“मुक्या मनाने किती उधळावे शब्दांचे बुडबुडे।
तुझे पोवाडे गातील पुढती, तोफांचे चौघडे।”
(अर्थ- मूक हृदय से कितने शब्दों के बुलबुले न्योछावर करें। आपका गौरवगान तो तोफों की गर्जना ही कर सकती है।)
शाहीर गोविंद की उपरोक्त पंक्तियां मैंने माध्यमिक शाला में पढ़ी थी। आज जिनका पुण्यस्मरण है, वे कृतिवीर थे और उनके पुण्यस्मरण प्रित्यर्थ भाषण करनेवाला में वाचावीर, ऐसा आज का विषम प्रसंग है। महान व्यक्तियों को समझनेवाले उनके समकालीन कम होते हैं, अत: कुछ काल के पश्चात उन्हें समझना और भी कठिन होता है। इसलिये ऐसा कहा है-
“स्तवार्थ तुझिया तुझ्यासम कवी कधी जन्मती“
अर्थ- आपके स्तवन के लिये आपके समान कवि का जन्म कब होगा ?
महान पुरुषों की महानता का आंकलन करने हेतु उनके समान महानता प्राप्त करनी होती है। ऐसी महानता से वंचित व्यक्ति को आज के इस समारोह में उद्बोधन का अवसर प्रदान किया गया है, यह बड़ा बेजोड प्रसंग है।
शिवाजी महाराज के बारे में महाराष्ट्र के लोगों को कुछ बताने की वास्तव में आवश्यकता नहीं है। यहाँ के आबाल-वृद्धों को उनकी जानकारी है। उनके चरित्र की घटनाएं, उनसे मिलने वाली स्फूर्ति, मार्गदर्शन, इन सभी का लाभ व अनुभव महाराष्ट्र के सभी छोटे-बड़े व समझदार व्यक्तियों को है ही।
अतः उनके चरित्र की, उनके कार्यों की जानकारी में दूं, यह मेरी धृष्टता होगी ऐसा लगता है। परंतु इतिहास का गहरा ज्ञान न होते हुए भी, जो कुछ थोड़ा-बहुत वाचन व महाराज के विषय की जानकारी ज्ञात करने के प्रसंग आये, उनपर आधारित कुछ बातें ध्यान में आती हैं। ऐसा देखा गया है कि, मनुष्य के जन्म के पश्चात उसकी कुंडली बनायी जाती है। इस कुंडली में या जन्म पत्रिका में जो ग्रहों की स्थिति होती है, उसके अधार पर ही व्यक्ति के जीवन में घटनाएं होती है। ऐसा मैने सुना था। मेरी ऐसी धारणा थी, कि कुंडली का परिणाम मनुष्य जब तक जीवित है, तब तक ही रहता है। किंतु शिवाजी महाराज के जीवन से ऐसा ध्यान में आता है कि मृत्यु के पश्चात भी कुंडली के ये शनि-मंगल अपना प्रभाव दिखाते हैं। महाराज का जीवन समाप्त हुआ। उन्होंने जो कार्य करने थे वे पूर्ण भी किये। फिर भी विभिन्न कालखंडों में उनके बारे में भिन्न-भिन्न लोगों की प्रतिक्रिया भित्र-भित्र रही है और मृत्यु के पश्चात भी उन्हें अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव का भागीदार बनना पड़ा है।
प्रथम उत्सव
आपको ज्ञात है कि शिवाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात १६८० के बाद व संभाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात १६८९ के बाद तकरीबन १८ वर्षों तक केंद्र सरकार विरहित ऐसी हिंदुओं की स्थिती थी। सभी प्रकार के साधनों का अभाव था तथा एक प्रबल साम्राज्य का अधिपति अपने दल-बल के साथ दक्षिण में अडिग था। उनका प्रतिकार करने का प्रसंग यहाँ के हिंदुओं पर आया था। और ऐसा लगता है कि उस समय शिवाजी महाराज के ग्रह बहुत ही उच्च स्थान पर होंगे। कारण उस अत्यंत विरोधी व प्रतिकूल परिस्थिति में महाराज की प्रेरणा, उनके विचार, उनके आदर्श हृदय में लेकर स्वयं के प्राणों की चिंता न करने वाले, आत्मबलिदान करने वाले, सतत शत्रू का प्रतिकार करने वाले हजारो वीर पुरुष उस समय आगे आये। संपूर्ण विश्व के इतिहास में एक अदभुत प्रकार का इतिहास उन्होंने अपने रक्त से लिखा। इसके आगे के कालखंड में हिंदुओं का राज्य स्वराज्य की स्थापना, उसका विस्तार और सभी दिशाओं में स्वराज्य के झंडे दिखने लगे। किंतु प्रारंभ में जो आदर्शवाद था, जो ध्येय था, वह लोगों के हृदय से अस्पष्ट होने लगा। जिस चारित्र्य से, जिन गुणों के समुच्चय से, जिस ध्येय से महाराज ने शून्य से सृष्टि का निर्माण किया था, वह धीरे धीरे मलीन होने लगा। जहाँ एक ओर महाराज ने शून्य से सृष्टि का निर्माण किया था, वहीं दूसरी ओर उनके वंशजों पर निर्मित सृष्टि शून्य में विलीन करने का प्रसंग आया।
१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के समय प्रमुख सेनापति के हृदय को शिवाजी महाराज की प्रेरणा जागृती देती थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख अपने इतिहास में मिलता है। उसके पश्चात भी स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु क्रांतिकारकों के जो प्रयत्न थे, उन्हें भी शिवाजी महाराज की बड़ी प्रेरणा थी। लोकमान्य तिलकजी ने शिवाजी का उत्सव एक ‘राष्ट्रीय उत्सव’ के रूप में मनाने का निश्चय किया। प्राप्त आधारों से ऐसा ज्ञात होता है कि, १५ मार्च १८९५ को रायगड पर सर्वप्रथम एक सादा व छोटा उत्सव मनाया गया। उसी वर्ष कांग्रेस के पुणे अधिवेशन में शिवाजी महाराज के इस उत्सव के विषय में विचार करने हेतु एक बैठक का आयोजन हुआ और यह उपक्रम प्रारंभ हुआ।
विदेशियों का विरोध
उत्सव के इस उपक्रम के प्रारंभ के पश्चात, जैसा मैंने पहले कहा है, शिवाजी महाराज की कुंडली के ग्रहयोगों का परिणाम दिखने लगा। राष्ट्रीय वीर पुरुषों का उत्सव मनाना यह विश्व में कोई नवीन उपक्रम नहीं था, फिर भी शिवाजी महाराज के इस उत्सव का प्रारंभ होते ही इस विषय में जनता और उससे भी अधिक विदेशी सरकार साशंक थी। यह उत्सव विफल हो इसके लिये अंग्रेज सरकार व उनके कठपुतली जैसे समाचार पत्रोंने उसके विरोध में प्रचार प्रारंभ किया। जनता के मन में आशंका निर्माण हो ऐसी स्थिति उस समय थी। ऐसा ज्ञात होता है कि १८९७ में १२ जून को पुणे में शिवाजी उत्सव मनाया गया, उस उत्सव में अफझल खान का वध इस विषय के समर्थन में एक-दो भाषण भी हुए। संयोग कहिये या काक-तालीय न्याय कहिये या ना कहिये, उस उत्सव के पश्चात केवल दस दिन की अवधि में आधुनिक इतिहास की पहली राजनैतिक हत्या पुणे में हुई। यह योगायोग हो सकता है या नहीं भी हो सकता, किंतु इस प्रकार की घटना से तथा इस उत्सव के प्रेरक लोकमान्य तिलक थे, इसलिए तत्कालीन सरकार के मन में शंका उत्पन होना स्वाभाविक था। इसके कारण से शिवाजी, शिवाजी के कार्य, शिवाजी के व्यक्तिमत्त्व पर कीचड़ उछालने का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। तत्कालीन अंग्रेजी समाचार पत्रोंने दो प्रमुख बिंदुओं को विशेष महत्व दिया। (१) शिवाजी यह अखिल भारतीय व्यक्तिमत्व नहीं हैं, केवल महाराष्ट्र तक सीमित ऐसे व्यक्तिमत्व हैं (२) वे केवल हिंदू संप्रदाय का नेतृत्व करते हैं। हिंदू, मुसलमान व अन्य इनमें सदैव संघर्ष होता आया है। इस दृष्टि से वे सभी के राष्ट्रपुरुष के रुप में मान्य नहीं हो सकते। शिवाजी के संदर्भ में उपरोक्त दो आरोप प्रारंभ के काल में उठाए गए।
प्रचार की विफलता
उपरोक्त आरोपों को उत्तर देने हेतु “मराठा” समाचार पत्र के संपादकीय लेख में लोकमान्य तिलकजी ने लिखा था, यद्यपि इस कार्य का प्रारंभ स्वाभाविक रूप से महाराष्ट्र में हुआ है, फिर भी शिवाजी की दृष्टि अखिल भारतीय थी। संपूर्ण राष्ट्र और राष्ट्र के प्रति भक्ति भावना यह दृष्टि शिवाजी की थी। इसे महाराष्ट्र से परे अन्य राज्यों के व्यक्तियों ने भी मान्य किया है। महाराज के व्यक्तित्व को महाराष्ट्र तक सीमित रखने का प्रयास सरकार ने यथासंभव किया, किंतु यश प्राप्त नहीं हुआ यह सत्य है।
विभिन्न प्रांतों से वे हमारे राष्ट्रपुरुष हैं, इस भावना से शिवाजी के बारे में विचार प्रारंभ हुए। लेख, नाटक, उपन्यास, काव्य आदि लिखने की प्रक्रिया का प्रारंभ हुई। मराठी भाषा के अतिरिक्त महाराज का पहला चरित्र (बायोग्राफी) उर्दू भाषा में लाला लाजपतरायजी ने लिखा, इसके पश्चात बहुतांश भाषाओं में राष्ट्र को प्रेरणा देने, दुर्बलों का मनोबल बढ़ाने, आत्मविश्वास जागृत करने के हेतु से देशभक्तों ने शिवाजी विषयक साहित्य निर्मिती का प्रारंभ किया। अंग्रेजों ने अपने सभी साधनों सहित विपरित प्रचार प्रारंभ किया। उदाहरणार्थ गुजरात में ऐसा प्रचार किया गया कि शिवाजी ने सूरत को लूटा, गुजराती लोगों को लूटा। कर्नाटक के बसरूर बंदरगाह को लूटा, कर्नाटक की जनता को त्रस्त किया। ओडिसा और बंगाल में प्रचार किया गया कि शिवाजी के वंशजों ने ही यहाँ आकर लूटमार की। ऐसे भित्र-भित्र प्रकारों से जनता को भड़काने के प्रयत्न हुए। परंतु इसके विपरित उस काल में निर्मित गुजराती और कर्नाटकी साहित्य में महाराज को “राष्ट्र पुरुष” के रूप में गौरवान्वित किया गया था। एक गुजराती लेखक ने लिखा है सूरत को लूटा गया उस समय महाराज का आक्रमण गुजरात पर नहीं, औरंगजेब पर था। कर्नाटकी लेखक लिखते हैं- बसरूर बंदरगाह पर आक्रमण कर्नाटक पर नहीं, वरन पोर्तुगीजों पर था।
शिवाजी विषयक ऐसे स्फूर्तीदायक साहित्य केवल महाराष्ट्र में ही नहीं, तो अन्य प्रांतों में भी निर्माण किये गए थे। शिवाजी के राज्याभिषेक से संबंधित रविंद्रनाथ टैगोर जी का गीत बहुत प्रसिद्ध है ही। किंतु आसाम, ओरिसा, केरल, तामिलनाडू इन सभी प्रांतों में शिवाजी को राष्ट्र पुरुष के रूप में मान्यता प्रदान करने वाले साहित्य का निर्माण हुआ व अंग्रेजों का प्रयास विफल हुआ।
विदेशी आक्रमण का प्रतिकार
शिवाजी का व्यक्तित्व केवल हिंदुओं तक सीमित था ऐसा दूसरा प्रचार अंग्रेजों ने किया था। इसके उत्तर में लोकमान्य तिलकजी ने मराठा समाचार पत्र में लिखा है “हम जो शिवाजी उत्सव आयोजित कर रहे हैं, उसमें शिवाजी ये राष्ट्र पुरुष है, यह भावना है। शिवाजी के काल में आक्रमण करने वाले मुसलमान थे; अत: शिवाजी को मुसलमानों का प्रतिकार करना था, यही सत्य है। मुसलमानों के विरुद्ध लड़कर उन्हें स्वराज्य स्थापित करना था। किंतु इसमें हिंदु-मुसलमान यह प्रश्न न होते हुए, अन्याय का प्रतिकार, स्वराज्य की स्थापना यह भावना थी। आज राज्य ना तो हिंदुओं के पास है, ना ही मुसलमानों के पास। हिंदु व मुसलमान दोनों ही विदेशी आक्रमणों के शिकार हैं। अतः ऐसी स्थिति में सभी ने मिलकर विदेशी आक्रमण का प्रतिकार करना होगा। यही अपना कार्य है। इस दृष्टि से हिंदू-मुसलमान आदि की भावना जनता के हृदय में प्रस्थापित करने का प्रयत्न सरकार कर रही है, जो Divide and Rule की नीति पर आधारित है। वास्तव में जो-जो अन्याय का प्रतिकार करेगा व राष्ट्र में स्वराज्य स्थापना के प्रयत्न करेगा, वे सभी हमारे राष्ट्र पुरुष है, फिर वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो।” इस प्रकार की स्पष्ट कल्पना लोकमान्य तिलक जी ने प्रस्तुत की व इसके अनुसार इतिहास का अभ्यास करते समय हमारा दृष्टिकोण कैसा हो, इसका सही उल्लेख भी उन्होंने किया। इतिहास जैसा है, वैसा ही बताया जाना चाहिऐ। इसमें वर्तमान राजनैतिक व अन्य आवश्यकता को ध्यान में रखकर बदलाव करना अनुचित है। इतिहास काल में कुछ घटनाओं के आधार पर वे भावनाएं चिरकाल तक कायम रखी जाए, यह भी ठीक नहीं है। इसके लिये तिलक जी ने इंग्लैंड व स्कॉटलैंड का उदाहरण दिया।
भूतकाल में इन दोनों देशों में भीषण संघर्ष हुए थे, किंतु जब ये दो देश एकत्र आये तब भूतकालीन संघर्षमय इतिहास में बदलाव किया जाय ऐसी आवश्यकता उन्हें प्रतीत नहीं हुई। वह इतिहास वैसा ही रखते हुए आज इंग्लैंड व स्कॉटलैंड मिलकर ग्रेट ब्रिटेन के नाम से जाने जाते हैं। संपूर्ण देश के हृदय पटल पर यह अंकित किया गया की ग्रेट ब्रिटेन के रुप में हमारा एक ही राष्ट्रीयत्व है और इसी का सभी ने स्वीकार भी किया।
तिलक जी ने दूसरे उदाहरण में फ्रेंच व अंग्रेज इनके संघर्ष का उल्लेख किया है। फ्रेंच नागरिकों ने नेपोलियन का कोई उत्सव मनाया तो अंग्रेजों की नाराजी उचित होगी क्या? या नेल्सन का उत्सव अंग्रेजों ने मनाया तो फ्रेंच जनता का चिढ़ना उचित होगा क्या? ऐसे प्रश्न तोकमान्य तिलक ने उपस्थित किये। इस प्रकार, शिवाजी महाराज का स्वरुप अखिल भारतीय रुप में प्रस्थापित ना हो इस हेतु से अंग्रेजों द्वारा किये गये अपप्रचार को अपने आप उत्तर मिलते गये। फिर भी अपप्रचार पुरजोर था, यह एक ग्रहयोग का ही परिणाम मानना होगा।
विदेशों में भी उत्सव
सन १९०५ में बंगभंग आंदोलन हुआ। लाल, बाल व पाल यह त्रिमूर्ती उस समय प्रसिद्ध थी। पंजाब, महाराष्ट्र व बंगाल इन तीनो प्रांतों को इस राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व मिला। बंगभंग के समय बंगाल में शिवाजी उत्सव बहुत बड़े स्तर पर आयोजित किया गया। इसके वर्णन भी प्राप्त है। केवल इतना ही नहीं तो उस वर्ष हिंदुस्थान के बाहर जहाँ-जहाँ भारतीय थे, वहाँ-वहाँ उत्सव मनाये गये थे, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि टोकियों व लंदन में मनाये गये उत्सवों का वर्णन आज भी उपलब्ध है। अन्य स्थानों पर भी उत्सव के आयोजन का उल्लेख किया गया है।
तिलक जी की मृत्यु के पश्चात इस उत्सव के आयोजन में कुछ शिथिलता आयी। कुंडली का मंगल ग्रह कुछ वक्री है, ऐसा प्रतीत होने लगा। मध्य काल में महाराज की नीतियां, उनके सिद्धांत, उनके आदर्श इन विषयों के प्रति जनमानस में आस्था तत्कालीन परिस्थिती के कारण थोड़ी कम हुई थी। हिंदु व मुसलमानों के मध्य के कुंठित वातावरण के कारण शिवाजी महाराज के कार्यों पर प्रहार करने का प्रयत्न भी कुछ लोगों ने किया। १९२७ में उनके जन्म का त्रिशताब्दी संवत्सर भी मनाया गया। ऐतिहासिक तिथि के संबंध में इतिहास संशोधकों में सदैव विवाद रहता ही है। वह ना हो, तो ही आश्चर्य की बात है। किंतु १९२७ के उत्सव के निमित दिल्ली के ‘पेशवा’ इस उर्दू पत्र में निजाम नामक व्यक्ति ने महाराज के संबंध में अत्यंत निदनीय वर्णन लिखा था। उसका सभी ने विरोध व प्रतिवाद किया, व उस अपप्रचार को बंद किया गया। इन घटनाओं से कुल मिलाकर ग्रहों के वक्री होने का परिणाम क्या होता है, इसका अनुभव १९२७ में हमें देखने को मिला।
देशभक्तों के प्रेरणा स्थान
उपरोक्त कालखंड के पश्चात यह ग्रह अधिक वक्री होता गया, ऐसा दिखता है। तत्कालीन राजकीय आवश्यकता को ध्यान में रखकर कुल मिलाकर राष्ट्रवादी भूमिका थोडी तरल (Dilute) करने की मानसिकता उत्पन्न हुई। शिवाजी महाराज श्रेष्ठ होते हुए भी, देशभक्त होते हुए भी उन्हें ‘पथभ्रष्ट देशभक्त”, “बहका हुआ देशभक्त” कहने का साहस कुछ लोगों ने किया। ऐसा लगता है उस समय उनकी कुंडली का गुरु उस समय प्रबल नहीं था, मंगल वक्री होगा। १९३६, ३७, ३८ में इस प्रकार का वातावरण था, किंतु दूसरी ओर सन १९२५ में संघ की स्थापना हो चुकी थी। संघ संस्थापक परम पूज्य डॉ. हेडगवार को प्रेरणा देने वाले व्यक्तियों में शिवाजी महाराज का व्यक्तिमत्व भी एक था। किंतु उस समय भी, हमेशा की तरह संघकार्य प्रसिद्धि पराङ्मुख था। अतः संघ की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया था। फिर भी संघ के इस महान कार्य में जो कुछ व्यक्ति प्रेरक थे उनमें शिवाजी महाराज एक थे, इस सत्य को इतिहास में विषद करना होगा। द्वितीय महायुद्ध के समय भारत की स्वतंत्रता हेतु नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बहुत महान कार्य किया। इस संबंध में नेताजी ने दिलीप रॉय जी से जो संवाद किया, वह रॉय जी ने अमृत बाझार पत्रिका, हिंदुस्थान स्टैंडर्ड आदि कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित किया है। हिंदुस्थान से प्रयाण के पूर्व यह संवाद हुआ था, उस समय उन्होंने कहा था कि “हमें शिवाजी की नीतियों का अनुकरण करना होगा।” उन्होंने strategy इस शब्द का उपयोग किया था। इससे स्पष्ट है कि नेताजी ने भी शिवाजी महाराज को श्रेष्ठ व अनुकरणीय पुरुष माना था।
आगे स्वतंत्रता प्राप्त हुई व पश्चात 1957 में महाराष्ट्र में ऐसी परिस्थिति निर्माण हुई, एक काल था जब शिवाजी को “बहका हुआ देशभक्त” संबोधित करने वाले महापुरुषों को भी प्रतापगढ़ पर आकर महाराज का सम्मान करना पड़ा था। It is never too late to mend, महाराज का सम्मान किया गया उस समय ग्रहों की स्थिति में बदलाव आया हो ऐसा प्रतीत होता है। इससे आगे का कालखंड अधिक शुभ रहा होगा। क्योंकि श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने भी शिवाजी को एक Good character certificate दिया ऐसा मेरे स्मरण में है। अतः अब महाराज के लिए अच्छे दिन है ऐसा लगने लगा। यह विश्वास गत वर्ष अधिक प्रबल हुआ क्योंकि गत वर्ष कॉमरेड डांगे जी ने शिवाजी पर एक लेख लिखा, जो हममें से अनेकों ने पढ़ा है ऐसा मुझे लगता है। कॉमरेड डांगे एक विचारवंत व्यक्ति हैं, महाराज के संबंध में जिन बातों का स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता अनेक दिनों से थी, वह स्पष्टीकरण उन्होंने अपने लेख में किया है। उन्होंने लिखा है कि हिंदू लोग पारंपरिक पद्धति से शिवाजी के लिए कुछ विशेषणों का उपयोग करते हैं, उनका अर्थ विश्व के अन्य लोगों को ज्ञात नहीं है। हिंदू connotation (गर्भितार्थ) क्या है, यह विदेशी लोगों को ज्ञात ना होने के कारण उन्हें यह कुछ Obscurantist (पुरातन) लगता है। किंतु ऐसा नहीं है। इस हेतु से डांगे जी ने उदाहरण स्वरूप दो कल्पनाओं का विवरण दिया है।
कॉमरेड डांगे जी का स्पष्टीकरण
एक है अवतार कल्पना। वे कहते हैं कि हिंदुओं में जो अवतार संकल्पना है वह Obscurantist है, ऐसा उन लोगों को लगता है जिन्हें इसकी पर्याप्त जानकारी नहीं है। किंतु इसका एक connotation इस देश में सदैव ही रहा है। महापुरुष को अवतार यह उपमा देने की पद्धति इस देश में पूर्वापार से चली आई है। जिस कालखंड में देश की सामाजिक, आर्थिक परिस्थिति बिगड़ी है. जहाँ कोई विकृति निर्माण होने लगी है, ऐसे कालखंड में किसी महापुरुष का जन्म व उनके द्वारा सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों की व विकृति को दूर कर समयानुकूल नवीन समाजरचना पद्धति का निर्माण हो, तो उन्हें अवतार ही उपमा देने की प्रथा हमारे देश में है।
दूसरा स्पष्टीकरण है “गोब्राह्मण प्रतिपालक” इस विशेषण के बारे में। जिन्हें इस विशेषण का अर्थ ज्ञात नहीं, उन्हें महाराज एक orthodox या conservative प्रकार के थे ऐसा लगता है। डांगे जी ने इसका connotation दिया कि में गो-प्रतिपालक हैं ऐसा जब शिवाजी ने कहा, तब इसका अर्थ ऐसा होता है कि, agriculture-based economy की संरक्षण करना उन्होंने स्वीकार किया है। उन्होंने कहा है, agriculture-based economy का गाय यह symbol था, उस समय यही economy थी, इसका संरक्षण करेंगे। इसका अर्थ है देश की आर्थिक स्थिती उत्तम रखेंगे ऐसा आश्वासन ही था, गो-प्रतिपालक में। और ब्राम्हण प्रतिपालक का अर्थ किसी विशेष जाति का पालन मैं करूंगा ऐसा नहीं था, उसका भी एक connotation मतलब गर्भितार्थ है। उस कालखंड में जो शासक थे, उनकी इच्छा ही कानून, ऐसी स्थिति थी। हमारे यहाँ ब्राम्हण यह शब्द कानून (law) इस अर्थ से उपयोग करते है, अतः यहाँ Rule of Law यानि कानून का राज्य होगा। Rule of Individual नहीं रहेगा।
जो राजा है वह अपनी इच्छानुसार स्वच्छंद होगा, मनमानी करेगा, ऐसी सुल्तानशाही यहाँ नहीं रहेगी। मैं स्वयं subject to rule of law के अनुसार ही अपनी प्रजा को रखूंगा, ऐसा आश्वासन शिवाजी ने दिया था। ऐसा स्पष्टीकरण कॉमरेड डांगे ने दिया है। अतः जब महाराज की 300 वीं पुण्यतिथि का प्रसंग आनेवाला है, ऐसे समय में गुरु, शुक्र, शनी, मंगल ये सभी ग्रह उनकी कुंडली में बहुत उत्तम स्थिति में है, ऐसा प्रतीत होता है। इससे आगामी उत्सव बहुत ही उत्तम होगा, सभी का सहकार्य मिलेगा, ऐसी आशा हमें करने में हिचक नहीं होनी चाहिए। मनुष्य की जन्म कुंडली में ग्रहों का परिणाम उसकी मृत्यु तक ही सीमित नहीं होता, आगे भी अखंड चलता रहता है, यह बात मुझे ध्यान में आई है, यह प्रभाव सभी के लिए होता होगा। किंतु श्रेष्ठ व्यक्तियों के समान, आप और मुझ जैसे सामान्य व्यक्ति की कुंडली का अभ्यास कौन करता है?
महाराज का व्यक्तित्व
शिवाजी महाराज के संबंधित बहुत सी जानकारी पर प्रकाश डाला गया है परंतु शायद बहुत कुछ पर प्रकाश नहीं भी डाला गया है। कारण यही है, कि सर्वंकष ऐसा उनका चरित्र लिखने के जो प्रयास थे, वे अभी पूर्ण नहीं हुए हैं। उसका प्रारंभ भी हुआ है या नहीं, यह मुझे ज्ञात नहीं है। परंतु महाराज का चरित्र ऐसा है जो बहुत सा ज्ञात है व ढेर सारा अज्ञात है। महाराज के संपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में केवल हमारे ही नहीं तो अन्य देशों में भी मान्यता प्राप्त है, अतः उनके व्यक्तित्व का संपूर्ण आकलन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
उनसे संबंधित कुछ ऐतिहासिक घटना ज्ञात हैं। उन्होंने राज्य की स्थापना की। राज्य स्थापित करने वाले अन्य भी बहुत हैं, परंतु शिवाजी महाराज का व्यक्तित्व, उनकी मनःस्थिति का रहस्य वास्तव में क्या है?, उसका महत्व क्या है?, यह समझने के लिये बहुत अधिक समय है, व अवसर भी है ऐसा लगता है। उनके बारे में जितने अधिक संशोधन हो रहे हैं, जितना लिखा जा रहा है, पढ़ा जा रहा है, विचार किया जा रहा है, उतना अधिक उनके बारे में समझने के लिए और बहुत कुछ बचा है, ऐसा ध्यान में आता है।
कुशल संगठक
महाराज के व्यक्तित्व का विचार किया जाए तो वे एक उत्कृष्ट संगठक थे। यह अब सभी ने मान्य किया है। जिस समय हिंदुस्तान हतबल हो गया था, हिंदू स्वराज्य स्थापित कर सके ऐसे सामर्थ्यवान व जिनकी तलवार के आधार पर अहिंदू साम्राज्य हिंदुस्थान के बाहर फैल रहा था, ऐसे बड़े-बड़े हिंदू सरदारों ने स्वराज स्थापन करने की हिम्मत छोड़ दी थी। सर्वत्र आत्मविश्वास का पूर्ण अभाव दिखता था। ऐसे समय देश के एक कोने में ‘हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करूंगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करना, अपने सहकारियों के मन में इसकी आकांक्षा अंकुरित करना, दक्षिण के पांच प्रबल बादशाह है व उत्तर का विशाल मुगल साम्राज्य और स्वयं साधन विरहित, ‘रावण रथी विरथ रघुराई’ इस प्रकार की स्थिति होते हुए भी ऐसी आकांक्षा धारण करना, यह भी साहस, आत्मविश्वास व धैर्य का कार्य था। यह साहस उन्होंने स्वतः किया व अन्य लोगों के हृदय में उसे बीजारोपित कर, चारों दिशाओं से आने वाले संकटों का सामना करने के लिए अडिग, अटल संगठन निर्माण किया। यह उनकी कुशल संगठक की भूमिका सर्वमान्य है।
नीति निपुण सेनापति
सेनापति के नाते से उनका जो श्रेष्ठत्व था उसे देशी व विदेशी सभी लोगों की मान्यता प्राप्त है। जिस रायगढ पर हम यह उत्सव मना रहे हैं, उसका चयन कर महाराज ने अपने चातुर्य का व युद्धनीति कुशलता का परिचय दिया है। कुछ लोगों ने इस गढ़ को दक्षिण का जिब्राल्टर कहा है। दिल्ली और विजापुर दोनों ओर से समान inaccessible, अत्यंत कठिन व administration की दृष्टि से सुविधाजनक ऐसा यह स्थान है। इससे राज्यकार्य व युद्धनीति दोनों में महाराज की निपुणता प्रदर्शित होती है।
गनिमी कावा (गोरिल्ला युद्ध, कपट युद्ध) इसके संबंध में हमने महाराज का नाम सुना ही है। आजकल गनिमी कावा से संबंधित अन्य व्यक्तियों की प्रशंसा करना यह लोगों की आदत हो गई है। माओ त्से तुंग, हो ची मिन्ह, चेग्वेवारा आदि ने गोरिला वार फेयर का उपयोग उत्कृष्ट पद्धति से अपनाया इसमें शंका नहीं है, परंतु इन लोगों के जन्म के सैकड़ों वर्ष पूर्व स्वयं प्रतिभा के आधार पर एक ओर सर्व साधन संपन्न साम्राज्य व दूसरी ओर साधन विरहित, बहुत कम लोगों का समूह होते हुए भी युद्ध में गोरिल्ला वॉर के तंत्र का उपयोग करना, उसका विकास करना, यह विशेष था। एक फ्रेंच लेखक ने लिखा है कि उस समय मानचित्र (नक्शे) आदि की उपलब्धता ना होते हुए geography (भूगोल), topography (स्थलाकृति या ततरूप) आदि का विस्तृत ज्ञान शिवाजी को कैसा प्राप्त था? यह आश्चर्यजनक है। उस समय युद्ध का एक नवीन तंत्र (Unprecedented) महाराज ने विकसित किया। युद्ध तंत्र की दृष्टि से इसकी गणना सिकंदर, सीजर, होनीबाला, नेपोलियन आदि के साथ विदेशी लेखक भी करते हैं। उनके कर्तृत्व का यह पहलू सभी के ध्यान आया है।
रचनात्मक कार्य
शिवाजी महाराज ने राज्य स्थापित किया केवल इतना ही नहीं, तो आदर्श, संस्कृति, धर्म के आधार पर एक संपूर्ण रचना निर्माण करने का बृहत प्रयास किया है। यह उनका योगदान है। इसका महत्व बहुत लोगों के ध्यान में नहीं आता। नेपोलियन ने अपने पुत्र को लिखा हुआ अंतिम पत्र एक प्रकार से उसका Public Testament, Political Testament है, ऐसा कहा जाता है। इस पत्र में नेपोलियन ने स्वयं का मूल्यांकन किया है। उन्होंने कहा है कि मैंने कितने युद्ध जीते यह इतिहास भूल सकता है किंतु मैंने जो सुधार किए, जो कानून बनाए, व संयुक्त यूरोप का स्वप्न हृदय में संजोया, इसके लिए मेरा नाम इतिहास में लिखा जाएगा। किंतु ऐसा नहीं हुआ, आज भी लड़ाई के संबंध में नेपोलियन का अधिक स्मरण किया जाता है।
शिवाजी महाराज के रचनात्मक कार्यों का देश पर जो प्रभाव हुआ है, उसका महत्व लोगों के ध्यान में उतना नहीं है, किंतु उन्होंने वे कार्य किए है। उनकी स्वयं की विशेष मुलकी व्यवस्था (Civil administration), उन्होंने जो लड़ाइयां लड़ी, उसके अतिरिक्त भी कुछ सैनिकी व्यवस्था थी। उन्होंने स्वयं छत्रपति की उपाधि धारण की। जिन्हें System की रचना (build up) करनी है, उन्हें प्रत्येक कृति विचारपूर्वक करनी होती है।
सामान्यतः जो चमकनेवाली या चकाचौंध करनेवाली (glittering and glamorous) कृतियां होती हैं, वह लोगों की दृष्टि को आकर्षित करती हैं। भविष्य का विचार करते हुए सावधानी से जो कार्य होता है, वह शीघ्र ध्यान में नहीं आता। छत्रपति उपाधि अनेक वर्ष पूर्व, कुछ हजार वर्षों पूर्व, किसी ने स्वीकार नहीं की थी। हिंदुओं के इतिहास में विभिन्न उपाधियां है। ‘विक्रमादित्य’ यह एक उपाधि थी जो अनेक वर्षों तक अस्तित्व में थी, परंतु महाराज ने वह उपाधि न लेते हुए छत्रपति यही उपाधि क्यों ली होगी? इन दोनों के mental association में बहुत भिन्नता है। वे विक्रमादित्य तो थे ही, यह बताने की आवश्यकता नहीं थी। किंतु मैं विक्रमादित्य हूँ, इसे महत्व न देते हुए मैं छत्रपति हूँ, ऐसा कहा। “छत्र इस शब्द में छाया”, संरक्षण यह भाव मानसिक सहचर्य का है, इसे उन्होंने महत्वपूर्ण समझा।
वर्तमान में, महाराज का राज्य यह secular राज्य था, इसे मान्यता प्राप्त हुई है। किंतु शिवाजी के बारे में विशेष उल्लेख करने का कारण हमारे ध्यान में नहीं आया। शिवाजी एक हिंदू राजा थे अतः वे सेक्युलर थे, यह क्रमप्राप्त ही है। इसका भिन्न अर्थ ऐसा होता है कि इतिहास में जो अन्य हिंदू states थे, वे secular नहीं थे। किसी व्यक्ति की डायरी में यदि ऐसा लिखा हो कि ‘आज इस व्यक्ति ने शराब नहीं पी’, तो यह सत्य dangerous सत्य है। क्योंकि इसका अर्थ ऐसा होता है कि शायद अन्य दिनों में वह व्यक्ति शराब पीता है। वैसे ही, शिवाजी राजा हिंदू राजा थे और सेक्युलर थे, यह कहना बहुत ही dangerous सत्य है, क्योंकि प्रत्येक हिंदू राज्य secularism पर ही आधारित होता है।
आत्मविश्वास की जागृती
महाराज ने अपने नाम का शक प्रारंभ किया। यह शक 1818 तक चला। हिंदू स्वयं स्वतः का उत्थान नहीं कर सकता, गुलाम रहना यही उनका जीवन है, ऐसा लोगों के हृदय में एक demoralization था। उसे समाप्त कर उनका आत्मविश्वास जागृत करने के लिए हेतुपूर्वक, स्वयं का राज्य करने का मानस ना होते हुए भी, स्वयं का राज्याभिषेक का संपूर्ण समारोह यथाविधि आयोजित किया। राज्य व्यवहार की नवीन पद्धति निर्माण की, प्रधान पद्धति (Council of Ministers) शुरु की। यह करना उन्हें आवश्यक था, ऐसा नहीं था। “मैं किसी को भी प्रधान पद पर नियुक्त नहीं करूंगा, मैं स्वयं राजा हूं” ऐसा यदि वे कहते, तो बहुत बड़ी भूल होती, ऐसा नहीं था। परंतु एक धर्म का राज्य (Rule of law) स्थापित करने के लिए Council of Ministers की स्थापना की, शक निर्माण किया। ऐसी जिन व्यवस्थाओं का निर्माण किया गया, उन सभी का विचार करें तो महाराज एक system builder थे, यह ध्यान में आता है। इससे राष्ट्र निर्माण के कार्य में उनका बहुत बड़ा योगदान हुआ यह दिखता है। प्रत्येक घटना में उनकी विचार पद्धति मौलिक व मूलभूत थी। शुद्धीकरण के विषय का उल्लेख तो किया ही गया है।
भविष्यकाल में सागरी सत्ता का महत्व उन्होंने पहचाना था। उस दृष्टि से स्वयं के आरमार (सशस्त्र जहाज) तैयार करना, सागरी किले बनवाना, इसे उन्होंने बहुत महत्व दिया था। इस संबंध में परम पूजनीय श्री गुरुजी कहते थे कि शिवाजी के इस पहलू की ओर लोगों का ध्यान नहीं गया है। इसके लिये वे सदैव सूचना देते थे कि महाराज अश्वारुढ हैं, ऐसे उनके चित्र, पुतले तैयार किये जाने चाहिये। इसी के साथ महाराज आरमार पर खड़े हैं, जहाज पर खड़े हैं और सामने हाथ दिखा रहे हैं, तलवार दिखा रहे है ऐसे चित्रों की निर्मिती करनी चाहिये, क्योंकि पूरे इतिहास में दिल्ली, विजापुर, गोवलकोंडा यह भाग हमारे हृदय को प्रभावित करता है। सागरी सत्ता का महत्व महाराज ने पहचाना था। स्वयं के आरमार (सशस्त्र जहाज) बनवाने का उपक्रम प्रारंभ किया था। इस दृष्टि से विदेशी शासकों की जानकारी व क्षमता वे एकत्रित करते थे। उन्होंने कोई शासक हावी या प्रभावी ना हो इसका ध्यान रखते हुए उनसे मित्रता के संबंध स्थापित किए थे। केवल व्यापारिक संबंध नहीं तो शस्त्रास्त्र, बारूद, आर्टिलरी, तोपें आदि से संबंधित क्या क्या क्रय करने लायक है, इस संबंध में विदेशी लोगों से विचार विनिमय भी किया था। जंजीरा के सिद्धी व अन्य लोगों पर अंकुश रखकर सागर क्षेत्र पर उनकी स्वयं की प्रभुसत्ता हो ऐसा उनका व्यापक दृष्टिकोण था। यह बातें जितनी प्रमुखता से ध्यान में आनी चाहिये, उस प्रमाण में आती नहीं हैं। किसी भी राष्ट्र निर्माता को केवल राजनैतिक, शासकीय या सैनिकी विचार ही नहीं तो समाज का विचार करना पड़ता है। अनेक बार कहा गया है, कारण व परिणाम (Cause and Effect)। शिवाजी व सामाजिक जागृति यह कारण व परिणाम है, इसका स्वीकार किया जाय इतनी जानकारी अब सभी के लिए उपलब्ध है। केवल एक व्यक्ति का मानस है, या किसी माता का व पिता का मानस है कि उनका पुत्र राजा बने, इसलिए उनका राज्य स्थापित हुआ, ऐसा नहीं था। यह तो उस समय संपूर्ण देश में हो रही जागृति का परिणाम था।
शिवाजी उस काल में शतकों से चले आ रहे वैचारिक व सांस्कृतिक प्रवाह का संकलित फल था। शिवाजी के जन्म से इस प्रवाह को गति मिली, ऐसा कह सकते हैं। राज्य स्थापना यह शिवाजी का एक पृथक व्यक्तिगत प्रयत्न नहीं था, यह केवल उनका एकांडा (Isolated) कार्य नहीं था, तो संपूर्ण देश में विदेशी आक्रमणों के प्रारंभ से विदेशियों के विरुद्ध किया जा रहा हिंदुओं का प्रतिकार, स्वराज्य रक्षण व स्थापना इन सभी का प्रयास अखंड चल रहा था। इस कार्य में एक दिन का भी खंड नहीं था। हमारे समक्ष जिस प्रकार का इतिहास रखा गया था, या रखा जा रहा है, उससे एक गलत व विकृत चित्र दिखता है। इतिहास में पीरियड दर्शाए गए हैं। हिंदू पीरियड, मुस्लिम पीरियड, ब्रिटिश पीरियड आदि। किंतु एक ही समय में सर्वत्र यवनों का साम्राज्य था, ऐसा नहीं है। उनके विरुद्ध हिंदुओं का अखंड प्रतिकार चालू था, विदेशियों की राजधानी कभी फतेहपुर सिकरी, तो कभी आगरा रही है। वैसे ही स्वतंत्र हिंदुस्थान की राजधानी भी बदलती थी। ऐसा होते हुए हिंदुस्थान की स्वयं की स्वतंत्र राजधानी सदैव थी। वह कभी उदयपुर होगी, कभी विजय नगर व कभी रायगढ़, किंतु एक ही समय दो राजधानियां यह संबंध 1200 वर्षों के काल से निरंतर बना हुआ है। एक आक्रमण कर्ता की राजधानी व दूसरी हिंदुओं के स्वराज्य की राजधानी। राजधानियों के स्थान बदले, रण-क्षेत्र बदले, सेनापति बदले, शस्त्रास्त्र बदले, लेकिन लड़ाई वही थी। आक्रमण कर्ता के विरुद्ध स्वराज्य संस्थापक। जयपाल- अनंगपाल से आज तक जो तेजस्वी परंपरा चल रही है, उसकी एक तेजस्वी कड़ी, तेजस्वी सेतु के रूप में शिवाजी महाराज के प्रयत्नों का स्थान है।
परंपराओं का आविष्कार
शिवाजी महाराज के इस स्थान की कल्पना आप सभी को है। यह जो ध्वज था, वह कभी भी झुका नहीं था। हमें कभी पीछे हटना पड़ा होगा, लेकिन जैसा कि चर्चिल ने कहा है, ‘We may loose battles, but would win war”I हमने लड़ाईयाँ हारी होगी, लेकिन हमारा युद्ध अखंड चालू था। पंजाब में ध्वज नीचे रखा न रखा, तो राजपूतों ने उठाया। राजपूतों के हाथों से वह गिरा ना गिरा हो, तो विजयनगर ने उठाया, वह विजय नगर के हाथ से गिरा तो तुरंत रायगढ़ ने उठाया। ऐसी यह अखंडता, सातत्य इस प्रयास में है। यह जो राष्ट्रीय अस्मिता की परंपरा है उसी परंपरा के एक तेजस्वी आविष्कार ऐसा महाराज का वर्णन हो सकता है। कारण उस काल तक सर्वत्र पराभूत मनःस्थिति प्रसृत हुई थी, उसे समाप्त करना, यह राज्य स्थापना से भी कठिन कार्य था, जो महाराज ने किया।
महाराज के प्रयत्नों का केवल इतना ही महत्व नहीं है, राज्य स्थापना यह एक सतही दृश्य अविष्कार है। ‘symptom’ है। हिंदुस्तान में सर्वत्र जनजागृति, धार्मिक जागृति, सांस्कृतिक जागृति यह अखंड चल रही थी। यह जागृति अलग-अलग प्रांतों में, अलग-अलग काल खंडों में फलने-फूलने लगी यह सत्य है। फिर भी जागृति की एक प्रकार की प्रक्रिया अखंड रूप से चल रही थी। महाराष्ट्र में संतों की जो परंपरा निर्माण की गई, उस परंपरा ने राष्ट्रीयत्व को बचाया है, हिंदू संस्कृति को बचाया है। जनता में स्वाभिमान की भावना का निर्माण किया है। यह स्वाभिमान ही मानो शिवाजी के रूप में शरीर धारण कर प्रकट हुआ है, ऐसा लोगों को लगने लगा है।
अखिल भारतीय दृष्टिकोण
मध्य काल में हमारे यहाँ कुछ progressive लोग आए थे। progressive होना बहुत आसान होता है। उनका ऐसा दृष्टिकोण था कि संत केवत झांज-मंजीरा बजाने वाले होते है, किसी भी प्रकार की जागृति आदि में उनका सहभाग नहीं था, बल्कि उन्होंने तो लोगों को निष्क्रिय बनाया और इस धार्मिक भक्ति संप्रदाय का परिणाम राजकीय स्थिति पर कभी भी नहीं हुआ है। किंतु उन लोगों का progressivism कुछ कम होता दिखता है। हाल ही में कम्युनिस्ट लेखकों ने भी यह मान्य किया है कि पंजाब, महाराष्ट्र, मध्य हिंदुस्तान इन भागों में जो राज्यक्रांतियां हुई है, उनका प्रेरणास्थान कथित भक्ति संप्रदाय का प्रचार ही था। ‘देर आए दुरुस्त आए’ के समान देर से क्यों ना हो यह बात उन्हें ध्यान में आने लगी है, अतः राष्ट्रीय अस्मिता की जो लहर चली थी शिवाजी उसके सर्वोच्च स्थान पर है,
ऐसा आभास समकालीन लोगों को होना स्वाभाविक था।
राज्य स्थापना यह अखिल भारतीय दृष्टि से थी। अखिल भारतीय स्वराज्य की दृष्टि थी। जिस पद्धती से महाराज आगरा गये, विभिन्न जाति जमाती के लोगों से विचार-विमर्श किया, उन्होंने छत्रसाल से संबंध रखें, जिन कारणों से गुरु गोविंद सिंह जी को इस ओर आने की इच्छा हुई, यहाँ की स्थिति का अवलोकन करना, सलाह मशविरा करने का मन हुआ, इन सब का विचार करने पर अखिल भारतीय दृष्टिकोण का होना ध्यान में आता है।
मिर्जा राजा जयसिंह को महाराज ने जो पत्र लिखा था, उसके संबंध में कुछ विद्वानों ने आशंका प्रकट की है। मुझे लगता है उनकी आशंका अत्यंत छोटी व कमजोर थी। वास्तव में शिवाजी महाराज का जन्म हुआ था या नहीं से आशंका व्यक्त करते तो वे लोग अधिक बुद्धिमान सिद्ध होते। तथापि महाराज ने जयसिंह को पत्र लिखा था या नहीं यह प्रश्न हम उन विद्वानों पर ही छोड़ देते हैं, परंतु पत्र तो हमारे समक्ष है। उसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि आप विदेशियों की सेवा क्यों करते हैं, मुझे दिल्ली का राज्य नहीं चाहिये, आप यहाँ आइए, हम दोनों साथ रहेंगे, मैं संपूर्ण दक्षिण निष्कंटक कर मेरी सेना व दल-बल के साथ आपके चरणों में वापस आता हूँ। आपके नेतृत्व में हम दिल्ली पर हमला करेंगे। वहाँ उदयपुर के राणा के नेतृत्व में हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करेंगे। इस प्रकार के संवाद उस पत्र में हैं। कुछ लोगों को पत्र लिखने की सत्यता पर भी आशंका है। हम इतिहास संशोधक नहीं है, अतः सुखी है। परंतु इस प्रकार का एक अन्य पत्र मैंने देखा है। अतः यह पत्र लिखा गया है, इसकी सत्यता अधिक बलवान होती है। ज्ञानकोषकार श्री व्यं. केतकरजी को ब्रिटिश म्यूजियम में नाना साहब पेशवे के एक पत्र का अंग्रेजी अनुवाद प्राप्त हुआ था, उसे प्रकाशित किया गया है। मूल पत्र प्राप्त नहीं है, ऐसा उन्होंने कहा है। अब वह उपलब्ध है अथवा नहीं यह मुझे ज्ञात नहीं है, कारण मैं कोई विद्वान इतिहास संशोधक नहीं हूँ। पानीपत के युद्ध में परास्त होने के पश्चात नानासाहेब पेशवे की हिम्मत समाप्त हो गई थी। ऐसा मिथ्या समाचार यहाँ प्रसारित किया गया था। किंतु उनके इस पत्र से ऐसा कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। नानासाहेब ने जयपुर के महाराज को जो पत्र लिखा उसमें वे लिखते हैं कि “हम लड़ाई में हारे हैं, यह हमारी हानि है, किंतु इसमें दिल्ली की शक्ति भी कमजोर हो गई है। अब आगे हमें यदि किसी से धोखा है, तो वह अंग्रेजों से है। कलकता यह अंग्रेजों का केंद्र है। अंग्रेजों को यदि अभी नष्ट नहीं किया गया तो आगे हमें परेशानी होगी, ऐसा कहते हुए नानासाहेब आगे कहते हैं, कि जयपुर के राजा ने भूमार्ग से मतलब उत्तर प्रदेश आदि से बंगाल में प्रवेश करना चाहिए व मैं जहाज में यहाँ से मेरी सेना भेजता हूँ। इस प्रकार समुद्र मार्ग से हम व भूमि मार्ग से आप ऐसे हम दोनों मिलकर कलकता पर आक्रमण करेंगे। शिवाजी महाराज ने जयसिंह को लिखे पत्र के भाव (spirit) व इस पत्र के भाव इसमें एक समानता है। इतिहास में विद्वानों ने शिवाजी के पत्र के संबंध में कुछ भी कहा हो, फिर भी इस प्रकार का पत्र प्रेषित हुआ था, यह समझने को पर्याप्त अवसर है।
राज्य ध्येय प्राप्ति का साधन
इस पत्र में अखिल भारतीय दृष्टिकोण दिखता है, यही अखिल भारतीय दृष्टिकोण होने के कारण शिवाजी महाराज ने छत्रसाल को जिस प्रकार का वर्णन किया, उसी प्रकार का वर्णन बाजीराव ने किया है। इसमें अखिल भारतीय दृष्टिकोण की सत्यता प्रदर्शित होती है। साथ ही यह जो राज्य है वह किसी एक व्यक्ति का, एक परिवार का एक जाति या एक प्रदेश का नहीं था, यह एक भावना थी। राज्य के प्रति आसक्ति नहीं थी, अपितु एक महान लक्ष्य की प्राप्ति का साधन, इस रूप से राज्य की और देखा गया, ऐसा उनके चरित्र से ज्ञात होता है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने अपनी हिंदू पद पादशाही इस पुस्तक में महाराज के अनेक उद्धरण (quotations) प्रस्तुत किए हैं। हिंदवी स्वराज्य स्थापित हो यह श्री की तीव्र इच्छा है। परमेश्वर की तीव्र इच्छा है। मेरी माता की इच्छा है, मेरे जाति की इच्छा है, या मेरी पार्टी की इच्छा है, ऐसा उन्होंने नहीं कहा। जब कुछ लोगों ने कहा राजे यह उपाधि हमें बादशाह ने दी होगी, तब उन्होंने कहा कि मुझे यह राज्य श्री शंभू मतलब भगवान शंकर ने दिया है। यह sale deed कहाँ हुआ था, यह गिफ्ट कहाँ register किया था, इसकी भावना क्या थी, यह केवल समझ लेना होगा।
अभक्तांचा क्षयों झाला
(अर्थ अभक्तों का क्षय हुआ।)
स्वराज्य की स्थापना व राज्याभिषेक के पश्चात समर्थ रामदास ने आनंदवन भुवनी काव्य आनंद के साथ लिखा। इसमें जो वर्णन है वह मॉडर्न मानव को संबोधित करने वाले है। इसमें उन्होंने एक पार्टी गई व दूसरी आई ऐसा नहीं कहा है। उन्होंने कहा है,
बुडाला औरंग्या पापी, म्लेंछ संहार जाहला।
मोडिली मांडिली क्षेत्रे, आनंदवन भुवनी।
बुडाले अवधे पापी, हिंदुस्तान बळावते।
अभक्तांचा क्षय झाला, आनंदवन भुवनी।
(अर्थ – पापी औरंगजेब डूब गया, मुसलमानों का संहार हुआ। जो तीर्थस्थान ध्वस्त किए गए वे पुनः स्थापित हुए हैं। ऐसा आनंद सर्व दिशाओं में संपूर्ण देश में है। सभी पापी डूबे, हिंदुस्तान शक्तिशाली हुआ। अभक्तों का (हिंदू विरोधी लोगों का) क्षय हुआ। संपूर्ण देश में सर्व दिशाओं में आनंद स्थापित हुआ।)
हमारी सेना सर्व दूर संचार करने लगी। तब वे कहते हैं,
त्रिखंडी चालल्या फौजा हरिभक्तांच्या ।।
(अर्थ – तीनों खंडों में ईश्वर भक्तों की सेना संचार करने लगी।)
अब क्या यह कहने की पद्धति है? कहते हैं पापी औरंगजेब डूबा। अब वह पापी था या पुण्यतान इससे क्या लेना-देना है। दूसरी पार्टी का है, ऐसा कहना पर्याप्त था। किंतु उन्होंने ऐसा नहीं कहा। उसी प्रकार म्लेंछों का (मुसलमानों का) संहार हुआ। मोडिली मांडिली क्षेत्रे (ध्वस्त तीर्थक्षेत्रों की निर्मिती हुई), अभक्तांचा क्षयों झाला (जिन्हे देश के प्रति भक्तीभाव नहीं है, ऐसे अभक्तों का विनाश हुआ) ऐसा कहा है। हिंदुओं की, मुसलमानों की, ख्रिश्चनों की पार्टीवालों का ऐसा नहीं कहा है। कहा- अभक्तों का क्षय हुआ। और इतनी भीषण उथल-पुथल (बदलाव) हुए उसकी फलश्रुति क्या है, तो –
उदंड जाहले पाणी स्नान संध्या करावया।
जप तप अनुष्ठाने, आनंदवन भुवनी।
(अर्थ – नदियों में अपार जल भर आया, जिसमें लोग स्नान व संध्या (पूजा विधि) कर सकते थे। संपूर्ण देश आनंदमय होने के कारण, सभी जप, तप, अनुष्ठान कर सकते थे।)
ऐसा कहा, इतनी राजनैतिक उलटा-पलट हुई जिसके फलस्वरूप क्या मिला तो स्नान-संध्या करने के लिए पानी उपलब्ध हुआ। इतनी बड़ी फलश्रुति है, फल प्राप्ति है। इसके पूर्व नदियाँ सूखी थी ऐसा नहीं है, लेकिन यह एक दृष्टिकोण था। वह केवल समर्थ रामदास का नहीं था, अपितु तत्कालीन सभी देशभक्तों का था। धर्म की स्थापना यह ध्येय था, इसके लिए साधन था, राज्य प्राप्ति। अंतिम ध्येय या लक्ष्य नहीं था। रामदास जी ने कहा है-
धर्मा साठी मरावे, मरोनी अवाध्यासी मारावे।
मारता मारता ध्यावे, राज्य आपुले।
(अर्थ – धर्म के लिये मरना (बलिदान देना) चाहिये, व धर्म विरोधी सभी को मारना चाहिये। इस प्रकार मारते मारते
अपना राज्य प्राप्त करना चाहिये।)
यह केवल धर्म व राज्य के लिये नहीं, अन्य अनेक संबंध में समर्थ ने लिखा है।
विवेके विचारे राजकारणे अंतर श्रृंगारिते।
(अर्थ – विवेक व विचार से राज्य कार्य का श्रृंगार करना चाहिये। विवेक व विचार को प्रथम स्थान देना चाहिये।)
इसी प्रकार,
मुख्य ते हरिकथा निरूपण ।
दुसरे ते राजकारण।
(अर्थ – परमेश्वर की कथा का वर्णन प्रमुख है, राजनीति का स्थान द्वितीय है।)
इन शब्दों के साथ साध्य-साधन विचार स्पष्ट किया है।
इसी दृष्टि से उपभोग वृत्ती, व्यक्तिगत आकांक्षा राज्य प्राप्ति के लिए न होते हुए समर्थ रामदास जी के अनुसार “सत्ता यह धर्म संस्थापना का साधन है” यह विचार छत्रपति शिवाजी के संपूर्ण जीवन से प्रकट होता है।
सकळ सुखांचा त्याग, करूनी साधिजे हा योग।
राज्य साधनाची लगबग केली पाहिजे।
(अर्थ- सर्व सुखों का त्याग कर, राज्य-साधन नामक ‘योग’ हमें साधना (प्राप्त करना) है। इस योग हेतु सभी सुखों को त्याग
करना होगा।)
अर्थात धर्म स्थापना यह ध्येय है। इसके लिये सभी कार्य करते है। उन्हीं कार्यों का यह एक भाग है राज्य स्थापना।
जनमानस की भावना
यह भावना शिवाजी के अंत करण में थी, इसीलिए कम से कम 3 बार उनके मन में वैराग्य भावना जागृती हमें दिखती है।
१- संत तुकाराम का कीर्तन सुनते समय
२- श्रीशैल्य के दर्शन के समय
३. एक बार जब समर्थ रामदास के सान्निध्य में थे।
यह सब छोड़कर कुछ अलग करें, आत्महत्या करें, इस प्रकार की इच्छा किसी modern politician के मन में गलती से भी नहीं प्रकट होती, किंतु शिवाजी के मन में वैराग्य भावना प्रकट हुई थी। उस काल में जो संपूर्ण समाज की, जागृत समाज की मानसिकता साधु-संतो ने निर्माण की थी, वही महाराज की थी। और इसलिए जब उनका राज्याभिषेक किया गया, उस समय वह राज्याभिषेक एक व्यक्ति का है ऐसा किसी के मन में नहीं आया। सभी का विश्वास था, कि यह एक मानसिकता का राज्याभिषेक है। इस प्रकार की जनमानस की भावना थी, मानो धर्म की सिंहासन पर स्थापना हुई है और शिवाजी केवल उसके प्रतीक हैं।
यह भारत का मनोवैज्ञानिक इतिहास (Psychological History) है। लोग आजकल इतिहास को Political History, Chronological History, Social History, Cultural History ऐसे भागों में विभाजित करते है। हमारा कहना है कि हिंदुस्तान की Psychological History देखिये। वह देखने से ज्ञात होता कि इस देश के आधुनिक मानसिक इतिहास की सबसे क्रांतिकारक घटना यह शिवाजी का जन्म, उनका कार्य, व उनका राज्याभिषेक ही है। इससे हमें अखंड उपयोगी ऐसी शिक्षा (पाठ) मिलती है, जो धर्म संस्कृति के प्रवाह से निर्मित हुई है।
मार्गदर्शक स्मृति
आज भी हम एक विशेष परिस्थिति में है। आपको व मुझे राजनीति समझती नहीं है, यह बहुत अच्छा है। किंतु यह स्वराज्य है, खंडित भारत का है, फिर भी स्वराज्य है। और इस राज्य के द्वारा जितना संभव हो, उतना राष्ट्र निर्माण का कार्य करने का अवसर हमें है। इस स्थिति में सिंहासन पर विराजमान होते समय शिवाजी की मानसिकता थी कि ‘यह राज्य धर्म का है’, शिवाजी का नहीं। इस मानसिकता से आज के राज्यकर्ता कार्य करें, तो राष्ट्र का वैभव हम निर्माण कर सकेंगे। यह मानसिकता छोड़ दी गई, तो शिवाजी के पश्चात राज्य का विस्तार हुआ, अटक से कटक तक ऐसा उसका वर्णन है, सर्वत्र हमारे अश्व घूमते थे। सेना के सेनापति थे, अनेक ख्याति प्राप्त सेनापति थे, सब कुछ था। फिर भी महाराज ने शून्य से सृष्टि निर्माण की, तो आगे वही सृष्टि धूल में मिल गई। (माटी मोल हो गई।)
इस चमत्कार का वर्णन करते हुए मराठ्यांच्या लढाया 1802 से 1818′ इस ग्रंथ में श्री. म. परांजपे जी ने लिखा है कि मराठों का राज्य ढह जाने का कारण लोग बताते है, कुछ का ऐसा कहना है कि, मराठा नेता एक दिवंगत हुए महादजी शिंदे, नाना फडणवीस आदि मराठों के श्रेष्ठ नेता एक के पश्चात एक दिवंगत हुए, जिसके कारण राज्य की बहुत हानि हुई। किंतु यह सत्य नहीं है। यह सभी यदि जीवित भी होते, तो भी राज्य की रक्षा कर सकते, ऐसी स्थिति नहीं थी। नाना फडणवीस के राजकारण, या युद्ध भूमि पर तलवारबाजी में प्रवीण महादजी के कारण राज्य की रक्षा संभव नहीं थी, क्योंकि इन सभी को प्रेरणा देने वाला पुरुष उस समय नहीं था। राज्य यह एक साधन है, इस प्रेरणा (Motivation) की भावना से हम अपना राज्य कार्य करें, तभी हम अपना भाग्य निर्माण कर सकते हैं। यदि ऐसा ना किया गया, और शिवाजी के काल में इतिहास निर्माण किया गया व पश्चात उसकी जो परिस्थिति हुई, जो परिणति हुई, वह आज भी उसी दिशा में होगी यह सत्य है, यह एक शिक्षा शिवाजी का इतिहास हमें देता है।
उपरोक्त घटनाओं का विचार हो, एक बार सभी दृष्टिकोणों से (from all aspects) शिवाजी का मूल्यांकन हो, चरित्र का योग्य लेखन हो, उसकी स्फूर्तिदायक प्रेरणादायक मार्गदर्शक स्मृतियाँ लोगों के मानस में अखंड रहे, इस दृष्टि से उत्सव मनाते हैं। इस प्रकार के उत्सव यहाँ सर्वत्र सदैव मनाए जाए, जिससे देश को अखंड योग्य मार्गदर्शन प्राप्त होता रहेगा। जागृति सर्वत्र होती रही, तो जो स्वयं योग्य मार्ग पर नहीं है ऐसे नेताओं को शिवाजी महाराज की प्रेरणा से जागरूक जनता योग्य दिशा में ले जाने के लिए बाध्य कर सकेगी। यही एक आशा इस प्रसंग से निर्मित हुई है। अतः यही आशा, आप सभी का धन्यवाद व आनंद इन तीनों को प्रकट करता हूँ।
श्री दत्तोपंत ठेंगडी
हिंदी अनुवाद डॉ सौ. अमिता अजय पत्की, नागपुर
साभार संदर्भ |
चैत्र पूर्णिमा के अवसर पर, तदनुसार 12 अप्रैल 1979 को रायगढ़ के किले पर छत्रपति शिवाजी महाराज की पुण्यतिथि के उपलक्ष में आयोजित उत्सव के अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का भाषण हुआ। मूल रूप में मराठी में दिए गए इस बौद्धिक वर्ग का संकलन करके भारतीय विचार साधना पुणे ने राष्ट्र पुरुष छत्रपति शिवराय के नाम से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया था।
उस मराठी पुस्तिका का यह हिंदी अनुवाद आदरणीय डॉ. सौ. अमिता पत्की जी ने सम्पन्न किया। आप स्वदेशी जागरण मंच की महिला कार्य विभाग की अखिल भारतीय प्रमुख है और नागपुर आपका केंद्र है