजिए वहां सब में समानता की चर्चा दिखाई देती है, किंतु यह समानता कहीं भी प्रस्थापित नहीं हो सकी है। यहां तक कि चीन के बारे में रूस ने कहा कि तुम हमको तो गाली दे रहे हो किंतु तुम्हारे यहां भी साम्यवाद के इन सिद्धांतों की प्रस्थापना कहां हुई है? तुम्हारे यहां भी समानता नहीं है। माओ और माओ के लोग बाकी लोगों से अधिक भौतिक सुविधाएं ले रहे हैं। रूस ने उनके बारे में यही बात कही है। इस प्रकार यह जो भिन्न-भिन्न साम्यवादी देश है वह एक दूसरे को जो प्रमाण पत्र देते हैं, यदि हम उसका भी विचार करें तो एक बात तो निश्चित है कि आज समानता कहीं नहीं आ सकी है। जहां समानता लाने का प्रयास किया गया वहां भी लोगों ने समानता के विरुद्ध प्रयास करते हुए और असमानता की स्थापना की। रूस और अन्य देशों के उदाहरणों से हम यह देख सकते हैं।
अब हम जरा सोचे की समानता क्यों नहीं आ सकी, साथ ही इसका भी कुछ विचार करें कि हमारे यहां समानता के बारे में क्या विचार था? यदि एक बार यह भी मान ले कि जितने हिंदू विचार आए, वे सब गलत है, क्योंकि यदि वह गलत नहीं होते तो हमारा पतन क्यों होता? तो भी हमारा विचार क्या था? हम इसका भी विचार तो करें। आधुनिक विचारक जो यह कहते हैं कि सब लोग समान है, किंतु कहीं भी समानता नहीं ला सके हैं, इसका कारण क्या है? एक कारण तो स्पष्ट है कि ऐसा दिखाई देता है कि दो ऐसी अपरिहार्य प्रवृत्तियां (Urges) है, कि जिनका परस्पर सामंजस्य पश्चिम की, किसी भी विचारधारा में नहीं है। इनमें एक प्रवृत्ति (Urge) यह है कि हर एक व्यक्ति का विकास होना चाहिए। अब हर एक व्यक्ति का विकास कैसे हो इस बारे में अपने यहां यह सोचा गया कि पहले हर व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। क्योंकि जहां प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति का दायरा समाप्त होता है, वहां संस्कृति का दायरा प्रारंभ होता है। अतः सर्वप्रथम हर एक की आहार, निद्रा, भय, मेथुन की पूर्ति होनी चाहिए। इनका समुचित समाधान होना चाहिए। उसके बाद संस्कृति का क्षेत्र प्रारंभ होता है। लेकिन हर एक व्यक्ति का विकास, हर एक को वह काम देने से होगा जो उसके लिए उचित है। यानी उसकी प्रकृति-प्रवृत्ति के लिए अनुकूल है। इस तरह का काम करने से उसको उसी में आनंद आ जाएगा और फिर काम और आराम दोनों उसके लिए एक हो जाएंगे। इसके कारण उसका काम और भी अधिक अच्छा होगा। काम का स्वरूप भी अधिक अच्छा होगा और काम की मात्रा भी अधिक होगी। यानी वह व्यक्ति अधिकतम और श्रेष्ठतम उत्पादन या सेवा दे सकेगा और यदि वह इस प्रकार की सेवा को राष्ट्रपुरुष के चरणों में समर्पित करता है, तो राष्ट्रपुरुष के लिए यह उसकी अधिकतम देन हुई, ऐसा कहा जाएगा। एक ओर वह राष्ट्रपुरुष के चरणों पर अपनी अधिकतम देन दे सकेगा और दूसरी और उसकी रुचि, प्रकृति एवं प्रवृत्ति के अनुसार उसका स्वयं का विकास होगा। एक ओर व्यक्ति का विकास और दूसरी और राष्ट्र को अधिकतम उत्पादन या सेवायें यह दोनों बातें प्राप्त हो सकेगी। इस प्रकार व्यक्ति का विकास होना चाहिए यह बात अपने यहां सोची गई।
इसके साथ ही अपने यहां यह भी सोचा गया कि व्यक्ति अपने को केवल एक इकाई ही न समझे। हमारे यहां समाज के बारे में यह धारणा है कि यह संपूर्ण समाज या राष्ट्र एक शरीर के समान है और इसमें हर व्यक्ति या व्यक्ति समूह इसके अंग-प्रत्यंग के रूप में है। हम लोग अपने संघ में इसका वर्णन बहुत बार सुनते हैं। मेरा और मेरे समाज का परस्पर संबंध वही है, जो अंग और अंगी का, याने अवयव और शरीर का संबंध है। हम राष्ट्रांगभूत हैं, प्रथक-प्रथक नहीं है। इस एकात्मता की भावना के कारण जो अपना विकास होता है, उसका जो उच्चतम और श्रेष्ठतम रूप होगा, उस फल को हम राष्ट्रपुरुष के चरणों में समर्पित करते जाएं। इस प्रकार सबके मन में राष्ट्र के विषय में अंगांगी ही भाव हो और फिर हर एक का व्यक्तिगत विकास हो, दोनों के समन्वय की यह बात अपने यहां कही गई। तात्पर्य यह कि हर व्यक्ति का पूरा विकास हो, हर व्यक्ति के मन में राष्ट्र समर्पण का भाव रहे और संपूर्ण समाज की रचना ऐसी रहेगी जिसमें हर व्यक्ति का पूरा विकास होने के लिए पूरा अवसर रहे, जहाँ हर व्यक्ति का पूर्ण विकास हो रहा है, वहां विभिन्न व्यक्तियों का जो यह समाज है, उसके संबंध में, सब में सम्यक धारणा होती रहे। ऐसा नहीं हो कि एक का विकास, दूसरे के विकास के मार्ग में बाधा के रूप में आए। यानी जिसमें एक का आगे बढ़ना, दूसरे को पीछे खदेड़ना होगा होता है, इस तरह की परिस्थिति नहीं आ जाए। अतः संपूर्ण समाज की सम्यक धारणा और हर एक व्यक्ति का पूर्ण विकास इन दोनों बातों का समन्वय होना चाहिए। इस प्रकार का विचार अपने यहां था।
अब यह जो अंगांगी भाव का अपना विचार है, पाश्चात्य लोगों की दृष्टि में यह दकियानूसी विचार है। आधुनिक या प्रगतिशील विचार नहीं। वे तो यही एक बात जानते हैं और उसी को आधुनिक विचार मानते हैं कि हर एक व्यक्ति सुखी होना चाहिए और कुछ नहीं। वहां तो व्यक्ति प्रधान है और समाज इत्यादि जो कुछ भी है, वह सब व्यक्ति के लिए है। उनके विचार में समाज का स्थान इतना ही है कि व्यक्ति अकेला ही पूर्ण सुख प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि अपना सुख प्राप्त करने के लिए भी दो-चार लोगों की आवश्यकता होती है, अतः अपने सुख के साधन के रूप में ही समाज के शेष लोग हैं। अन्यथा समाज नाम की कोई मौलिक इकाई नहीं है। मौलिक इकाई तो व्यक्ति है, व्यक्ति का सुख ही प्रधान बात है।
वह समाज को क्लब के रूप में समझते हैं। क्लब कोई मौलिक इकाई नहीं है। क्लब में जाने वाला हर एक व्यक्ति मौलिक इकाई है। क्लब में हर व्यक्ति इसलिए जाता है कि अकेला व्यक्ति अकेले के साथ ताश भी कितनी देर तक खेलेगा। यदि ताश भी खेलना हो तो दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता होती है। अपने सुख के साधन भूत दो चार लोग वहां मिल जाते हैं, इसलिए हर एक व्यक्ति क्लब में जाता है, लेकिन क्लब कोई मौलिक इकाई नहीं है। मौलिक इकाई तो व्यक्ति है। इसी प्रकार उनके विचार में समाज भी कोई मौलिक इकाई नहीं है। मौलिक इकाई एक व्यक्ति ही है। उसी के सुख के लिए सब कुछ है। उसी को पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए यह उनका एक विचार है।
पाश्चात्य लोगों का दूसरा विचार इस प्रकार है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के और इसके अनिर्बंध (अमर्यादित) होने के कारण बाकी लोगों को कष्ट होता है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर अन्य लोगों का शोषण करने की भी स्वतंत्रता आती है। इसके कारण जो थोड़े से बुद्धिमान लोग हैं, वह बुद्धिहीनो का, जो बलवान है, वह निर्बलों का और जो धनी है, वह निर्धनों का शोषण करते हैं। इस प्रकार थोड़े ही लोगों के हाथ में सारी सुख-साधन सामग्री एकत्रित हो जाएगी और बहुजन समाज शोषित और दुखी होगा। इसलिए इस शोषण करने के स्वातंत्र्य को समाप्त करना चाहिए और क्योंकि व्यक्ति स्वातंत्र्य में से ही शोषण स्वातंत्र्य आता है अतः उस व्यक्ति स्वातंत्र्य को भी समाप्त करना चाहिए। इसलिए हम किसी को इकाई नहीं मानते, इकाई एक ही है राज्य,याने सरकार। सब कुछ अर्थात व्यक्ति भी राज्य के हाथ में होना चाहिए और व्यक्ति यानी राज्य की मशीनरी के निर्जीव पुर्जो के समान केवल रहे। जिसकी अपनी कोई इच्छा नहीं, प्रवृत्ति नहीं, प्रकृति नहीं, रुचि नहीं और उसकी अपनी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं। व्यक्ति अपना जीवन कैसे व्यतीत करें, इसका निर्णय राज्य करेगा।
इसमें व्यक्ति का कोई स्थान नहीं। यह एक दूसरा अतिरेकी वाद दिखाई देता है। व्यक्ति का विकास कैसे होगा, यहां इसका कोई विचार नहीं है। हर एक व्यक्ति का काम केंद्रीय योजना अनुसार रहेगा। केंद्र ने या राज्य ने हर एक के लिए जो काम तय किया होगा वही काम हर व्यक्ति को करना पड़ेगा। इसमें हर व्यक्ति की प्रकृति, प्रवृत्ति एवं रुचि का कोई विचार नहीं होता। इस प्रकार यह दोनों वाद अतिरेकी दिखाई देते हैं।
अब हम लोकतंत्र का विचार करें। जहां लोकतंत्र है, वहां हर एक को काम मिलता है, किंतु इसकी कोई गारंटी नहीं है कि हर एक को उसकी रुचि का काम मिले। लोकतंत्र में रिक्त स्थान के अनुसार काम की व्यवस्था है। जिस समय, जहां, जिस स्थिति में, स्थान रिक्त होगा वहां उसको काम मिलेगा। चाहे वह उसकी रुचि का हो या नहीं हो, इसके कारण बहुत बार हो सकता है कि ‘ए स्क्वायर पेज इन ए राउंड होल’ (a square peg in a round hole) या कहीं का पुर्जा कहीं लगा दिया जाए, ऐसी स्थिति हो जाती है। साम्यवाद के अंतर्गत केंद्रीय योजना अनुसार काम की व्यवस्था है। हमारी प्राचीन पद्धति में रुचि अनुसार काम की व्यवस्था थी। हर एक को उसकी प्रकृति एवं रुचि के अनुसार काम मिलना चाहिए, यह अपनी रचना थी। फिर अपने यहां समाज की सम्यक धारणा का जो अर्थ था, उसका एक भाग यह भी था कि हम संपूर्ण समाज के काम का यानी संपूर्ण समाज की कुल मिलाकर क्या आवश्यकताएं हैं और हर एक व्यक्ति की रुचि क्या है? इन दोनों का विचार करेंगे। हर एक व्यक्ति को जब उसकी रुचि के अनुसार काम मिलेगा उसके कारण उसका जो अधिकतम उत्पादन होगा, उसका जो कुल योग है, उसका और राष्ट्र की जो कुल मिलाकर आवश्यकता है, उनका बराबर सामंजस्य बैठाना चाहिए। यानी कुल मिलाकर राष्ट्र की आवश्यकतायें और हर एक व्यक्ति की रुचि अनुसार काम मिलने के कारण जो श्रेष्ठतम और अधिकतम उत्पादन होगा; इन दोनों का बराबर मेल बैठाना चाहिए। धर्म की सफलता की कसौटी में एक बात यह भी रखी गई थी कि हम यह मेल कहां तक बिठा सकते हैं।
पाश्चात्य लोकतंत्र में हर एक व्यक्ति का विकास है; यह बात तो है किंतु यह जो समानता की बात आई है, वह समानता की बात सफलतापूर्वक क्यों नहीं हो सकी? तो इस संबंध में यह दिखाई देता है कि पाश्चात्य लोग व्यक्ति के मन की दो परस्पर विरोधी बातों का मेल नहीं बिठा सके। यह दो परस्पर विरोधी बातें हैं, समाज की सम्यक धारणा और व्यक्ति का विकास। पाश्चात्य लोगों ने सोचकर यह कहा कि समाज की सम्यक धारणा समानता के आधार पर होनी चाहिए। उनका यह विचार सही है या गलत है, यह एक अलग बात है, किंतु उनकी यह धारणा है कि समानता होनी चाहिए। एक अपरिहार्य प्रवृति (Urge) है, समानता की और दूसरी अपरिहार्य प्रवृति (Urge) है व्यक्ति के विकास की, किंतु उनकी मनस्थिति में दोनों का समन्वय नहीं, क्योंकि पश्चिम मौलिक रूप से भौतिकवादी है। उनके सारे विचार केवल भौतिक आधार पर चलने वाले हैं। उनके सारे जीवन मूल्य भौतिकवादी हैं याने भौतिक समृद्धि, भौतिक लाभ, भौतिक सुविधाएं जो कुछ भी भौतिक है, उसी की वहां कीमत है, बाकी कुछ नहीं। बाकी बातों को वे प्रतिक्रियावादी मानते हैं। जीवन मूल्य भौतिकवादी होने के कारण हमारे सामने एक समस्या आती है, जो इस प्रकार है। मानव समाज में समानता आ गई। अब समानता का अर्थ क्या है? इसके संबंध में किसी ने कहा कि न्यूनतम और अधिकतम आय में 1:40 का अंतर रहना चाहिए, किसी ने कहा कि 1:20 का और किसी ने कहा कि वह इस 1:10 का अंतर रहना चाहिए। अब मान लीजिए कि समाज में यह अवस्था आ जाती है कि न्यूनतम और अधिकतम आय में एक 1:10 का अनुपात है। अब यदि न्यूनतम आय ₹100 है तो अधिकतम आय ₹1000 से ऊपर नहीं हो सकती। अब मानो यह स्थिति आ गई तो हमारी एक लालसा (Urge) तो पूरी हो गई की समानता आ गई। किंतु इसमें व्यक्ति के विकास संबंधी एक समस्या का निर्माण होता है, वह यह कि व्यक्ति का विकास करने के लिए बहुत काम और परिश्रम करना पड़ता है, किंतु मैं यह सब किस लिए करूंगा? जब मेरे सारे जीवन मूल्य भौतिकवादी हैं तो मैं यह सब किस लिए करूंगा? केवल भौतिक लाभ के लिए ही तो करूंगा और आपने तो यह कहा कि चाहे मैं आईन्स्टाइन के समान बुद्धिमान हो, जाऊँ, चाहे डॉ राधा कृष्ण के समान दार्शनिक बन जाऊँ, चाहे सर विश्वेश्वरैया के समान वैज्ञानिक बन जाऊं, मैंने अपनी अधिक से अधिक कितनी भी प्रगति की तो भी मुझे ₹1000 से अधिक तो मिलने वाला नहीं और यदि मैंने कुछ भी काम नहीं किया, अपने विकास की कोई योजना नहीं बनाई तो भी ₹100 से कम तो मुझे मिलने वाला नहीं। इससे अधिकांश लोगों के मन में यही आएगा कि इतना परिश्रम करने का पागलपन कौन करें? याने अभी इतना परिश्रम करना और लेना-देना कुछ नहीं। अर्थात लाभ कुछ नहीं, इससे तो यही अच्छा है कि आराम से रहेंगे कम से कम ₹100 तो मिल ही जाएगा।
तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य के जीवन मूल्य केवल भौतिकवादी हो जैसे कि पश्चिम में है तो आत्म विकास की प्रेरणा भौतिक लाभ, भौतिक समृद्धि और भौतिक सुविधाओं में ही होती है और इस कारण आपके समानता के सिद्धांत को लाते ही आत्म विकास की प्रेरणा समाप्त हो जाती है।
हमारे देश में भी आज जो प्रतिभा पलायन माने ब्रेन ड्रेन का प्रश्न निर्मित हुआ है, उसका कारण यही है। हमने अपने वैज्ञानिकों और टेक्निशियनो के सामने सभी भौतिकवादी बातें रखी है। उनका जीवन का उद्देश्य भी भौतिकवादी ही है। अपने देश में बहुत पढ़ लिखकर परिश्रम करते हुए, एक योग्यता प्राप्त करते हैं। अब हो सकता है कि इनमें से कुछ थोड़े से लोग पैसे का विचार नहीं करते हुए, केवल आत्म- विकास की दृष्टि से, आगे अनुसंधान की सुविधा यहां नहीं होने के कारण विदेशों में चले जाते हैं, लेकिन जो योग्यता प्राप्त की है, उसके अनुसार यहां आर्थिक लाभ प्राप्त नहीं हो सकते अत:, यहां रह कर क्या करेंगे? इसलिए विदेशों में जाकर बसना चाहिए। अधिकांश लोगों का हाल ऐसा ही है। यह प्रतिभा पलायन की समस्या हमारे सामने है। अत:, जब तक जीवन मूल्य भौतिकवादी है तब तक समानता और व्यक्ति के विकास का मेल नहीं बैठ सकता। हमारी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में केवल भौतिकवाद है। हमारे जीवन मूल्य भौतिकवादी होने के कारण दो में से केवल एक ही बात होगी कि या तो समानता रहेगी और व्यक्ति के विकास की प्रेरणा समाप्त होगी अथवा व्यक्ति के विकास की प्रेरणा रहेगी और समानता समाप्त होगी, दोनों का मेल नहीं बैठता। इसी के कारण पश्चिम में समानता का केवल नारा है, लेकिन समानता पर आचरण नहीं है। वह समानता ला नहीं सकते।
अब अपना गया-बीता माना जाने वाला जो हिंदू विचार है, इसमें इसके विषय में कोई विचार था कि नहीं, तो अपने यहां इसके विषय में विचार था। एक विचार तो समाज रचना के संबंध में था और एक विचार सैद्धांतिक स्तर पर था। समाज रचना के संबंध में हमने यह सोचा था कि हर एक को आत्म-विकास की पूरी प्रेरणा मिलनी चाहिए और पूरी प्रेरणा मिले इसके लिए उसमें इंसेंटिव (Incentive) भी होना चाहिए लेकिन यह जो व्यक्ति के विकास के लिए उसमें इंसेंटिव (Incentive) है, उसे हमने केवल भौतिकवादी नहीं माना। कुछ भौतिकवादी कुछ अभौतिकवादी, इस प्रकार दो प्रकार के इंसेंटिव (Incentive) हमारे यहां माने गए। भौतिकवादी इंसेंटिव (Incentive) था ‘पैसा।‘ याने पैसे के कारण प्राप्त होने वाले सुख-उपभोग और दूसरा प्रेरक हेतु (Incentive) जो अभौतिक था वह था, सामाजिक प्रतिष्ठा। आज इस बात को बारीकी से समझने में थोड़ी कठिनाई है, क्योंकि आज Social status and Material Privileges go Together अर्थात सामाजिक प्रतिष्ठा और भौतिक सुविधायें साथ-साथ चलती है। अब इनको पृथक-पृथक करने का विचार कीजिए कि जहां सामाजिक प्रतिष्ठा है, वहाँ भौतिक सुख सुविधा नहीं है। व्यक्ति आत्म-विकास के लिए क्यों प्रयास करेगा, इसके लिए दो प्रेरक हेतुओं का अपने यहां विचार किया गया। भौतिकता प्रधान पश्चिम में केवल भौतिक सुख की दृष्टि से ही आज मनुष्य प्रेरणा प्राप्त करता है। हमारे यहां सोचा गया कि दोनों ही प्रेरक हेतु (Incentive) रहेंगे, एक भौतिक लाभ है जिसके कारण सुखोपभोग प्राप्त हो सकता है और दूसरा सामाजिक प्रतिष्ठा; जिसमें भौतिक लाभ या भौतिक सुविधाएं नहीं, सुखोपभोग नहीं; केवल प्रतिष्ठा है। फिर यह कहा गया कि भौतिक लाभ और सामाजिक प्रतिष्ठा दोनों मिलाकर हर एक को प्राप्त होने वाली जो वस्तु है, वह समान होनी चाहिए।
अब मान लीजिए कि एक Constant Circle है, स्थिर वृत्त है और इस वृत में हमने दो प्रकार के रंग भरे हैं, एक लाल और एक हरा। अब क्योंकि यह तो निश्चित है कि वृत्त तो स्थिर है और इसमें रंग दो है एक लाल है और एक हरा। अब यदि इस वृत में लाल रंग का दायरा बढ़ेगा, तो हरे रंग का छोटा होगा और यदि हरे रंग का दायरा बढ़ेगा तो लाल रंग का छोटा होगा, क्योंकि वृत में दोनों एक साथ है। इसी प्रकार से जब हमने एक स्थिर वृत में भौतिक सुखोपभोग और सामाजिक प्रतिष्ठा इन दोनों को रखा तो अब यदि भौतिक सुखोपभोग का दायरा बढ़ेगा तो सामाजिक प्रतिष्ठा का दायरा कम होगा और यदि सामाजिक प्रतिष्ठा का दायरा बढ़ेगा तो भौतिक सुखोपभोग का दायरा कम होगा,किंतु दोनों को मिलाकर जो मात्रा है वह सामान रहेगी। अर्थात-
Higher the social status, Lower the sphere of enjoyment and Higher the sphere of enjoyment, Lower the social Status and if both put together, quantity is the same.
इनमें कौन सी वस्तु किस मात्रा में लेनी है, यह स्वयं आपके ऊपर निर्भर है। बाहर से दबाव का कोई प्रश्न नहीं है। आप चाहे तो सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक ले सकते हैं फिर आपको भौतिक सुखोपभोग कम मिलेगा। आप चाहें तो भौतिक सुखोपभोग अधिक ले सकते हैं, तो सामाजिक प्रतिष्ठा कम रहेगी, किंतु दोनों को मिलाकर मात्रा समान रहेगी।
आज जो समाज का संतुलन बिगाड़ने वाली सारी समस्याएं दिखती है, इसमें आपके ध्यान में आएगा कि यह जो सामाजिक प्रतिष्ठा और भौतिक सुखोपभोग दोनों साथ साथ चल रहे हैं, इसके कारण सारी समस्याएं निर्माण होती है। तो दोनों को मिलाकर समानता होनी चाहिए, यही वास्तविक समानता है। इसमें हर एक को चयन करने की स्वतंत्रता है। सबकी चाह एक सी नहीं होती। भिन्न-भिन्न लोगों की भिन्न-भिन्न आकांक्षाएं, भिन्न-भिन्न रुझान और भिन्न-भिन्न रुचियां होती है। हर एक अपनी रूचि के अनुसार चयन कर सकता है लेकिन भौतिक और अभौतिक दोनों प्रेरक हेतु साथ लेकर हमें चयन करना है। इस प्रकार से चयन करने पर दोनों को मिलाकर समानता रहेगी और व्यक्तिगत प्रेरणा भी रहेगी।
आज जो यह सारी स्पर्धा दिख रही है वह क्यों है? लोग ऐसा सोचते हैं कि स्पर्धा के कारण प्रगति होती है, किंतु ऐसा नहीं है। प्रगति सहकारिता से होती है, स्पर्धा से नहीं होती, जब तक कि आप स्वयं अपने से ही स्पर्धा नहीं करने लग जाते। हमारे यहां स्पर्धा तो एक ही मानी गई है, स्वयं के साथ स्पर्धा, Competition with our oneself.
Plutarch ने सिकंदर का जो जीवन चरित्र लिखा है, उसमें यह कहा है कि वह अपने खुद के साथ स्पर्धा करता था। बाद में उसने लिखा है कि always trying to excel, if not others, at least himself, अर्थात सिकंदर सदा अधिक अच्छा बनने का प्रयत्न करता था, दुनिया में और तो कोई ऐसा था नहीं, जिससे आगे बढ़ने का या स्पर्धा करने का प्रयास करता अतः वह खुद की तुलना में श्रेष्ठ बनने का प्रयास करता था। अब यह जो खुद के साथ स्पर्धा है, वही वास्तविक स्पर्धा है। बाकी कोई स्वस्थ स्पर्धा नहीं हो सकती। तो यह जो प्रेरक हेतु है, इनमें हम अपनी रूचि के अनुसार चुन लें। दोनों को मिलाकर मात्रा समान होगी इतना विश्वास रखें। अब आपके ध्यान में यह आ गया होगा कि इसमें आज की सारी स्पर्धा इत्यादि की जो भावनाएं है ,वह नष्ट होती है और वास्तविक अर्थ में समानता आती है।
आज स्पर्धा क्यों है? आज हम सार्वजनिक जीवन में देखते हैं कि एक का दूसरे के साथ झगड़ा होता है। यह झगड़ा क्यों होता है? “मेरी नगर-निगम की सीट किसको दे दी? मुझको क्यों नहीं दी? प्रधानमंत्री वह क्यों है? मैं क्यों नहीं? भारत का राष्ट्रपति मैं क्यों नहीं बना?” यह सब क्यों होता है? अब मुझे प्रधानमंत्री बनने की इच्छा इसलिए होती है कि प्रधानमंत्री का पद एक सामाजिक प्रतिष्ठा भी है और इसमें भौतिक सुख सुविधाएं भी है। प्रधानमंत्री बनने के बाद सुखोपभोग का दायरा भी बड़ा बनता है। और इसमें भौतिक सुख-सुविधाएं भी है और उच्चतर सामाजिक प्रतिष्ठा भी इसमें है। सामाजिक प्रतिष्ठा और सुखोपभोग का दायरा इकट्ठा रहने के कारण आज हर एक चाहता है कि मैं प्रधानमंत्री बनूं।
लेकिन मान लीजिए कि हमारा प्रधानमंत्री भी वैसा ही रहा जैसे कि चाणक्य रहता था। चाणक्य के बारे में एक एतद्देशीय कहता है कि ‘अहो राजाधिराज मंत्रिणो विभूति:’ की राजाधिराज मंत्री का यह ऐश्वर्य देखिए क्या ऐश्वर्य बताया-
उपल शकल मेतद् भेदकं गोमयानां,
बटुपिरुपहृतानां बर्हिणां स्तूपमेतत।
शरणमपि समिद्भि: शुष्यमाणाभिराभिर्विनमित पटलान्तं,
दृश्यते जीर्ण कुड्यम॥
‘उपल शकल मेतद् भेदकं गोमयाना’ अर्थात गोबर का कंडा तोड़ने के लिए पत्थर का एक टुकड़ा पड़ा हुआ है, ब्राह्मण था ना इसलिए गोबर तोड़ने के लिए वह पत्थर का टुकड़ा हमारे प्रधानमंत्री के निवास स्थान पर दिखाई देता है ।
बटुपिरुपहृतानां बर्हिणां स्तूपमेतत। -और यह जो दर्भ-इत्यादि सब बटुक लोग इकट्ठा करके लाये हैं, इसको यहां रखा गया है। अब निवासगृह कैसा है? शरणमपि समिद्भि: शुष्यमाणाभिराभिर्विनमित पटलान्तं, – जो समिधा सुखाने के लिये छप्पर पर डाली गई है, उसका भी बोझ सहन नही होने के कारण जिसका छप्पर लटक रहा है।
ʼदृश्यते जीर्ण कुड्यम ʼ- कि जिसकी सब दीवारें जीर्ण हो गयी हैं, ऐसा वह प्रधानमंत्री का निवास गृह है। और इसके लिए वह कहता है कि ʼअहो राजाधिराज मंत्रिणो विभूति:ʼ यह हमारे राजाधिराज मंत्री का ऐश्वर्य देखिए।
अब यदि ऐसा नियम बन जाए कि हमारे प्रधानमंत्री को ऐसे ऐश्वर्य में ही रहना है तो मैं समझता हूँ कि फिर प्रधानमंत्री बनने के लिए कोई स्पर्धा नहीं होगी। यह जो सारी स्पर्धा दिखाई देती है उसका कारण है कि Material Privileges and social status go together अर्थात भौतिक सुख-सुविधाएं और सामाजिक प्रतिष्ठा यह दोनों साथ-साथ चल रहे हैं। यदि इनका पृथक्करण किया याने दोनों को विपरीत अनुपात या विरोधी परिमाण में रखा तो, सही अर्थ में समानता आ सकती है। यही सत्य समानता है। हमारे यहां जो प्राचीन व्यवस्था थी, उसका यह आधार था। आप उसे किसी भी नाम से पुकारें, उसका आधार यही था।
अब दो दृश्य हमारे सामने हैं एक दृश्य हमारी प्राचीन व्यवस्था का है और दूसरा दृश्य आज जो समानता का नाम लेकर काम कर रहे हैं, उनका है। वे असफल हो रहे हैं। इनमें साम्यवादी देश भी सम्मिलित हैं।
दोनों बातों का हम आपस में मेल बिठाकर विचार करें। जो लोग आज यह कहते हैं कि हमारी प्राचीन पद्धतियां खराब है, क्योंकि इसके कारण आज हमारा पतन हुआ है, वे लोग यह भी तो विचार करें कि प्राचीन पद्धतियां खराब थी इसलिए यह पतन आया अथवा प्राचीन पद्धतियों को हमने छोड़ दिया, इसलिए यह पतन आ गया? किसी ने महात्मा जी को पूछा कि आप वर्ण-धर्म का नाम लेते रहते हैं, क्या आप नहीं जानते कि वर्ण-धर्म के कारण समाज में छुआछूत आ गई है? और इसके कारण कितने झगड़े खड़े हो रहे हैं? महात्मा जी ने कहा कि भाई आपकी बात तो सही है। अपने समाज की स्थिति में बहुत परिवर्तन आया है, बहुत विकृतियां आई है, इनको हमें दूर करना होगा। तब उनको फिर पूछा गया कि क्या इसका अर्थ यह नहीं होता कि इस वर्ण-धर्म का नाम लेना ही छोड़ दिया जाए? तब महात्मा जी ने कहा कि ‘रोग को मारना चाहिए रोगी को नहीं’ अर्थात किसी रोगी में कोई बीमारी आ गई तो ऑपरेशन करके उसको निकाल देना चाहिए। जिस प्रकार यदि किसी को अपेंडिसाइटिस रोग हो गया तो क्या उसका एक मात्र रास्ता यह है कि रोगी को ही समाप्त करें? तो यह रास्ता नहीं है, उसका रास्ता यह है कि अपेंडिसाइटिस का ऑपरेशन करो। इसी प्रकार सामाजिक स्तर पर यह जो भेद है, छुआछूत है, इन सारी विकृतियों को ठीक या शुद्ध करते हुए या छोड़ते हुए जो इन के मूलभूत सिद्धांत है, उनको लेना चाहिए, महात्मा जी ने उस समय यह बात कही।
कहने का आशय यह है कि हमको यह विचार करना पड़ेगा कि हमारे प्राचीन सिद्धांतों के कारण पतन की अवस्था आई है या सिद्धांतों में जो विकृतियां बाद में आई उसके कारण यह अवस्था आई है। इसका विचार अलग से करना होगा लेकिन यह स्पष्ट दिखाई देता है कि पश्चिम के लोग इस प्रकार भौतिकता के आधार पर समानता नहीं ला सकते। व्यक्ति के विकास और समानता दोनों का सामंजस्य नहीं बिठा सके। हमारे यहाँ इसका मेल बिठाया गया था।
वामपंथी विचारधारा में दूसरा प्रचलित फैशनेबल शब्द है Classlessness अर्थात वर्ग विहीनता, सब लोगों ने कहा कि हम वर्ग (Classes) नहीं चाहते। कार्ल मार्क्स ने इस वर्ग (class) शब्द का प्रयोग बड़े शास्त्रीय अर्थ में किया है। उन्होंने किस अर्थ में इसका प्रयोग किया है। इसका यहां संक्षेप में ही वर्णन करना संभव है। मार्क्स के अनुसार Haves और Haves not यह दो वर्ग है। जिनके पास उत्पादन के साधन है, वह एक वर्ग है और जिनके पास नहीं है, वह दूसरा वर्ग है। इन दोनों में अखंड संघर्ष है, इत्यादि, इत्यादि कई बातें मार्क्स ने कही, किंतु यदि इस अर्थ में देखा जाए तो भारत में या दुनिया में कहीं वर्ग है, यह कहना बड़ा कठिन है। एक बार एक साम्यवादी मित्र के साथ मेरी बात हुई। मैंने उनसे कहा कि भाई आप लोग जो यह बता रहे हैं कि दो परस्पर विरोधी वर्ग है, Haves और Haves not तो यह भी तो बताइए कि इन दो वर्गों की परिभाषा करने की विभाजन रेखा क्या है? कि जिस रेखा के ऊपर जो कुछ है वह तो Haves है और जो नीचे है वह Haves not है। क्योंकि मेरे सामने एक व्यवहारिक असुविधा है कि यदि हम धनी और निर्धन को लेकर इसका विचार करें हैं तो ₹5 कमाने वाला चपरासी कहता है कि मैं तो Haves not हूँ, लेकिन यह जो बाबू मेज पर बैठकर लिखता है और जिसको ₹50 मिलते हैं वह Haves है।
बाबू कहता है कि मैं तो Haves not हूँ, मेरा मैनेजर जिस को ₹500 मिलते हैं, वह Haves है। मैनेजर कहता है कि मैं तो Haves not हूँ, मेरा यह ₹5000 कमाने वाला मालिक Haves है। मालिक कहता है कि मैं तो गरीब हूँ, केवल ₹5000 ही कमाता हूँ, यह जो टाटा बिरला है जो करोड़ों रुपए कमाते हैं यह Haves है। अर्थात हर एक अपने को Haves not और दूसरों को Haves कहता है। अतः आप मुझे यह बताइए कि इनमे विभाजन रेखा क्या है? 100, 200, 500, 1000 कितने रुपये के ऊपर Haves है और उसकी नीचे Haves not कहेंगे? इस विभाजन रेखा के बारे में कुछ तो बताइए, हमें तो यह बड़ा कठिन लगता है। रात काफी हो गई थी अतः उन्होंने कहा कि कल इसके बारे में बात करेंगे। दूसरे दिन मैं जगा ही नहीं था कि वह एकदम आये और मकान में आकर पुकारा। मैं समझ गया की पूरी तैयारी करके आए हैं। मैंने कहा कि भाई बताइए कि विभाजन रेखा क्या है? वह कहने लगे कि ठेंगड़ी जी कल तो आपने हमें बहका दिया। आपने गलत प्रश्न पूछा। देखिए यह जो Haves और Haves not वर्ग है इनकी, धनी और निर्धन इस प्रकार की कोई विभाजन रेखा नहीं है, लेकिन यह जो विभाजन रेखा है, वह मालिक मजदूर की है, उत्पादन के साधनों के जो मालिक है वह सब Haves के शिविर में है और बाकी उनमें काम करने वाले मजदूर इत्यादि Haves not के शिविर में है। यह विभाजन रेखा है। मैंने कहा कि सारे मालिक एक तरफ और सारे मजदूर एक तरफ, यह तय होने पर अब मेरे सामने कुछ प्रश्न आते हैं। एक प्रश्न यह है कि जो हमारा छोटा किसान है उसे Haves के शिविर में गिने या Haves not के शिविर में, क्योंकि यह जो छोटा किसान है उसके पास मानो आधा एकड़ जमीन है, अपने देश में ऐसे उदाहरण बहुत है। अब क्योंकि उत्पादन का साधन उसके पास है अतः, वह Haves के शिविर में जाएगा इसके साथ ही आधे एकड़ जमीन से पूरे परिवार का पालन पोषण नहीं होने के कारण वह दूसरों के यहां भी काम करता है अतः, उस समय मालिक दूसरा होता है और वह मजदूर के नाते काम करता है, तो इस छोटे किसान को Haves कहना या Haves not कहना? क्योंकि आंशिक रूप से वह मालिक है और आंशिक रूप से वह मजदूर है। मार्क्स ने तो अपने जीवन के अंत तक इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। अतः अब आप इसका उत्तर दीजिए, क्योंकि अब मार्क्स की मृत्यु को भी बहुत वर्ष बीत गए। उन्होंने कहा कि यह तो आपने एक श्रेणी की चर्चा की। मैंने कहा भाई ठीक है, अब दूसरा उदाहरण लें। हमारे यहां का एक बहुत बड़ा सेक्टर विश्वकर्मा सेक्टर है अर्थात निजी व्यवसाय का सेक्टर है, जैसे बढ़ई हैं, जैसे चमार है, लोहार है, नाई है, सुथार है अब इनको आप कौन से शिविर में डालेंगे? यह तो मालिक भी नहीं और नौकर भी नहीं है। उन्होंने कहा कि आपने तो चार- पांच लोगों का नाम ले लिया। मैंने कहा यह 4-5 नहीं, हिन्दुस्थान के कई करोड़ लोग हैं। तो उन्होंने कहा कि खैर! इसका भी बाद में विचार करेंगे। फिर मैंने कहा कि जो मजदूर है उनका विचार भी मेरे मन में आता है। मानो मैं किसी कारखाने में बाबू का काम कर रहा हूँ। वहां मैं प्रातः 10 से 5 बजे तक काम करता हूँ। अतः उस समय मैं मजदूर हूँ, लेकिन मैं जब सांय 5 बजे अपने मकान में आ जाता हूँ,
तो अपने वहां रसोई बनाने या झाड़ू लगाने के लिए जो नौकर रखा है, उसको कहता हूँ कि जरा एक कप चाय बनाओ मैं थक कर आया हूँ। तो उस समय मैं मालिक बन जाता हूँ, और वह मेरा नौकर बन जाता है अर्थात कारखाने में, मैं मजदूर हूँ और कोई दूसरा ही मेरा मालिक है और जब मैं अपने मकान पर आ जाता हूँ तो मैं मालिक बन जाता हूँ और मेरा नौकर मजदूर बन जाता है। अब मेरी गिनती कौन से शिविर में होगी? आप अपनी परिभाषा के अनुसार प्रातः 10 बजे से सायं 5 बजे तक मुझे Haves not के शिविर में रखेंगे और सायं 5 बजे से दूसरे दिन प्रातः 10 बजे तक Haves के शिविर में और यदि दोनों शिविरों में लड़ाई प्रारंभ हो जाए तो मैं किधर रहूँगा? यानी प्रातः 10 बजे से सायं 5 बजे तक तो मैं इधर से तलवार इत्यादि लेकर लड़ाई करूं और सायं 5 बजे से दूसरे दिन प्रातः 10 तक उधर से बंदूक आदि लेकर लड़ाई लड़ें। तो ऐसी स्थिति में मेरी भूमिका क्या रहेगी? तब उन्होंने कहा कि आपने तो अपवाद वाली स्थिति बताई है। मैंने कहा कि अपवाद नहीं, तो बहुतों की इस तरह की परिस्थितियां चल रही है। संक्षेप में मेरे कहने का आशय यह है कि शास्त्रीय अर्थ में वर्ग नाम की कोई वस्तु नहीं है। यह एक गप्पोड़ बाजी है। यह बात तो ठीक है कि तरह-तरह के हित या स्वार्थ हैं और उनमें परस्पर विरोध भी हो सकता है, लेकिन वर्ग नाम की कोई वस्तु नहीं है। यदि हम ऐसा मान लें कि वर्ग शब्द का प्रयोग केवल इसी के लिए किया गया है कि भाई पृथक-पृथक डिविजन है। यदि अब समाज में डिविजन है, तो हमारे यहां भी डिवीजन था, श्रम का विभाजन था। जहां-जहां उन्नत समाज होगा वहां श्रम का विभाजन भी होगा। एक ही मनुष्य सब काम नहीं कर सकता अतः कुछ तो श्रम का विभाजन होगा। इस दृष्टि से देखा जाए तो अपने यहां भी डिविजन है। अब हम इसका विचार करें कि साम्यवादी लोग कहीं वर्ग विहिनता ला सके हैं क्या? तो स्पष्ट है कि वह नहीं ला सके। साम्यवादी देशों में भी शासक और शासित वर्ग है।
खृश्चेव (Nikita Khrushchev) का एक लेख आया था जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरे सामने यह समस्या है कि बचपन में भी लोगों के दिमाग में वर्ग चेतना आती है, इसको कैसे दूर किया जाए? उन्होंने लिखा कि रूस के विद्यालयों और महाविद्यालयों में जो मध्यान्तर अवकाश होता है, उस समय पेड़ के नीचे या और कहीं बाहर बाग इत्यादि में आपस में समूह बनाकर लड़के बैठ जाते हैं। प्रशासकों और तकनीशियनो के लड़के अलग समूह बनाते हैं और सामान्य मजदूरों और किसानों के लड़के अलग समूह बनाते हैं। बचपन से ही यह जो वर्ग चेतना आती है इसको कैसे दूर किया जाए, यह बात खृश्चेव ने कही। यानी रूस में भी वर्ग है और वर्ग चेतना है, इसमें कोई संदेह नहीं, उन्होंने भी इसे स्वीकार किया है। इस प्रकार वहां वर्ग विहीनता नहीं आयी, यानी विभेद रहित समाज, डिवीजन लेस सोसाइटी भी नहीं हो सका।
किंतु हमारे यहां एक विशेष अर्थ में वर्ग विहिनता थी। यहां मैं वर्ग का शास्त्रीय अर्थ छोड़ देता हूँ। साधारण अर्थ में लोग जिसको वर्ग माने क्लास कहते हैं, उस अर्थ में कुछ वर्ग विहीनता अपने यहां थी। अपने यहां हर एक को वर्ग विहीनता के लिए अधिकारी नहीं माना गया। सब को यह अधिकार नहीं दिया गया कि तुम वर्ग विहीन बनो, लेकिन जो सभी दृष्टि से प्रौढ़ बन जाते हैं, यानी जिन की आंतरिक प्रगति होती है, उनके लिए हमारे यहां वर्ग विहीनता रखी गई और उन में कितनी वर्ग विहिनता थी इसका तो उदाहरण दुनिया में और कहीं नहीं मिलेगा। ऐसे जो अधिकारी पुरुष हैं, उनको कहा गया कि तुम्हारा कोई वर्ग नहीं, तुम केवल श्रेष्ठ मानव के नाते रहो और तुम्हारी जो सारी पुरानी वर्ग चेतना है उसको छोड़ दो। यहां मैं वर्ग का उपयोग सामान्य अर्थ में कर रहा हूँ। पुराना सब छोड़ दो, सब भूल जाओ, अपनी जाति का नाम भूल जाओ, अपने वर्ण का नाम भूल जाओ, अपने कुल का नाम भूल जाओ, अपना नाम भूल जाओ, माता पिता का नाम भूल जाओ, तुम सन्यासी हो। वह सन्यासी ‘स्वदेशो भुवनत्रयं’ यानी वह केवल विश्व नागरिक ही नहीं अपितु त्रैलोक्य का नागरिक बन जाता है। किसी सन्यासी के पूर्व आश्रम का आपको पता नहीं चलेगा। उसका कोई कुल नहीं है, उसकी कोई माँ नहीं है, उसका कोई पिता नहीं है, ऐसे जो विश्व नागरिक थे, उनका वर्ग हमारे यहां था। यानी वर्ग विहीनता का एक मॉडल हमारे यहां था। हर एक मनुष्य को उस श्रेणी में नहीं लाया गया, उसका अधिकार भी देखा जाता था कि वास्तव में उसकी चेतना उतनी बड़ी है क्या? और उसकी आंतरिक जागृति का विकास उतना हुआ है क्या? तभी उसको सन्यास दिया जाता था, लेकिन एक बार आप सन्यासी बन गए कि फिर किसी को यह पता नहीं चलता था कि आप पहले ब्राह्मण थे या अनुसूचित जाति के।
हम को संसद में आने के कारण ही स्वामी ब्रह्मानंद जी के बारे में पता चला कि वह अनुसूचित जाति के थे, किंतु किसी को किसी सन्यासी की जाति के बारे में पता नहीं रहता। वह पूर्व आश्रम का नाम भी भूल जाता है। तो वह विश्व नागरिक बन जाते हैं, केवल भारत के ही नहीं, सारे विश्व के नागरिक बन जाते हैं। एक विशेष शर्त के साथ, कुछ परहेज रखते हुए वर्ग विहीनता का यह प्रयोग हमारे यहां था और बाकी जगह कहीं भी वर्ग विहीनता नहीं हो सकी। यह व्यवस्था अपने यहां अधिकार भेद के आधार पर है, यह मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ। भेद शब्द का उपयोग होते ही लोगों को बड़ा अखरता है, किंतु हम सस्ते शब्दों के पीछे नहीं हैं। जैसे ही किसी का अधिकार बन जाता है और जब वह सन्यास आश्रम में जाता है वह एकदम विश्व नागरिक बन जाता है, इससे कम नहीं।
अब हम तीसरी बात का विचार करें। चाहे साम्यवाद हो, जिसके प्रणेता कार्ल मार्क्स थे, चाहे अराजकतावाद हो जिसके प्रणेता बकुनीन(Mikhail Bakunin) थे, इनके अनुसार समाज की जो अंतिम अवस्था बताई गई है, वह बताई है, Statelessness अर्थात राज्य विहीनता। साम्यवाद और अराजकतावाद की उच्चतम अवस्था में राज्य विहीन समाज रचना चाहिए। अब ज़रा हम देखें कि जितने यह तथाकथित प्रगतिशील लोग हैं, जिन्होंने अपने साम्यवादी राज्य बनाए हैं उनमें से कितने राज्य विहीनता की ओर बढ़ रहे हैं? विचार करने पर ऐसा दिखाई देता है कि शासन अधिक सुदृढ़, अधिक तानाशाही वाला कैसे बनेगा, इस और ही उन लोगों की प्रवृत्ति है। अब कोई उनकी ही ऐसी प्रवृत्ति है इस प्रकार का दोष में उनको नहीं दूंगा, क्योंकि यदि कल मेरे भी हाथ में शासन आ जाएगा तो मेरी भी यही प्रवृत्ति बनेगी। आज तो क्योंकि मेरे हाथ में सत्ता नहीं है, इसलिए मैं धर्म का प्रवचन कर सकता हूँ। जिस प्रकार जो जंगल में है, वह तो ब्रह्मचारी ही रहेगा क्योंकि ब्रह्मचारी रहने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है, किंतु जब स्खलन का अवसर प्राप्त होता है तब किसका स्खलन नहीं होता यह देखना पड़ेगा। इसी प्रकार आज तो हम सब श्रेष्ठ पुरुष हैं, क्योंकि हाथ में सत्ता नहीं है। इसके कारण जो सत्ताजन्य दोष है, वे दोष तो हमारे पास, हम चाहे तो भी नहीं आ सकते, किंतु सत्ता की अपनी विशेषता है। पहली विशेषता तो यह है
कि व्यक्ति अपनी सत्ता अखंड रखें। यानी एक बार जिसके हाथ में सत्ता आ जाती है उसके मन में यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि यह सत्ता मेरे हाथ में अखंड कायम रहे। अब कोई कहेगा कि इसमें कोई अपवाद है कि नहीं? तो थोड़े बहुत अपवाद है। यूनानी दार्शनिक प्लेटो (Plato) ने एक आदर्श रखा था कि जो दार्शनिक है, उसी को राजा बनना चाहिए और जो राजा है, उसी को ही दार्शनिक होना चाहिए, लेकिन विदेशों में ऐसे थोड़े से ही उदाहरण है, जैसे रोमन सम्राट मार्कोस ऑरिलियस (Marcus Aurelius) एक बड़ा प्रसिद्ध उदाहरण है। एक महान साम्राज्य उनकी अधीनता में था, किंतु वे एकदम अनासक्त थे। अपने यहां राजा जनक आदि ऐसे उदाहरण हुए हैं जो राजा होते हुए भी ऋषि थे, इसलिए उनको राजऋषि कहा गया। अब ऐसे ठोस उदाहरण तो थोड़े ही है। लेकिन आमतौर पर देखा जाए तो ऐसा दिखाई देता है कि जो साधु-संत या महात्मा होते हैं, वे अनासक्त होते हैं, वह शासक नहीं बनते और जो शासक बनते हैं वह साधु-संत या महात्मा नहीं रहते, ऐसा प्राय दिखाई देता है। इसके कारण एक बार सत्ता हाथ में आने के बाद अखंड सत्ता अपने हाथ में कैसे रहेगी, यह एक विचार हर एक के मन में आता है और इसके कारण एक बार शासन के जो कर्तव्य होंगे उनका पालन कैसे हो, इससे भी अधिक प्रबल विचार ‘मेरे हाथ में जो सत्ता है वह अखंड कैसे होगी’ इसी बात का रहता है। ऐसा दिखाई देता है। यह एक सामान्य प्रवृत्ति है। हम साम्यवादी देशों को ही दोष नहीं देना चाहते। यह तो सर्वसाधारण प्रवृत्ति है।
सत्ता की दूसरी विशेषता यह है कि मेरे हाथ में जो सत्ता है, उसका दायरा विस्तृत हो अर्थात मेरे शासन के अंतर्गत और मेरे अधिकार में सभी बातें आनी चाहिए। इस प्रकार का विचार हर एक के मन में आता है।
इसलिये एसी व्यवस्था आवश्यक है कि जिनके हाथ में सत्ता होगी वे अपनी अखंड सत्ता नहीं रख सकें और वे अपने हाथ में आई हुई सत्ता का दायरा अधिक अनियंत्रित और अधिक अनिर्बंध नहीं बढ़ा सकें, इसकी व्यवस्था भी आवश्यक है। किसी भी पश्चिमी तंत्र में यह व्यवस्था नहीं है। लोकतंत्र में भी इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं, जो बिल्कुल गारंटी से सफल हो सकेगी। ऐसी कोई व्यवस्था साम्यवादी देशों के पास भी नहीं है। यहां तक कि अनयत्र विदेशों में भी कहीं नहीं है। अब यह जो कहावत है कि Power Corrupts and absolute power corrupts absolutely अर्थात सत्ता भ्रष्ट करती है और संपूर्ण सत्ता, संपूर्णतया भ्रष्ट करती है। अब इस दृष्टि से कोई चेक एंड बैलेंस प्रगतिवादी लोगों के पास नहीं है और फिर साम्यवादियों ने तो कहा है कि हमारे यहां तो अधिनायकवाद है, डिक्टेटरशिप है। अधिनायकवाद का अर्थ होता है कि सब कुछ राज्य के लिए और राज्य के अंतर्गत, राज्य के बाहर कुछ नहीं। अब यह स्पष्ट ही दिखता है कि हाथ में अधिनायकतंत्र आने के बाद कोई यह सोचे कि ‘The State will wither away’ अर्थात यह राज्य शासन स्वयं नष्ट हो जाएगा, तो यह नष्ट होने वाला नहीं है। वह तो अपनी शक्ति और अधिक सुदृढ़ बनाना चाहेंगे, अपनी शक्ति का दायरा बढ़ाना चाहेंगे और अपनी शक्ति को स्थाई करना चाहेंगे। अतः यह स्पष्ट है कि साम्यवादी शासन में कोई चेक एंड बैलेंस की व्यवस्था संभव नहीं है और न ही ‘राज्य विहीनता’ ही संभव है। लेकिन उन्होंने आदर्श रखा है, राज्य विहीन समाज रचना का।
अपने यहां शासन को कितना महत्व देना चाहिए इसके बारे में सोचा गया है, किंतु आज तो अपने देश में भी शासन का बहुत अधिक महत्व माना जाता है, क्योंकि हम बहुत वर्षों तक स्वराज्य के अनुभव से वंचित रहे और अब नया-नया स्वराज्य आने के कारण वह कुछ भी तो बहुत आकर्षक वस्तु है, ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है। साथ ही अपने यहां नया-नया लोकतंत्र भी आया है और इस लोकतंत्र में हर एक को लगता है कि मैं शासन को बना सकता हूँ और बिगाड़ सकता हूँ। इसके कारण कुछ नई शक्ति अपने हाथ में आई, यह भी एक अनुभव हो सकता है। जिन देशों में स्वराज्य सदा चलता आया है, उन लोगों के लिए तो स्वराज्य एक प्रकृति-गत बात है अतः वहां कोई असुविधा नहीं, किंतु ऐसे देश में जहां स्वराज्य बहुत वर्षों तक नहीं रहा, नया-नया आया है, वहां लोगों को राज्य और शासन के बारे में बहुत कुछ आकर्षण होना एक स्वाभाविक बात है, इसके कारण शासन संस्था का अतिरेकी महत्व लोगों के मन में निर्माण हो सकता है।
हमारे कुछ मित्र हैं वे कहते हैं कि भाई सब कुछ सरकार के द्वारा होगा यानी राष्ट्र निर्माण का जो कार्य है, वह भी सरकार के द्वारा होगा। हमारे कुछ मित्रों ने संघ के बारे में भी कहा है कि आप जो यह संघ इत्यादि चला रहे हैं, यह सब व्यर्थ है। 1947 के पहले तक यह ठीक था, आज इसका क्या महत्व है। अब तो स्वराज्य आ गया है और लोकतंत्र भी आ गया है। अतः अब तो सब कुछ राज्य के द्वारा ही होगा। अब जो यह दक्ष-आरम इत्यादि है, इसकी क्या आवश्यकता है? इसको सरकार पर छोड़ दें। मैंने कहा कि क्या आप ने, इसका परिणाम क्या होगा इसके बारे में सोचा है? यदि हम हर एक वस्तु या काम सरकार को सौंप देते हैं; तो फिर हर बात में सरकार का अधिकार भी मान्य करना होगा। और यदि राष्ट्र निर्माण का कार्य भी सरकार के माध्यम से ही होने वाला है, तो सरकार तानाशाह बनेगी। क्या हम इस अवस्था को पसंद करते हैं? फिर मैंने कहा कि इसमें, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है कि राष्ट्र को जीवित रहना है या मरना है? तब उन्होंने कहा कि आप यह कौन सा सैद्धांतिक प्रश्न उपस्थित कर रहे हैं? इस में जीवित रहने या मरने का प्रश्न कहां आता है? मैंने कहा कि जरा दूर दृष्टि से विचार करेंगे तो यह प्रश्न आता ही है। इतिहास की प्रक्रिया हमें इस बारे में कुछ बताती है कि राज्य और राष्ट्र के परस्पर क्या संबंध रहे और उसका अंत में क्या परिणाम रहा। यदि हम आज हिन्दुस्थान के बाहर की दुनिया का इतिहास देखें तो ऐसा दिखाई देगा कि कई राष्ट्रों का निर्माण हुआ और वह चरम सीमा तक विकसित हुए। आप जानते हैं कि किसी भी कालखंड में भौतिक प्रगति की जो चरम सीमा होगी उसका संकेत करने के लिए सभ्यता शब्द का उपयोग किया जाता है। और इसके कारण किसी भी एक कालखंड में भौतिक प्रगति या संसाधनों की चरम सीमा जिस राष्ट्र ने प्राप्त की होगी, उस राष्ट्र का नाम उस कालखंड में विश्व सभ्यता को प्राप्त हुआ। ऐसा भिन्न-भिन्न काल खंडों में हुआ है। यानी भौतिक प्रगति की दृष्टि से जिन्होंने दुनिया का नेतृत्व किया ऐसे कई राष्ट्र निर्माण हुए और वे नष्ट भी हुए। वह थाईलिया कहां है? बेबीलोनिया कहां है? असीरिया कहां है, फारस कहां है? जिन्होंने एक समय इतनी प्रगति की थी कि उस कालखंड में विश्व सभ्यता को उनका नाम दिया गया था। अपने-अपने कालखंड में वह संसार का नेतृत्व कर रहे थे। वह सुकरात का यूनान कहां है? आज का जो यूनान है, वह सुकरात का उत्तराधिकारी नहीं। वह जुलियस सीजर का रोम कहां है ?आज का इटली जुलियस सीजर के रोम का उत्तराधिकारी नहीं है। फराओ राजाओं का मिश्र कहां है? आज का इजिप्ट फराओ राजाओं के मिश्र का उत्तराधिकारी नहीं है। मिस्र, रोम, यूनान, फारस, बेबीलोनिया, असीरिया यह सारे राष्ट्र एक बार इतने प्रगत हुए और फिर नष्ट हो गए इन राष्ट्रों के नष्ट होने की प्रक्रिया क्या रही इसका विचार करने पर इन सब के इतिहास में एक बात समान दिखाई देती है कि उनकी विकसित अवस्था, भौतिक दृष्टि से अत्यंत उन्नत थी। ऐसी उन्नत अवस्था में उनकी समाज रचना में यह गड़बड़ आ गई कि उनकी समाज रचना में शासन संस्था का महत्व बहुत बढ़ गया और समाज का जीवन शासन-अभिमुख, शासन अवलंबित एवं शासन केंद्रित हो गया। संपूर्ण समाज जीवन का प्रवाह शासन के इर्द-गिर्द बह रहा है, ऐसी परिस्थिति इन सब में निर्माण हुई। जिस प्रकार किसी पेड़ के सहारे कोई बेल ऊपर चढ़ती है उसी प्रकार शासन के सहारे समाज अपना जीवन चला रहा है, ऐसी परिस्थिति निर्माण हुई। ऐसी परिस्थिति में चाहे आंतरिक विघटन के फलस्वरूप हो या बाह्य आक्रमण के फलस्वरूप हो या अन्य किसी भी कारण से क्यों न हो, जैसे ही वह शासन संस्था टूट जाती है, वैसे ही उसके सहारे चलने वाला समाज जीवन नष्ट हो जाता है। यह सब देशों का इतिहास है। जिस प्रकार पेड़ के सहारे कोई बेल ऊपर चढ़ गई लेकिन यदि कोई पेड़ से टकराता है और पेड़ नीचे गिर जाता है, तो उसके सहारे चढ़ी हुई बेल भी नीचे गिर जाती है, उसी प्रकार यदि समाज जीवन शासन-अभिमुख, शासनावलंबी और शासन-केंद्रित रहा तो, जब किसी भी कारण से शासन टूट जाता है तो वह राष्ट्र भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रक्रिया में बेबिलोनिया, असीरिया, रोम, यूनान, मिश्र, फारस यह सारे नष्ट हुए।
इतिहासविदों ने कहा है कि सबके लिए यही प्रक्रिया है। किंतु इस हिन्दुस्थान का राष्ट्र जीवन बड़ा विचित्र रहा है, क्योंकि वह शासनावलंबी और शासन केंद्रित नहीं रहा। यहां स्वायत्त अर्थात स्वयं शासित समाज रचना रही।
‘कोऊ नृप होऊ, हमें का हानि’ इसको यहाँ अच्छे अर्थ में भी बताया जा सकता था। हम पर कोई भी राज्य करें, दिल्ली में कोई भी राज्य करें, किंतु हमारा समाज जीवन ज्यों का त्यों चल रहा था। सब व्यक्ति और व्यक्ति समूह अपने धर्म का पालन करते थे। यानी हर एक व्यक्ति और हर एक व्यक्ति समूह के लिए जो नियम या कर्तव्य थे उनका पालन बराबर अक्षुण चलता था। यहां तक कि परकीयों ने यहां आक्रमण किए और यहाँ अपना शासन चलाया तो भी उनके शासन में रहते हुए भी हमारे व्यक्ति धर्म और व्यक्ति समूह के धर्म में कोई व्यवधान नहीं आया। यहां स्वायत्त एवं स्वयं शासित समाज जीवन चलता रहा और यहां जब भी कहीं हिंदुओं का ही शासन रहा तो वहां उस कालखंड में समाज या राष्ट्र शासन केंद्रित नहीं रहा अपितु शासन समाज केंद्रित रहा। हिन्दुस्थान के बाहर तो यह माना गया है कि शासन साध्य है और समाज साधन है किंतु हिन्दुस्थान में सदा यह माना गया है कि समाज तो साध्य है और शासन उसके अनंत साधनों में से एक साधन है। इससे अधिक नहीं। इस प्रकार यह समाज, शासनाभिमुख, शासनावलंबी और शासन-केंद्रित नहीं रहते हुए, शासन समाज-अभिमुख, समाज-अवलंबी और समाज-केंद्रित रहा, इसके कारण शासन आए और गए किंतु समाज या राष्ट्र के जीवन पर उसके कारण कोई आघात नहीं हुआ।
Brook नामक एक कविता में ब्रुक याने निर्झर में कवि (Tennyson) कहता है कि व्यक्ति आते हैं और जाते हैं किंतु मैं चिरंतन काल तक चलता रहता हूँ। इसी प्रकार शासन आते जाते रहेंगे, किंतु हिंदू राष्ट्र चिरंतन काल तक चलता रहेगा। यह समाज सनातन काल से चलता आया है और चिरंतन काल तक चलने वाला है। यह हमारी रचना है। राष्ट्र और राज्य या समाज और राज्य के क्या संबंध है? यह केवल मतदान का प्रश्न नहीं है, तो प्रश्न यह है कि क्या राष्ट्र ने चिरंतन रहना है या ऐसे ही बेबीलोनिया, यूनान, रोम, मिश्र आदि की सूची में सम्मिलित होना है? इसके बारे में भी इतिहास में यही लिखा जाए कि यहाँ कभी हिंदू राष्ट्र था। Once upon a time there was a Hindu Nation, यह हिंदू राष्ट्र सनातन और चिरंतन है, यानी पहले भी था आज भी है और सदा रहेगा यदि हम ऐसा कह सके कि हम इस अवस्था को चाहते हैं, तो अपने राष्ट्र और समाज जीवन को शासन निरपेक्ष और स्वायत्त एवं स्वयंशासित होने की आवश्यकता है। उसके अनंत साधनों में से एक साधन के नाते शासन रहे, इससे अधिक नहीं, अन्यथा राष्ट्र चिरंतन नहीं हो सकता और वह भी Once upon a time में सम्मिलित हो जाएगा। हमें इसका विचार करना होगा।
फिर वहाँ राज्य विहीनता का आदर्श तो रखा गया है, किंतु वहां सत्ता के जो अंग भूत दोष है, उनके बारे में कोई चेक एंड बैलेंस का पूरा प्रभावी विचार नहीं हो सका है। राज्य सत्ता पर अखंड अधिकार की भूख तथा तानाशाही एकाधिकार की प्रवृत्ति इन दोनों का हमारे यहां पुराने लोगों ने, चाहे उनको प्रगतिशील भले ही न कहा जाए विचार किया और बहुत से चेक एंड बैलेंस रखें। एक तो हमारे यहां शासन संस्था को कभी सर्वोच्च नहीं माना गया। हमारे यहां ऐसा नहीं हुआ कि समाज का नेतृत्व शासन ने किया हो। फिर शासन का नेतृत्व करने वाला वर्ग भी था। वह वर्ग कौन सा था, तो जिसका अपना कोई वर्ग नहीं, जिनका अपना कोई समूह या दल नहीं।
अयं निज: परोवेति, गणना लघुचेतसाम्।
उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुंबकम्।।
यह मेरा है, यह पराया है यह भग्न भाव जिनके मन में नहीं है। जो आध्यात्मिक दृष्टि से कुछ उच्च पद प्राप्त कर चुके हैं। जो संपूर्ण समाज और मानवता के हित का विचार कर सकते हैं। सभी बातों का सम्यक और संतुलित विचार कर सकने योग्य जिनकी आत्म प्रगति है। जो भौतिक बातों को तुच्छ समझते हैं और जो भौतिक बातों की प्राप्ति असंभव है, इस दृष्टि से नहीं तो भौतिक वस्तु की प्राप्ति को तुच्छ समझकर, इस और पीठ दिखाकर जंगलों या गिरी पर्वतों में वास करते हैं। ऐसे जो लंगोटी लगाने वाले लोग हैं, जिनका न कोई समुह है, जिनके पास अर्थ सत्ता नही, जिनके पास शासन सत्ता नही, ऐसे लोग समाज के नेता थे, नैतिक नेता थे।
समाज के विधान बनाने का काम राजा के हाथ में नहीं था, वह लंगोटी वालों के हाथ में था। उन्होंने समाज का विधान बनाया। विधान तो परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर बदलता रहता है अतः उन्होंने समय-समय पर विधान बनाएं और विधान में सबके लिए उनका अपना-अपना कर्तव्य क्या है, यह बताते थे।
यहां तक कि वह शासन संस्था के लिए भी उनका कर्तव्य बताते थे, जो राजधर्म कहलाता था। माने राजा क्या करेगा? यह भी लंगोटी लगाने वाला बताता था। जिसके हाथ में शासन नहीं, जो पंचायत परिषद का अध्यक्ष भी नहीं, वह सम्राट को बताता था कि तुम्हारा क्या कर्तव्य है। यह नियंत्रण एवं संतुलन माने चेक एंड बैलेंस हमारे यहां था। यानी समाज की नैतिक सत्ता एक ओर, शासन सत्ता एक ओर, अर्थ सत्ता एक ओर, संख्या बल एक ओर, इस प्रकार सत्ता का विभाजन किया गया और इन में नैतिक सत्ता को सर्वोच्च माना गया। कितना सर्वोच्च माना था, तो आज इसकी कल्पना करना भी कुछ कठिन है। मैं जब महाविद्यालय में पढ़ता था तो एक उदाहरण आया था, कि रामचंद्र जी का राज्याभिषेक होने जा रहा है। उस समय वशिष्ठ नामक लंगोटी वाला उनको बताता है कि देखो तुम्हारा राज्य तुम्हारे हाथ में आएगा, किंतु जरा संभल कर काम करना। वह कहते हैं ‘त्वं बाल एवासि नवं च राज्यम्। ‘ संस्कृत में बाल शब्द के दो अर्थ होते हैं छोटा और मूर्ख। तो वह लंगोटी वाला उस होने वाले राजा को बताता है कि तू बाल है, याने मूर्ख भी है और बच्चा भी है। और यह प्रशासन का शास्त्र तुम्हारे लिए नया है अतः, जरा संभल कर काम करो।
अब मन में यह प्रश्न उठता है कि क्या आज कोई होने वाले राजा को ऐसा कहने का साहस कर सकता है कि,’त्वं बाल एवासि नवं च राज्यं’?
सत्ता का यह विभाजन कितना प्रभावी था इसका एक और उदाहरण है। जब कोई भी राजा अपने पराक्रम से, उस समय जितना भी ज्ञात जगत होगा उसको विजय कर लेता था और फिर जब जगत का सम्राट या चक्रवर्ती के नाते उसका अभिषेक करने का अवसर आता था, उस समय यह विभाजन क्या है इसका अनुभव आता था। चक्रवर्तीत्व का अभिषेक पूरा होने के पश्चात एक अंतिम विधि या सेरेमनी होती थी, वह इस प्रकार होती थी। सब लोग याने जनता का दरबार बैठा है और होने वाला चक्रवर्ती जो लगभग हो ही चुका है, अपने साम्राज्य सिंहासन पर बैठा है और उसके पास में हाथ में पलाश का दंड लिए लंगोटी वाला खड़ा है। अब यह जो चक्रवर्ती होने वाला है वह सबके सामने तीन बार कहता है कि “अदण्ड्योऽस्मि”, “अदण्ड्योऽस्मि, “अदण्ड्योऽस्मि “, अर्थात मैं अद्ंड्य हूँ। इसके बाद वह लंगोटी वाला तीन बार पलास का दंड उसकी पीठ में मार कर कहता है कि धर्मदंड्योऽसि, धर्मदंड्योऽसि,धर्मदंड्योऽसि, अर्थात तुम अद्ंड्य नहीं हो, धर्म तुम्हें दंड दे सकता है। इसके बाद ही उसके चक्रवर्तीत्व का अभिषेक पूरा हुआ ऐसा माना जाता था।
इस प्रकार अपने यहां सत्ता के विभाजन और चेक एंड बैलेंस का विधान था। इस चेक एंड बैलेंस के विधान के कारण राजा को अपने यहां केवल प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी माना गया था, इससे अधिक नहीं। उस समय के राजा की स्थिति आज की जैसी नहीं थी। प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी, वर्णाश्रम धर्म प्रतिपालक राजा, प्रजा रंजनात राजा, इससे अधिक उसका कोई महत्व या भूमिका नहीं थी।
राजा के लिए कहा गया कि ‘षष्ठांश भोगी भृत्य:’ , यानी जो आय का छठा भाग केवल वेतन के रूप में ग्रहण करता है, इस प्रकार का भृत्य, याने वेतन भोगी राज्य कर्मचारी। इससे हमारे राष्ट्र और समाज के जीवन में शासन संस्था की क्या प्रतिष्ठा थी, इसका पता चलता है। अतः शासन का महत्व हिंदू समाज के लिए स्वभाविक नहीं है, जो आज लोग यहां नया-नया स्वराज्य होने के कारण गलती से देते हैं। आज अपने यहां शासन के बारे में यह जो अति आसक्ति है, इसके बारे में एक व्यक्ति ने यह उदाहरण दिया कि जिनका स्वाभाविक अवस्था में विवाह इत्यादि हो जाता है, उनकी भी वैवाहिक जीवन के बारे में कुछ साधारण आसक्ति होती है,
लेकिन जो बहुत समय तक हठात ब्रह्मचारी रहते हैं और जब बहुत देरी से उनका विवाह होता है तो उनके मन में वैवाहिक जीवन के बारे में असाधारण आसक्ति हो जाती है। आज यहां राज्य के बारे में जो यह असाधारण आसक्ति दिखाई देती है, यानी राज्य-प्रशासन के बारे में जो अतिरेकी महत्व दिखाई देता है, उसका भी यही कारण होगा ऐसा लगता है। जिनके हाथ में स्वराज्य सदा से रहा, उनको तो कोई अतिरेकी महत्व लगता नहीं। किंतु अपने हाथ में बहुत वर्षों तक स्वराज्य नहीं रहा और अब यह स्वराज्य नया-नया मिला, इसके कारण ही यह अतिरेक का महत्व है। फिर प्राचीन काल में जो जो बातें होती थी, उनकी हम आज कल्पना भी नहीं कर सकते। उनमें आज के जीवन मूल्य नहीं दिखाई देते। हम रघुवंश के बारे में यह सुनते हैं कि
“शैशवेऽभ्यस्त विद्यानां, यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनीवृत्तिनां, योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ रघुवंशम् -1.8॥
अर्थात सारा शासन आदि जुटाने के बाद वर्धक्य आ गया तो वानप्रस्थाश्रम ले लिया और सब छोड़ दिया। यह बात अपने यहां केवल रघुवंश की ही नहीं है। यह तो सभी के बारे में थी। अब कल्पना कीजिए कि चाहे उद्योगपति हो, चाहे राजनीतिज्ञ हो, सबके लिए यदि यह वानप्रस्थाश्रम का नियम प्रविष्ट हो जाए, कि एक विशेष समय के बाद वानप्रस्थाश्रम लेना होगा, तो यह स्पर्धा बहुत कम हो जाएगी। इस प्रकार शासन का अतिरेकी महत्व यहां किसी ने नहीं माना।
इसी के कारण हम कैसे विचित्र उदाहरण अपने देश में देखते हैं। भरत को राज्य मिल गया था, किंतु हाथ में आया हुआ राज्य वह अपने बड़े भाई को समर्पण करने के लिए पैदल चित्रकूट पर्वत पर गया। कोई भी सामान्य राजनीतिज्ञ आज इसको मूर्खता बताएगा और कहेगा कि हम तो आज राष्ट्रपति बनने के लिए कितना परिश्रम करते हैं और तुम्हारे हाथ में राज्य आ गया, तब भी तुम इतना लंबा प्रवास करके उसको दूसरे के हाथ में देने के लिए जा रहे हो, कोई सामान्य मनुष्य भी आज इतनी मूर्खता का व्यवहार नहीं करेगा, लेकिन यह व्यवहार हमारे यहां था। ऐसा ही गुरु गोविंद सिंह का उदाहरण है। उनको राजनीति में आना पड़ा और उस समय शासन भी चलाना पड़ा। वीर, योद्धा, शासक, दार्शनिक और संत सब कुछ थे।
तो जब उन्हें राजनीति में आना पड़ा तब उन्होंने भगवान से कहा कि हे भगवान तुमने मुझे इस राजनीति में क्यों डाला? मुझे इस खेड़ा परिवार में क्यों डाला? मेरा मन तो लग नहीं रहा।
हीर और रांझा की कहानी में हीर नामक लड़की को विवाह में खेड़ा परिवार में दिया गया था। किंतु उसका मन वहां नहीं रमता था, इसलिए पंजाबी लोकगीत में वह लड़की कहती है कि मुझे खेड़ा परिवार में क्यों डाला है? मेरा तो मन वहां है, यहां नहीं। इसी प्रकार गुरु गोविंद सिंह जी ने राजनीति के बारे में कहा कि मुझे क्यों इस खेड़ा परिवार में डाला है? मैं नहीं समझता कि आज कोई ऐसा कहने की मूर्खता करेगा। आज तो अधिकतर लोग इसी परिवार में जाना चाहते हैं।
अब छत्रपति शिवाजी महाराज का उदाहरण लें। शिवाजी ने राज्य प्राप्त किया और जब समर्थ स्वामी रामदास भिक्षा मांगने आए तो शिवाजी ने चिट्ठी लिख दी कि मैं मेरा राज्य आपको अर्पण करता हूँ। अब सन्यासी के सामने भी यह प्रश्न उठा कि यह राज्य अर्पण कर रहा है, किंतु मेरा तो यह धंधा नहीं, मैं इसे कैसे चलाऊं तब अंत में यह समझौता हुआ कि ठीक है, तुम भी राजा नहीं, मैं भी राजा नहीं, तो यह जो भगवा ध्वज है, जो कि अपना राष्ट्रध्वज है, इसके प्रतिनिधि के रूप में तुम शासन चलाओ। लेकिन प्राप्त किया हुआ राज्य एक सन्यासी की झोली में डालना, इसके लिए कितना पागलपन आवश्यक है, इसका विचार करें, यह हमारी परंपरा से आया हुआ दिव्य पागलपन है। आधुनिकता से आया हुआ पागलपन नहीं है।
महाभारत में एक बहुत अच्छा उदाहरण आता है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद धृतराष्ट्र वन में जाने के लिए निकले। गांधारी ने भी जाने की तैयारी की। पांचो पांडव हाथ जोड़कर खड़े हो गए और कहने लगे कि चाचा जी, जो हो गया सो हो गया। हमारी इच्छा लड़ने की नहीं थी, किंतु दुर्योधन ने किसी की भी नहीं मानी। ना हमारी मानी ना आपकी भी मानी। इस कारण सारा क्षय हो गया। लेकिन अब आप भी चले जायेंगे, तो हमारे परिवार में आपके अतिरिक्त और कौन जेष्ठ है? आप ही तो हमारे सब कुछ है। तब धृतराष्ट्र ने कहा कि ठीक है, तुम्हारी भावना अच्छी रही है यह मैं जानता हूँ। किंतु अब मुझे वन में जाना ही अच्छा है। अब उन्होंने निश्चय कर लिया तो माता कुंती ने भी अपनी बोरियाँ बिस्तर बांधना प्रारंभ किया। तो युधिष्ठिर ने शेष सब पांडवों को साथ लेकर माता से कहा कि यह तो बड़ी अजीब बात है कि हम तो पांचों भाई लड़ना ही नहीं चाहते थे। जो कुछ मिल जाता उसी में अपना जीवन बिता सकते थे। तुम्हीं ने हमको राज्य प्राप्ति हेतु लड़ाई करने के लिए बाध्य किया तथा प्रोत्साहित एवं प्रेरित किया। और अब, जब राज्य प्राप्त हो गया है, सारा राज्य हमारे हाथ में है, हमारी माता तुम वन में जा रही हो, यह क्या बात है? तब उस समय कुंती कहती है कि यह बात सही है कि तुम्हारी इच्छा नहीं थी और मेने ही तुम्हें राज्य प्राप्ति हेतु युद्ध करने के लिए प्रोत्साहित किया, क्योंकि तब वही कर्तव्य था। यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुमने अपने कर्तव्य में भूल की, ऐसा उसका अर्थ होता। अतः मैंने तुमको अपने धर्म या कर्तव्य के पालन के लिए ही युद्ध करने को प्रोत्साहित किया। किंतु मैं अपने पुत्रों के राज्य का लाभ और उपभोग लूं, यह भावना मेरे मन में नहीं आ सकती। तब तुमको राज्य प्राप्ति हेतु युद्ध करने के लिए प्रोत्साहित करना आवश्यक था, वह धर्म अनुकूल था। और अब जब धृतराष्ट्र वन में जाने के लिए निकले हैं, तो उनके साथ जाना मेरा धर्म है, इसलिए मैं उनके साथ जा रही हूँ। अब हम विचार करें कि यदि हम लोग कुंती के स्थान पर होते तो क्या ऐसा व्यवहार करते? तो ऐसा व्यवहार कदापि नहीं होता। आज तो हम उल्टा व्यवहार कर रहे हैं कि जिनके हाथ में शासन संस्था है, उनके साथ बलात अपना रिश्ता जोड़ने का प्रयत्न करते हैं।
कुंती के समान पागलपन का व्यवहार आज नहीं हो सकता। इसमें से यह बात ध्यान मैं आती है कि हम राज्य तंत्र या शासन को कितना स्थान देते थे? इस प्रकार यहां चेक एंड बैलेंस माने नियंत्रण एवं संतुलन का विधान था। शासन को समाज या राष्ट्र के अनेक साधनों में से एक माना गया। समाज का नेता राजा नहीं तो लंगोटी वाला था। इतना होते हुए भी उसमें भान्ति-भान्ति के संतुलन और भान्ति-भान्ति के नियंत्रण थे। साथ ही यह भी सोचा गया कि समाज जीवन स्वायत्त और स्वयंशासित रहे। शासन द्वारा नियंत्रित नहीं हो।
मार्क्स ने साम्यवाद की जिस उच्चतर अवस्था की कल्पना की और बकुनीन ने अराजकतावाद की जिस अवस्था की कल्पना की वेसा समाज, याने ‘राज्य विहीन समाज’ हमारे यहां भी आदर्श माना गया था। किंतु वह कैसे चलता था, इस विषय में वर्णन इस प्रकार आता है। भीष्म युधिष्ठिर को बताते हैं कि एक समय ऐसा था जब ‘न राज्यं न च राजासीत, न दण्डयो न च दाण्डिका:’, यानि राज्य नहीं थे, राज्य अधिकारी नहीं थे। दंड्य और दांडिक दोनों नही थे। तात्पर्य यह है कि कारागृह नहीं थे, दंडनायक नहीं थे, कुछ नहीं था।
तेषां नास्ति विधातव्यं, प्रायश्चितम कथं पुन:।।
यानी उस समय कोई विधान भी नहीं था, अतः कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही का प्रावधान भी नहीं था। उन्होंने यहां तक कहा कि ‘पुराधिक दण्ड एवासीत वध-दंडो च वर्तते ‘ अर्थात आज तो वध दंड भी है, किंतु उस समय तो वध दंड भी नहीं था, केवल धिक दण्ड था। लोगों का धिक कहना यही उस समय सबसे बड़ा दंड था। तब इस प्रकार राज्य विहीनता कैसे चली थी? तो उन्होंने कहा कि-
न राज्यं न च राजासीत् न दण्ड्यो न च दाण्डिकः ।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥ (महाभारत शांतिपर्व ५९.१४)
अर्थात यह सारा धर्म के आधार पर था। सब एक दूसरे की रक्षा करते थे। एक दूसरे को साथ लेकर चलते थे। आधार धर्म था, राज्य नहीं। हिंदुओं की विशेषता यह है कि समाज की धारणा धर्म के आधार पर हो सकती है, शासन के आधार पर नहीं। शासन या सरकार तो धर्म के अनेक साधनों में से एक साधन है। धर्म का अर्थ क्या है?, इसका बहुत वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है।
समाज की धारणा करने वाले जो विधान है, उनको धर्म कहा है। इस प्रकार धर्म के आधार पर हमारे यहां राज्य विहीन समाज था। अब यदि राज्य विहीन समाज फिर से निर्माण करना हो तो कौन सा आधार लिया जा सकता है? इसका विचार हमारे यहां है, वह आधार धर्म है। हमारे यहां इसी को सर्वोच्च माना गया है। धर्म को सर्वोच्च मानने के कारण यहां कभी राज्य विहीनता रह सकी है और आगे भी कभी हो सकती है। पश्चिमी देशों में राज्य विहीनता नहीं आ सकती, क्योंकि वह इसका कोई आधार नहीं है। अधिनायकवाद के तंत्र के द्वारा राज्य विहीनता की स्थिति नहीं आ सकती। वहाँ तो मत्स्य न्याय आ जाएगा कि बड़ी मछली, छोटी मछली को खा डालेगी।
हमने यहां देखा कि पश्चिम के विचारकों के मन में दो-तीन प्रमुख बातें आती है। प्रथम यह की समानता होनी चाहिए किंतु उनका यह विचार जम नहीं सका, हमारे यहां इसका भिन्न विचार था। दूसरी यह कि शासन विहीनता आनी चाहिए किंतु यह विचार भी जम नहीं सका, हमारे यहां इसकी भी अलग धारणा थी। तीसरी यह कि राज्य विहीन समाज होना चाहिए किंतु उनके यहां अभी तक यह नहीं हो सका। हमारे यहां इसका कुछ आधार दिया गया है और वह सबसे बड़ा प्रबल आधार है। यहां तक कि हमारे यहां राजनीति में लगे हुए लोग भी राजनीति को धर्म का एक साधन समझकर काम करते थे। ऐसा इतिहास में दिखाई देता है और इसके कारण हम कुछ ऐसे विचित्र कथन इतिहास में पढ़ते हैं कि जिनका हमें पता ही नहीं लगता है कि कैसे बोला होगा? क्या वे होश में थे, जब उन्होंने यह बात कही? ऐसे कई उदाहरण अपने यहां हुए हैं। शिवाजी महाराज, चंद्र राव मोरे को, जो बीजापुर के बादशाह का सरदार था, अपने पक्ष में लाना चाहते थे। शिवाजी ने उनको पत्र लिखा। चंद्र राव मोरे अपने खानदान को बड़ा समझते थे। अतः जब शिवाजी ने उनको कहा कि ‘तुम अभी स्वराज्य के इस प्रयास में कंधे से कंधा लगाकर हमारे साथ खड़े हो जाओ।‘ तब चंद्र राव ने कहा कि “तुम कौन हो?, हम तो श्रेष्ठ हैं। हम को बादशाह ने मेहरबान होकर राजा की पदवी दी है।“ शिवाजी महाराज को किसी बादशाह ने कोई उपाधि नहीं दी थी, क्योंकि वह कोई राज्याश्रय पर पलने वाले सरदार नहीं थे। शिवाजी महाराज ने उत्तर दिया कि “आम्हांस हे राज्यत्व श्रीशंभु नें दिसे आहे”
याने हमें श्री शंभू ने यह राज्यत्व दिया है। तुम्हें किसी बादशाह ने राजा की उपाधि दी होगी। हमें तो श्री शंभु ने यह राज्य दिया है। अब यह पागलपन ही तो है, कौन है वे श्री शंभु? किसने उनको
देखा है? उन्होंने राज्य कब दिया? किस प्रकार दिया? कुछ लिखा पढ़ी है या नहीं है? तो कुछ भी नहीं, किंतु शिवाजी महाराज यह कहते हैं कि हमें श्री शंभू ने यह राज्य दिया है। अपने एक दूसरे साथी को पत्र लिखते हुए शिवाजी कहते हैं कि “यानी हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए ऐसी भगवती की बहुत इच्छा है।“ शिवाजी महाराज यह नहीं कहते हैं कि मेरी इच्छा है, यह भी नहीं कहते हैं कि भोंसले कुल की या हमारे प्रांत की इच्छा है बल्कि यह कहते हैं कि ‘भगवती की यह इच्छा है कि हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए।‘ बड़े आश्चर्य की बात है की भगवती ने कब इच्छा की और इनको कैसे पता चला? और इससे हमारी राजनीति में क्या होना चाहिए, सेकुलर राज्य में भगवती का क्या संबंध है? लेकिन शिवाजी का कहना है कि भगवती की ऐसी इच्छा है कि हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए। अब शिवाजी महाराज के इतिहास के बारे में हम लोग जानते हैं कि उनका जितना सारा प्रयास हुआ वह सब धर्म का आधार लेकर हुआ। धर्म का आधार होने के कारण राज्य चलाना आदि जितनी भी सब बातें हैं, इनमें व्यक्तिगत आसक्ति हमारे यहां के किसी भी श्रेष्ठ पुरुष में नहीं दिखाई देती, यहां जो कुछ भी है वह सब धर्म का साधन है, और कुछ नहीं। अपने इतिहास में सब लोगों ने इसी नाते काम किया हुआ दिखाई देता है। आज के प्रगतिशील लोगों के ध्यान में नहीं आने वाले यह कुछ कथन केवल उदाहरण के लिए बताएं है। जब शिवाजी महाराज को कुछ यश मिला तो उस समय उनके गुरु रामदास स्वामी ने जो संतोष प्रकट किया वह आज हमारे ख्याल में नहीं आ सकता। वास्तव में सीधी सी बात थी कि वे यह कह सकते थे कि औरंगजेब का राज्य हट गया, मेरा विरोधी नष्ट हुआ और मेरा राज्य आ गया। किंतु रामदास स्वामी ने ऐसा नहीं कहा। उनकी शब्द-रचना बहुत अच्छी है। उन्होंने कहा कि “पापी औरंगजेब नष्ट हुआ, और अभक्तों का क्षय हुआ, अधर्म नष्ट हुआ है, धर्म की स्थापना हुई है और त्रिखंड में हरि भक्तों की सेनाएं संचार कर रही है।” और इस सारी राज्यक्रांति की फलश्रुति उन्होंने यह बताइ कि ‘अब स्नान संध्या के लिए पर्याप्त पवित्र जल प्राप्त हो गया।‘ अब यह कौन सी खास मतलब की बात बताई? वह यह कहते कि यह पद या यह प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, किंतु रामदास स्वामी बता रहे हैं कि सारी राज्यक्रांति का फल यह हुआ कि स्नान संध्या के लिए अब पर्याप्त पवित्र जल मिल गया। लेकिन यह सारी राज्यक्रांति करने वाले शिवाजी और आशीर्वाद देने वाले रामदास स्वामी दोनों की भूमिका यही थी, ऐसा दिखाई देता है। और मैं यह बताना चाहता हूँ कि संपूर्ण इतिहास में हमारी यही भावना थी। जब इस भावना की प्रतिष्ठापना समाज में है तो शासन विहीनता की और पहुंचने में अधिक कठिनाई नहीं है, किंतु जहां डिक्टेटरशिप है माने अधिनायक तंत्र है अर्थात जहां सब कुछ राज्य के लिए और राज्य के अंतर्गत है राज्य के बाहर कुछ नहीं, यह भावना है, वहां राज्य समाप्ति की अवस्था Withering away of the State नहीं आ सकती ।
इस प्रकार कुछ यह विचित्र बातें अपने को दिखाई देती है कि जो कुछ उनके अच्छे आदर्श हैं, उनको वे चरितार्थ नहीं कर पा रहे हैं, और हमारी प्राचीन परंपरा में उनका क्या चरितार्थ हुआ, इनके यह दृश्य हम देख सकते हैं।
अतः हम सब बातों का कुल मिलाकर विचार करें।
सारांश यह है कि हमें अब अपने राष्ट्र का नवनिर्माण करने का अवसर मिला है। खंडित भारत का ही क्यों नहीं हो, अब राज्य अपने हाथ में आ गया है। हम अब अपने भाग्य विधाता हो सकते हैं। अतः अब हमारे सामने यह प्रश्न है कि यहां कैसी रचना की जाए? यदि किसी का मॉडल देखकर हम अपनी रचना कर सकते तो काम बहुत सरल हो जाता। अतः आज क्रमांक एक और क्रमांक दो के जो राष्ट्र हैं, हमने उनका विचार किया। अब दुख की बात यह है कि यद्यपि अमेरिकी लोग तकनीकी दृष्टि से अत्यंत उन्नत हो गए, चंद्रमा पर भी पहुंचे हैं लेकिन वे अपने लोगों को हिप्पी बनने से नहीं रोक सके। ऐसा वहां सुख का अभाव है। फिर साम्यवाद और अराजकतावाद का विचार किया किंतु वहां भी समाधान या संतुष्टि नहीं दिखाई देती। हम वहां उनको भी अपनी रचनाओं में परिवर्तन करने की यानी अपने सिद्धांतों से बार-बार पीछे हटने की प्रवृत्ति देख रहे हैं। इसके कारण हम देख रहे हैं कि कोई बना बनाया मॉडल हमारे सामने नहीं हो सकता। फिर आज अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग सोचते हैं कि हमारी परंपरा, धर्म और संस्कृति अर्थात जो कुछ भी हमारा था वह तो खराब होना ही चाहिए क्योंकि तभी तो आज पतनावस्था में पहुंच गए हैं, किंतु इसको मानने के बाद भी यह कठिनाई हमारे सामने आती है कि दुनिया के प्रगतिशील लोगों ने जो आदर्श अपने सामने रखें, उनको भी वे चरितार्थ नहीं कर सके, किंतु इसके विपरीत हम यह देख सकते हैं कि हमारे समाज ने कभी उन आदर्शो को चरितार्थ करके दिखाने का काम किया है। इसके कारण हमारे मन में एक संदेह उत्पन्न होना स्वभाविक है कि हमारा आज जो पतन है, वह हमारी परंपरा, धर्म और संस्कृति के कारण है या इनको छोड़ने में जो विकृति आ गई उसके कारण है? हम सब यह जानते हैं कि हमारी परंपरा, धर्म और संस्कृति में विकृतियां आने का कारण यह रहा कि हमारा राष्ट्र 12 सौ वर्ष तक संघर्ष काल में रहा। वैसे तो विकृतियां नहीं आती किंतु विगत 1200 वर्षों तक संपूर्ण देश में एक कोने से दूसरे कोने तक हम परकीय आक्रमणों के विरुद्ध अखंड युद्धरत रहे और युद्ध काल में वे सारी बातें नहीं हो सकती जो सामान्य शांति काल में होती है। इसके कारण अपने समाज में कुछ विकृतियां आ गई है अतः जो हमारी मूल बातें हैं उनके कारण हमारा पतन हुआ है या विकृतियों के कारण हमारा पतन हुआ है, इसका ठीक प्रकार से विचार करें यदि यह पतन विकृतियों के कारण है तो क्या हम इन विकृतियों को दूर करते हुए और अपनी मूल बातों को हृदयंगम करते हुए आगे बढ़ सकते हैं, इसका भी विचार करें।
भारत माता की जय।
साभार संदर्भ |
श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का दिनांक 26 दिसंबर 1972 को जयपुर में अधिवक्ताओं के एकत्रिकरण में दिया गया बौद्धिक वर्ग यहां आद्योपांत दिया जा रहा है इस बौद्धिक वर्ग को दिनांक 20 मार्च 1973 को स्व० श्री जयदेव जी पाठक ने अपनी सुन्दर हस्त लिपि में लिपिबद्ध किया था उनके इस कठोर परिश्रम के कारण हम सभी इस बौद्धिक वर्ग को पढ पा रहे है आदरणीय स्व० श्री जयदेव जी पाठक को सादर नमन। |