(११ फरवरी १९६८ को प० पू० श्री गुरुजी जौनपुर में थे । वहाँ कार्यकर्ता शिविर था । दीनदयालजी की सन्दिग्धावस्था में मृत्यु का समाचार जैसे ही उन्हें मिला, वे तुरन्त काशी पहुँच गये । काशी में दीनदयालजी के शव को पोस्ट मार्टम के लिए लाया गया था । जैसे ही उनकी दृष्टि शव पर पड़ी, उनकी आँखें छलछला आयीं और रुँधे कण्ठ से निकला –”अरे, इसे क्या हो गया है ।” पोस्ट मार्टम के बाद जब शव को दिल्ली ले जाने के लिए विमान में रखा गया तो उस समय भी गुरुजी विमान की सीढ़ियाँ चढ़ कर अन्दर गये, अपने दोनों हाथ दीनदयाल जी के मुँह के ऊपर से छाती तक लाते हुये अपने नेत्रों से लगाए । इस प्रकार उन्होंने तीन बार किया । काशी से लौटते ही (११ फरवरी सायंकाल को) जौनपुर शिविर में उन्होंने स्वयंसेवकों के सम्मुख जो भाव व्यक्त किए, वे यहाँ अविकल रूप से दिये जा रहे हैं ।)
मन में बड़ा विषाद छा गया है । क्या हुआ होगा और किस प्रकार यह मर्मवेधी घटना घटी होगी, इसका तो पता लगाने वाले लगायेंगे । कुछ भी पता लगे, अपने संघ का एकनिष्ठ कार्यकर्त्ता उठ गया । जीवन के यौवन में, आगे अनेक प्रकार से कार्य करने की उनकी क्षमता बढ़ती ही जा रही थी । परन्तु अब उस समृद्ध क्षमता का लाभ प्राप्त होने की सम्भावना नहीं रही ।
दो-तीन दिन पहले ही मिला था । बड़े आनन्द और प्रेम से बातचीत हुई थी । मैंने पूछा था, ”तुम्हारा आगे का क्या कार्यक्रम है? कहां मिलोगे? ” उन्होंने कहा कि मैं पटना जा रहा हूँ । कुछ दिन बाद कानपुर में मिलूँगा । पटना पहुँचने के पूर्व ही यह काण्ड हो गया ।
आदर्श स्वयंसेवक
बाल्यकाल अर्थात् छात्रजीवन से ही स्वयंसेवक के नाते जो अपने कर्त्तव्य का बोध प्राप्त कर लेते हैं और समग्र जीवन की शक्ति संघ-कार्यार्थ ही समर्पित करने वाले जो थोड़े से लोग रहते हैं, उनमे उनका बड़ा स्थान था । संघ के स्वयंसेवक से अपेक्षा रहती है कि वह अपने अन्दर स्वयंसेवक के सब गुण कायम रखे, अपने संगठन का ध्यान रखे, तथा उसके भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों की महत्ता को हृदय में जाग्रत रखकर उनमें सम्मिलित होता रहे और उसे यदि अन्य कोई काम भी करने के लिए दिया जाए तो वह उसे परिश्रम से निभाये, चाहे वह कार्य किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो । उनको (दीनदयालजी) राजनीतिक क्षेत्र में काम करने के लिए कहा गया और उन्होंने वह किया । कितनी योग्यता से किया, उसकी कल्पना कुछ लोगों को होगी और कुछ लोगों को नहीं होगी, परन्तु यदि यह कहा जाए कि अब भारतीय जनसंघ के नाम से देश में जो राजनीतिक संगठन खड़ा है, वह उनकी योजनाबद्ध परिश्रमशीलता का ही परिणाम है, तो अत्युक्ति न होगी । जनसंघ में बहुत से लोग बोलने वाले रहे, बहुत से दौड़-धूप करने वाले रहे, बहुत से केवल शोभा देने वाले रहे, परन्तु नीव के पहले पत्थर से काम प्रारम्भ करके इतनी ऊंची मर्यादा तक कार्य पहुँचाने का श्रेय यदि विशेषत: किसी व्यक्ति को देना हो, तो उन्ही को देना पड़ेगा ।
जनसंघ का अध्यक्ष पद
वे उसके सर्वोच्च पद पर भी पहुँचे । यद्यपि मेरी इच्छा नहीं थी कि वे अध्यक्ष पद ग्रहण करें और उनकी भी इच्छा नहीं थी । मुझे उनसे कहना पड़ा था कि थोड़े समय के लिए, साल भर के ही लिए आपद्धर्म के रूप में,अध्यक्ष-पद स्वीकार कर लो, इसीलिए उन्होने इस पद को स्वीकार किया, नहीं तो वे स्वीकार करने वाले नहीं थे । उन्हें मान-मान्यता या पद की लिप्सा नहीं थी और इसीलिए उनके मन में अध्यक्ष-पद स्वीकार करने की बिलकुल इच्छा नहीं थी । मैं भी नहीं चाहता था । परन्तु किसी न किसी परिस्थिति के कारण मुझे भी एक प्रकार से बाध्य होकर उन्हें पद-ग्रहण के लिए कहना पड़ा था और मेरे कहने के कारण, स्वयंसेवक जिस तरह निर्देश-आदेश का पालन करता है, इसी नियम के अनुसार उन्होंने उसका पालन किया ।
उनकी अध्यक्षता के समय से थोड़े दिनों में ही जनमानस के ऊपर बड़ा अच्छा परिणाम दिखाई पड़ा । बड़े-बड़े विरोधी भी सोचने लगे कि अन्ततो-गत्वा देश की बागडोर संभालने वाला यही राजनीतिक दल (जनसंघ) होगा । कुछ लोग यह भी कहने लगे कि इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जो शक्ति है, वह इस व्यक्ति के रूप में मूर्तिमान खड़ी है ।
तीन बलिदान
ऐसा दिखाई देता है, जनसंघ का निर्माण कुछ बड़ी ही कठिन स्थिति में हुआ है । उसका भाग्य खराब है । पहले उसके अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे, उनकी एक प्रकार से राजनीतिक-हत्या हुई । फिर उसके बाद बडे भाग्य से डॉ० रघुवीर प्राप्त हुए । वे भी बड़े योग्य पुरुष थे । उनके कारण विदेशों में भी इस राजनीतिक दल का बोलबाला हो सकता था और प्रभाव निर्माण हो सकता था, किन्तु थोड़े ही दिनों में उनका अपघात हो गया और इसके बाद सर्वांग-परिपूर्ण कार्य करने वाला जो अध्यक्ष (दीनदयालजी) प्राप्त हुआ, वह अब इस प्रकार गया ।
एक के बाद एक आते रहेंगे
मैं काशी गया था, उनके शरीर को देखने के लिए । विमान से शरीर को विदा करने के बाद यहाँ आया । परन्तु मेंने आँसू नहीं बहाये । कुछ पता नहीं, लोगों ने मेरे बारे मे क्या समझा होगा । अपने पुराने सुभाषितों में यह वचन आता है कि जो कार्यार्थी हैं, वह दुःख और सुख इन दोनों को अवहेलित करके काम करता है-
मनस्वी कार्यार्थी गणयति न दुखम् न च सुखम् ।
भगवत्कृपा से मेरे मन की शायद ऐसी कुछ स्थिति बन गयी है और मैं उसको पचा कर चलने के लिए प्रस्तुत हुआ हूं । अब दूसरा कोई भी उतनी योग्यता से कार्य उठाने के लिए आगे नहीं आयेगा, ऐसी कोई बात नहीं है । कार्य बड़ा है, संगठन का कार्य है, अनेक कार्यकर्त्ताओं की परम्परा विद्यमान है, जो एक के बाद एक आगे आते रहेंगे । कोई स्थान रिक्त नहीं रहेगा और मुझे पूर्ण आशा है कि ऐसा ही होगा । इस सम्बन्ध में अधिक नहीं बोलता । जितना बोलूं थोड़ा ही है । सहना तो पड़ेगा ही । इतना बोलने के लिए भी मन के ऊपर नियन्त्रण रखने में बहुत परिश्रम करना पड़ा । ईश्वर की कृपा से नियन्त्रण रख सका । उसका परिणाम शरीर की थकावट के रूप में बहुत अधिक हुआ । मैं प्रत्यक्ष करुण दृश्य देखकर आया हूं, इसलिए सोचा कि इसका उल्लेख सबके सामने कर दूं ।
सर्वांगपरिपूर्ण योग्यता
हममें से प्रत्येक यह अनुभव करे कि उनकी ऐसी सर्वांगपूर्ण योग्यता हर एक को बढ़ानी चाहिए । मेरे कहने का यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि मैं सब लोगों को राजनीतिक क्षेत्र की ओर अपना झुकाव करने के लिए कह रहा हूं । वस्तुत: झुकाव तो बिलकुल होना ही नहीं चाहिए । जिस व्यक्ति का मैंने यहां, उल्लेख किया, उसका राजनीतिक क्षेत्र की ओर कतई झुकाव नहीं था । पिछले वर्षो में कितनी ही बार मुझसे उन्होंने कहा- ”किस झमेले में मुझे डाल दिया? मुझे फिर से अपना प्रचारक का काम करने दें ।”
मैंने कहा-”भाई, तुम्हारे सिवा इस झमेले में किसको डालें? ”
संगठन के कार्य पर जिसके मन में इतनी अविचल श्रद्धा और दृढ़ निष्ठा है, वही उस झमेले में रहकर, कीचड़ में भी कीचड़ से अस्पृश्य रहता हुआ सुचारु रूप से वहाँ की सफाई कर सकेगा, दूसरा कोई नहीं कर सकेगा । इसीलिए मेंने कहा कि उधर (राजनीतिक क्षेत्र) की ओर अपना झुकाव करने के लिए मैं किसी को नहीं कह रहा ।
साभार संदर्भ |
११ फरवरी १९६८ को प० पू० श्री गुरुजी जौनपुर में थे । वहाँ कार्यकर्ता शिविर था । दीनदयालजी की सन्दिग्धावस्था में मृत्यु का समाचार जैसे ही उन्हें मिला, वे तुरन्त काशी पहुँच गये । काशी में दीनदयालजी के शव को पोस्ट मार्टम के लिए लाया गया था । जैसे ही उनकी दृष्टि शव पर पड़ी, उनकी आँखें छलछला आयीं और रुँधे कण्ठ से निकला –”अरे, इसे क्या हो गया है ।” पोस्ट मार्टम के बाद जब शव को दिल्ली ले जाने के लिए विमान में रखा गया तो उस समय भी गुरुजी विमान की सीढ़ियाँ चढ़ कर अन्दर गये, अपने दोनों हाथ दीनदयाल जी के मुँह के ऊपर से छाती तक लाते हुये अपने नेत्रों से लगाए । इस प्रकार उन्होंने तीन बार किया । काशी से लौटते ही (११ फरवरी सायंकाल को) जौनपुर शिविर में उन्होंने स्वयंसेवकों के सम्मुख जो भाव व्यक्त किए, वे यहाँ अविकल रूप से दिये जा रहे हैं । |